Gyan Ganga: हनुमानजी से सीताजी की पीड़ा सुन कर भगवान श्रीराम की क्या प्रतिक्रिया रही?
इस गाथा में श्रीसीता जी स्पष्ट कह रही हैं, कि मेरे प्राण निकलने में वह समस्त साधन उपलब्ध हैं, जिनके चलते बड़े आराम से मेरे प्राण निकल जाने चाहिए। उन्होंने एक उदाहरण भी दिया, कि रुई को अगर भस्म करना हो, तो उसके लिए एक चिंगारी मात्र ही पर्याप्त है।
श्रीहनुमान जी माता सीता जी के विराट व अथाह कष्टों की गाथा को, शब्दों की नन्हीं-सी परिधि में बाँध कर, कुछ यूँ प्रस्तुत करना चाह रहे हैं, मानों वे गागर में सागर को भरना चाह रहे हों। पर उनके होंठ हैं, कि कुछ भी ठीक से बयां नहीं कर पा रहे हैं। करते भी कैसे, क्योंकि श्रीसीता जी के दुखों के पर्वत, हैं ही इतने विशाल व ऊँचे, कि उन्हें न तो कहा जा सकता है, और न ही सुना जा सकता है। माता सीता जी की व्यथा सुन कर, श्रीराम जी भी अथाह पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं। श्रीहनुमान जी मईया की व्यथा सुनाते हुए कह रहे हैं, कि हे प्रभु! मईया ने कहा है, कि आप ने पता नहीं कौन से अपराध के चलते हमें त्याग दिया है। वैसे तो उन्हें अपना कोई भी अपराध दृष्टिपात नहीं होता। लेकिन एक अपराध है, जो उन्हें प्रतीत हो रहा है। वह अपराध यह है-
‘अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।’
माता सीता जी अपना एक ही अपराध दृढ़ भाव से मानती हैं। वह यह, कि वे आप से बिछुड़ कर, उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त क्यों नहीं हो गई। यह सुन श्रीराम जी को भी लगा, कि हाँ हनुमान! यह तो हमने भी विचार नहीं किया। कारण कि अगर श्रीसीता जी हमें ही अपने प्राणों का आधार मान रही हैं। तो हमारे समीप न रहने से, वे प्राणहीन क्यों नहीं हो गईं? क्योंकि जैसे मछली का आधार जल होता है। और जल न रहने से, जैसे मछली अपने प्राण त्याग देती है। ठीक वैसे ही श्रीसीता जी को भी तो अपने प्राण त्याग देने चाहिए थे। लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं हुआ। प्रभु श्रीराम जी के श्रीमुख से यह वचन सुन कर, श्रीहनुमान जी ने कहा, कि हे प्रभु, आपका कहना शत-प्रतिशत सत्य है। लेकिन मईया चाह कर व अथाह प्रयास के बाद भी ऐसा नहीं कर पा रही हैं। यह सुन श्रीराम जी बोले, कि हे हनुमंत! भला यह क्या बात हुई। श्रीसीता जी अगर कुछ चाह रही हों, और वह न हो पाये, तो क्या यह विश्वास करने योग्य बात है? अपना मनोरथ पूर्ण करने में, उन्हें भला किसका भय अथवा बँधन? श्रीहनुमान जी ने कहा, कि हाँ प्रभु! आप सत्य भाषण कर रहे हैं। लेकिन मईया तब भी ऐसा नहीं कर पा रही हैं। श्रीराम जी बोले कि ऐसा क्यों? तो श्रीहनुमान जी बोले कि मईया ने कहा है, कि इसका कारण उनके निज नयन हैं। यह सुन कर श्रीराम जी, श्रीहनुमान जी को प्रश्नवाचक दृष्टि से ताकने लगे। कि यह क्या तर्क हुआ, कि किसी के प्राण इसलिए नहीं निकल पा रहे, कि बीच में उसके नेत्र बाधा हैं। श्रीहनुमान जी ने तब वह पूरी गाथा कह सुनाई, जो माता सीता जी ने कही थी-
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‘बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।।’
इस गाथा में श्रीसीता जी स्पष्ट कह रही हैं, कि मेरे प्राण निकलने में वह समस्त साधन उपलब्ध हैं, जिनके चलते बड़े आराम से मेरे प्राण निकल जाने चाहिए। उन्होंने एक उदाहरण भी दिया, कि रुई को अगर भस्म करना हो, तो उसके लिए एक चिंगारी मात्र ही पर्याप्त है। उस पर भी अगर हवा का संग साथ हो, तो रुई को राख होने से कौन बचा सकता है? बस इसमें एक ही शर्त है, कि उस पर जल का छिड़काव न किया जाये। हे नाथ! मेरे साथ भी बस यही घटनाक्रम घटित हो रहा है। मुझे जलाने के लिए, मुझमें बिरह की अग्नि ही पर्याप्त है। मेरा तन मानों साक्षात रुई का पर्वत है। जिसे बिरह की अग्नि इस स्तर तक पीड़ा में डाले हुए है, कि मैं तो क्षण भर में ही भस्म हो जाऊँ। केवल इतना ही नहीं। मेरे जो श्वाँस चल रहे हैं, वे इसमें पवन का कार्य कर रहे हैं। ऐसे में कौन कल्पना कर सकता है, कि मैं बिना जले रह सकती हूँ? लेकिन मैं तब भी अग्निमय नहीं हो पा रही हूँ। कारण कि मेरे नेत्र सारा खेल ही बिगाड़ दे रहे हैं। जी हाँ। मेरे नयन अपने प्रभु का निरंतर ध्यान करते-करते अनवरत अश्रुधारा में रत रहते हैं। जिस कारण मेरे तन में अग्नि का बवाल उठता तो है। लेकिन नयनों के माध्यम से निकल रहे अश्रुओं द्वारा, यह अग्नि उसी क्षण शाँत हो जाती है।
श्रीहनुमान जी ने वह एक-एक अक्षर कह सुनाया, जो माता सीता जी ने, प्रभु श्रीराम जी के निमित्त कहा था। अब श्रीहनुमान जी एक पल के लिए चुप से हो गए। शायद कहने को और भी बहुत कुछ शेष बचा था। लेकिन वे और कितना कहते। यह गाथा तो अनंत थी। सो श्रीहनुमान जी ने बस इतना और कहा-
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‘सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।’
अर्थात हे प्रभु मईया के दुखों का कोई अंत नहीं है। बस यह मान लो कि आप उन दुखों को न ही सुनो, तो अच्छा है। कारण कि माता सीता जी के दुखों व कलशों की गठड़ी को आप जितना खोलोगे, वह उतनी ही अनंत दिखाई प्रतीत देगी। और उसे देख-देख आप उतनी ही पीड़ा से भरते जायेंगे। बस आपसे एक ही विनति है, कि मईया का एक-एक पल, कल्प के समान बीत रहा है। अतः हे प्रभु! आप तो बस तुरंत चलिए। और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीता जी को ले आइए-
‘निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।’
श्रीहनुमान जी के वचन सुन क्या श्रीराम जी तुरंत चलने का आदेश देते हैं, अथवा नहीं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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