Gyan Ganga: सिंहासन की बजाय प्रभु श्रीराम की अखण्ड भक्ति ही क्यों चाहते थे विभीषण
श्रीविभीषण जी बोले, कि हे प्रभु! देना ही है, तो वो दीजिए न, जो भगवान शिव जी के हृदय को सदा प्रिय लगने वाला है। श्रीराम जी कहा, कि हे श्रीविभीषण जी वह क्या है? तो श्रीविभीषण जी बोले, कि प्रभु मैं आपकी अखण्ड व अचल भक्ति की बात कर रहा हूँ।
भगवान श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को इतना प्रेम व आदर दिया, कि श्रीविभीषण जी तो मानो बैकुण्ठ में जा बिराजे। श्रीराम जी ने उन्हें लंका का राज्य तो दे दिया, लेकिन श्रीविभीषण जी के नम्रता भावों को देख कर, व माया के लोभ-लालच व अन्य समस्त अवगुणों से उन्हें रहित जानकर, प्रभु का मन उन्हें अब एक और पदवी देने का होने लगा। यहाँ श्रीराम जी समाज को भी एक संदेश देना चाहते थे, कि मेरी शरण में आने पर किस पर मेरी कृपा तत्काल प्रभाव से होती है, यह आप देख लो। श्रीविभीषण जी ने स्वयं को सचमुच हमारे श्रीचरणों में समर्पित किया, मन में कुछ भी भेद, कपट अथवा छल नहीं रखा। जिस कारण हमने वह माया अथवा वह लंका का साम्राज्य, जिसे पाने हेतु रावण को अपने दस सिरों की बलि देनी पड़ी, वही लंका का साम्रराज्य हमने, श्रीविभीषण जी को सहज ही प्रदान कर दिया। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है, कि हमने राज पद उन्हें ही शीघ्रता पूर्वक प्रदान किया है, जो पूर्ण रूप से हमारी भक्ति व प्रेम में डूब चुके हैं। भविष्य में भी अगर कोई जीव, अगर यह रुष्ट भाव रखता है, कि हम श्रीराम जी की शरण में गए, और हमें तो श्रीराम जी ने कोई राजपद नहीं दिया, तो उसे स्वयं को यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए होगा, कि क्या उसका प्रेम व समर्पण श्रीविभीषण जी एवं श्रीभरत जी की मानिंद है? मेरा दृढ़ मानना है, कि ऐसा माया की चाह रखने वाला जीव, स्वयं को अवश्य ही मेरी ऐसी कृपा का अपात्र पायेगा।
श्रीविभीषण जी लंका के पद पर बैठें, इससे पूर्व मैं उन्हें एक और पद पर बैठे हुए, संसार के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। जी हाँ, वह पद है ‘संतत्व’ का। वास्तव में राजपद पर बैठने का उचित अधिकारी ही वह है, जो सच में साधु है। और श्रीविभीषण जी में वे सारे गुण विद्यमान हैं, जो कि एक सच्चे साधु में हुआ करते हैं। साधु अगर राज सिंहासन पर बैठ कर, प्रजा की सेवा करेगा, तो वह निश्चित ही अपने कर्तव्यों का ठीक ढंग से निर्वाह कर सकेगा। इसलिए जो जिज्ञासु मेरे पास संसार की मांग लेकर आते हैं, अथवा भविष्य में भी आयेंगे, तो उनके लिए मेरा यही मत है, कि वे सर्वप्रथम साधु बने। उसके पश्चात राजसिहांसनों को तो मैं, यूँ ही उनके चरणों में बिछा दूँगा। और मेरे यह वाक्य सत्य मानना, कि श्रीविभीषण जी जैसी आभा संपन्न वाले संत ही, ऐसे संत हैं, जिनके लिए मैं मानव देह धारण करता हूँ। अन्यथा मेरे देह धारण करने का काई दूसरा कोई औचित्य है ही नहीं। ऐसे धर्म वहन करने वाले मेरे भक्त, मेरे हृदय में ऐसे बसते हैं, जैसे किसी लोभी के हृदय में धन बसता है-
‘अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।’
