Gyan Ganga: देवऋर्षि नारद जी के चरणों में गिर कर क्षमायाचना क्यों कर रहे थे कामदेव?
निश्चित ही इन्द्रदेव का यह सोचना बिल्कुल ऐसा था, मानो कोई स्वान सामने आते सिंह को यह देखकर भागे, कि कहीं उसके मुख में पकड़ी हड्डी को सिंह छीन न ले। स्वान का इस प्रकार से सोचना, निःसंदेह ही हास्यास्पद नहीं, तो और क्या है।
कितने आश्चर्य का विषय था कि जो श्रीहनुमान जी, संसार में कभी किसी शत्रु से भयभीत नहीं हुए, सदा मैदान में डटे रहे, क्योंकि उनके अनुसार, श्रीराम जी प्रत्येक परिस्थिति में, सदैव उनके साथ रहे। लेकिन आज वही श्रीहनुमान जी के, श्रीराम जी के अपने समक्ष होने के बाद भी, वे त्रहिमाम्-त्रहिमाम् कर रहे हैं। तो निश्चित ही आश्चर्य का विषय तो बनता ही है। विगत अंक में हमने इस विषय पर नन्हां-सा संकेत भी किया था, कि श्रीहनुमान जी को देवऋर्षि नारद जी का स्मरण हो उठा था। देवऋर्षि नारद जोकि भक्ति व शक्ति के महान पुंज थे। एवं समस्त संसार व तीनों लोकों में उनके त्याग, तपस्या व ध्यान-समाधि के महान चर्चे थे। हुआ यूँ, कि एक बार लोक भ्रमण करते हुए, देवऋर्षि नारद जी एक मनमोहक देवस्थल पर जा पहुँचे। वहाँ की सुंदर पर्वत श्रृंखलायें व सुंदर दैवीय प्रकृति देख उनका मन सहज ही वहाँ, ध्यान सुमिरन हेतु तत्पर हो उठा। उन्होंने अपना आसन सजाया और उसी क्षण समाधिस्थ हो उठे। उन्हें यूँ गहन साधना की गहराइयों में उतरा देख इन्द्रदेव को लगा कि अवश्य ही देवऋर्षि नारद जी, मेरे स्वर्ग लोक को हथियाने हेतु ऐसा कठोर तप कर रहे हैं।
निश्चित ही इन्द्रदेव का यह सोचना बिल्कुल ऐसा था, मानो कोई स्वान सामने आते सिंह को यह देखकर भागे, कि कहीं उसके मुख में पकड़ी हड्डी को सिंह छीन न ले। स्वान का इस प्रकार से सोचना, निःसंदेह ही हास्यास्पद नहीं, तो और क्या है। इन्द्रदेव ने सोचा कि क्यों न मैं कामदेव को भेज कर देवऋर्षि नारद जी का ध्यान ही भंग कर दूं। तो काम देव ने देवऋर्षि नारद जी के समक्ष आकर अपनी समस्त कलाओं का प्रदर्शन किया। लेकिन जिस प्रकार से फूँक मार कर किसी पर्वत को हिलाना असंभव होता है। ठीक उसी प्रकार से देवऋर्षि नारद जी का भी ध्यान अटल रहा। यह देख कामदेव को लगा, कि अरे! देवऋर्षि नारद जी को तो मैं टस से मस नहीं कर पाया। मेरे अथक प्रयास भी निष्फल सिद्ध हुए। निश्चित ही देवऋर्षि नारद जी मेरे इस कुप्रयास से क्रोधित होंगे। और जिस प्रकार से भगवान शंकर ने मुझे अग्निदाह कर डाला था, ठीक उसी प्रकार से देवऋर्षि नारद जी भी मुझे दण्डित करेंगे।