प्रभु के श्रीमुख से ऐसे भाव श्रवण कर, श्रीविभीषण जी प्रभु के श्रीचरणों में बार-बार लेटने लगे। प्रभु का धन्यवाद करने लगे। कारण कि, श्रीविभीषण जी का हृदय कितना सरल व पावन था, यह तो उन्हें भी ज्ञान था। और उनके मतानुसार तो वे अतिअंत ही नीच व कपटी थे। ऐसा वे बार-बार कहते भी हैं-
‘मैं निसिचर अति अधम सुभऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।’
श्रीविभीषण जी तो दृढ़ भाव से यह दावा अनेकों बार कर रहे हैं, कि मैंने तो जीवन में कभी शुभ आचरण किया ही नहीं। और मेरे उच्च विचार व सद्कर्म बनने की कोई संभावना व आशा भी नहीं हैं। लेकिन प्रभु श्रीराम जी ने अगर ऐसा कहा है, कि मैं साधु हूँ। तो ऐसा नहीं है, कि मैं साधु हूँ। अपितु वे चाहते हैं, कि मैं साधु बनुं। और प्रभु अच्छी प्रकार से जानते हैं, कि भले ही मैं सात जन्म भी ले लूँ, मैं तब भी साधु नहीं बन सकता। लेकिन हाँ, अगर प्रभु सहज ही किसी के संबंध में बोल दें, कि फलां कड़वी तुमड़ी तो शहद-सा मीठा आम है। तो प्रभु वचनों का यह असीमित प्रताप है, कि वह अभागी कड़वी तुमड़ी भी, मीठा आम हो सकती है। मेरे संबंध में भी प्रभु श्रीराम जी ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं। मैं निश्चित ही उद्दण्ड व दुराचारी हूँ। लेकिन प्रभु को तो पता है, कि उनके वचन तो कभी मिथ्या नहीं जाते। मैं कड़वी तुमड़ी से मीठा आम बन जाऊँ, इसीलिए प्रभु मेरे संबंध में ऐसे वाक्य कह रहे हैं।
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सज्जनों वाकई में धन्य है श्रीविभीषण जी की प्रेमाभक्ति व उनका श्रीराम जी के श्रीचरणों में समर्पण। प्रभु उन्हें कितना भी श्रेय देना चाहें, वे स्वयं को कभी भी अपनी मर्यादा से निकलने नहीं दे रहे हैं। और प्रसंग की मिठास देखिए, कि प्रभु श्रीविभीषण जी को लंका का राज देना चाह रहे हैं, और श्रीविभीषण जी हैं, कि कुछ और ही मांग रहे हैं। जी हाँ, श्रीविभीषण जी ने प्रभु श्रीराम जी के पावन युगल चरणों को कस कर पकड़ लिया, और देखिए तो क्या मांगते हैं-
‘अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी।।’
श्रीविभीषण जी बोले, कि हे प्रभु! देना ही है, तो वो दीजिए न, जो भगवान शिव जी के हृदय को सदा प्रिय लगने वाला है। श्रीराम जी कहा, कि हे श्रीविभीषण जी वह क्या है? तो श्रीविभीषण जी बोले, कि प्रभु मैं आपकी अखण्ड व अचल भक्ति की बात कर रहा हूँ। मुझे बस आपकी वह भक्ति प्रदान कर दीजिए। प्रभु श्रीराम जी ने यह सुना, तो प्रभु प्रसन्न हो उठे। और ‘एवमस्तु’ कहकर तुरंत ही समुद्र का जल मंगवाते हैं, और दिव्य वाणी करते हुए बोले-
‘जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।’
प्रभु बोले, हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है। लेकिन जगत में मेरा दर्शन अमोघ है। ऐसा कहकर श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी का राजतिलक कर दिया। ऐसा होते ही आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। चारों और जय-जयकार होने लगी। और लंका से अपमानित होकर निकले श्रीविभीषण जी को, प्रभु श्रीराम जी ने, उन्हें अपने नेत्रें में ऐसे स्थान दिया, जैसे काजल को नयन में दिया जाता है।
आगे श्रीराम जी लंका प्रस्थान हेतु क्या रणनीति बनाते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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