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ऐसा विचार कर कामदेव, देवऋर्षि नारद जी के चरणों में गिर कर क्षमायाचना करने लगा। उसी समय देवऋर्षि नारद जी का भी समाधि से उठने का समय हो उठा। कामदेव को अपने चरणों में ऐसे गिड़गिड़ाते हुए पाया, तो समस्त कारण जान उसे अभयदान दे दिया। कामदेव ने जब देखा कि देवऋर्षि नारद जी उसके अनुकूल हैं, तो उसने वापस जाते-जाते देवऋर्षि नारद जी के कानों में एक बात ऐसी कह दी, कि देवऋर्षि नारद जी के लिए जी का जंजाल बन गई। जी हाँ! कामदेव ने देवऋर्षि नारद जी के संबंध में प्रशंसा का वह बाण चलाया कि देवऋर्षि नारद जी उससे स्वयं को बचा न पाये। कामदेव ने कहा, कि हे देवऋर्षि नारद जी, समाधि तो भगवान शंकर जी भी लगाते हैं। लेकिन जो समाधि आपने लगाई, उसकी तो बात ही कुछ और है। देवऋर्षि नारद जी ने जब यह सुना, तो बोले कि समाधि तो समाधि ही होती है, भला मेरी समाधि में ऐसी क्या विलक्षणता, कि आप भगवान शंकर जी की समाधि को ही निम्न बताने लगे।
कामदेव ने कहा, कि हे देवऋर्षि नारद जी! समाधि भंग करने का कुप्रयास तो मैंने भगवान शंकर जी के साथ भी किया। जिसका परिणाम यह हुआ, कि उन्होंने मुझे भस्म कर डाला। लेकिन एक आप हैं, कि आप ने तो मुझे कुछ भी नहीं कहा। क्रोध का एक लेश मात्र शब्द भी आपके श्रीमुख से नहीं निकला। वाह! ऐसा उच्चकोटि का त्याग, तपस्या व समाधि तो मैंने कहीं नहीं देखी। केवल क्रोध ही क्यों, आपको तो कामजयी भी हैं। मेरे किसी भी कामबाण का आप पर शून्य प्रभाव था। रही बात लालच की, तो वह भी आपने जीता हुआ है। कारण कि इन्द्रदेव के स्वर्ग लोक का भी आपको लालच नहीं। कहना गलत न होगा, कि समस्त संसार में आप-सा योगी कोई नहीं, निश्चित भगवान शंकर भी नहीं। देवऋर्षि नारद जी ने जब यह सुना, तो उन्हें दृढ़ भाव से यह कहना चाहिए था, कि नहीं-नहीं, यह सब तो भगवान की कृपा है। मेरा क्या है। मैं तो ध्यान में मस्त था। मुझे तो पता ही नहीं था, कि बाहरी जगत में आप मुझ पर कामबाण चला रहे हैं। और इसका सीधा-सा कारण था, कि मेरे प्रभु के ध्यान के प्रभाव से ही मैं बाहरी काम रूपी शत्रु से सुरक्षित रहा।
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लेकिन देवऋर्षि नारद जी ने तो, कामदेव के शब्द बाणों का, भविष्य में पड़ने वाले हानिकारक दुष्प्रभावों का एक कण भर भी चिंतन नहीं किया था। कामदेव के शब्द बाणों को अपने कानों के भीतर लाते हुए, हृदय के भीतर उतरने दिया। उतरने क्या दिया, मानो उन शब्दों को ऐसा सम्मान दिया, जैसे एक साधक गुरु मंत्रों को देता है। देवऋर्षि नारद जी ने उन शब्दों को ऐसे संभाला, जैसे एक जौहरी किसी कीमती रत्न को अपनी तिजौरी में संपूर्ण सुरक्षा व निगरानी में संभालता है। कामदेव तो चला गया, लेकिन देवऋर्षि नारद जी के हृदयांगण में केवल वह शब्द गूँज रहे हैं, जो कामदेव ने उनकी प्रशंसा में कहे थे। देवऋर्षि नारद जी के मन में और क्या-क्या कल्पना कर रहे हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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