Gyan Ganga: जब प्रभु ने बालि को उसके प्रश्नों के जवाब दिए!
उक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि प्रभु बाह्य क्रियाओं व आचरण को अनुशासन का आधार नहीं मानते। वास्तव में अनुशासन का भाव तो आत्मा से जुड़ा है। यह मानव तन प्रदान करने से पहले ही प्रभु ने यह नियम व अनुशासन सभी के लिए निर्धारित कर दिया था कि मानव तन प्राप्ति है ही इसी लिए कि हम धराधाम पर जाकर प्रभु की सेवा व भक्ति में अपने संपूर्ण जीवन का निर्वाह करें।
बालि ने जब यह कहा कि प्रभु मैं बैरी और सुग्रीव आपका प्रिय क्यों? तो इस तथ्य को लेकर हम गहन से गहन विवेचना करें तो पाएंगे कि प्रभु का हृदय दया, ममता व स्नेह का ऐसा विशाल सागर है कि उनके दिव्य व्यक्तित्व को समझा ही नहीं जा सकता। मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी एक बात और कहते हैं ‘सोई सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।’ अर्थात मुझे प्रिय भी वही है और मैं सेवक भी उसी को मानता हूँ, जो मेरे अनुशासन में रहता है। फिर अनुशासन की वास्तविक परिभाषा क्या है? अनुशासन तो नियम पर अडिगता की पैरवी करता है। जिसने नियम तोड़ा वह दंड का अधिकारी है, भले ही वह सगा हो अथवा पराया। लेकिन श्रीराम तो ऐसे किसी नियम के पक्षधर लगते ही नहीं। क्योंकि भक्तिमति शबरी श्रीराम जी के सम्मुख ही उन्हें जूठे बेर खिला रही है। जो कि निसन्देह प्रभु की पूजा पद्धति एवं सम्मान के पूर्णतः विपरीत है। लौकिक दृष्टिकोण से देखने से लगता है कि शबरी यहाँ दंड की पात्र है। लेकिन प्रभु तो यहाँ शबरी को दंड न देकर अपना परम धाम देते हैं। केवट भी प्रभु के साथ गंगा तट पर मिलन के दौरान अनेकों गलतियां करता प्रतीत होता है। जिसे देख श्री लक्षमण जी क्रोधित होकर अपने तरकश से बाण तक निकालने को तत्पर हो जाते हैं। लेकिन श्रीराम जी हैं कि किचिंत भी कोई उग्र प्रतिक्रिया नहीं करते अपितु मुस्कुराते रहते हैं व केवट को उद्दण्ड न कहकर परम सेवक व भक्त के सम्मान से संबोधित करते हैं। लौकिक दृष्टि से तो यहाँ केवट ने भी प्रभु के साथ आदर-सम्मान व रीति का कोई पालन नहीं किया। लेकिन तब भी केवट प्रभु का प्रिय है।
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उक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि प्रभु बाह्य क्रियाओं व आचरण को अनुशासन का आधार नहीं मानते। वास्तव में अनुशासन का भाव तो आत्मा से जुड़ा है। यह मानव तन प्रदान करने से पहले ही प्रभु ने यह नियम व अनुशासन सभी के लिए निर्धारित कर दिया था कि मानव तन प्राप्ति है ही इसी लिए कि हम धराधाम पर जाकर प्रभु की सेवा व भक्ति में अपने संपूर्ण जीवन का निर्वाह करें। जिसका यह अर्थ किचिंत भी नहीं था कि गृहस्थ आश्रम के कर्त्तव्यों का त्याग करना है। अपितु समस्त दैहिक व दैनिक व्यवहार करते हुए प्रभु की भक्ति करनी है। लेकिन जो मानव केवल विषय भोगों तक ही सीमित होकर रह जाते हैं एवं प्रभु की भक्ति को दरकिनार करते हैं। प्रभु की दृष्टि में वही लोग अनुशासन व नियम के विध्वंसकर्ता हैं। अर्थात प्रभु को प्राप्त कर मोक्ष तक पहुँचना ही प्रभु का वास्तविक नियम व अनुशासन है। जो इस नियम की पालना नहीं करते वे प्रकृति द्वारा स्वतः ही दंडित हो जाते हैं। उदाहरणतः विद्युत की नंगी तारों को छू लेना विद्युत के नियमों की अवहेलना है। विद्युत को किसी से कोई व्यक्तिगत बैर नहीं है, जो वह किसी को मारे। लेकिन नंगी तार छूने पर किसी को भी करंट लगेगा। इसी तरह प्रभु किसी को दंडित नहीं करते लेकिन भक्ति नहीं करने की गलती जो भी जीव करेगा, उसे चौरासी लाख योनियां रूपी करंट लगेगा ही लगेगा। क्योंकि यह प्रभु के अनुशासन की अवहेलना की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इसीलिए प्रभु श्रीराम जी जब बालि को दंडित कर रहे हैं, तो इसमें प्रभु का कोई व्यक्तिगत बैर नहीं है। बालि के स्थान पर अगर सुग्रीव भी ऐसा करता तो प्रभु उसके साथ भी यही दंड वाला व्यवहार अपनाते।
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बालि जब यह कहता है कि ‘अवगुन कवन नाथ मोहि मारा’ तो आश्चर्य है कि बालि को अभी तक अपना अवगुण तक दिखाई नहीं पड़ रहा? उसे लग रहा है कि मैंने तो जीवन में कोई अपराध किया ही नहीं। मेरा तो संपूर्ण जीवन ही निष्कलंक है। सज्जनों इसे ही माया कहा गया है, अज्ञानता का सर्वोच्च स्तर। सोचिए कि उस अपराधी के अपराध करने का मानसिक स्तर कहाँ तक पहुँच गया होगा कि उसे अपने द्वारा किए गए अपराध कोई अपराध ही प्रतीत नहीं हो रहे। उसके लिए अपराध करना तो मानों सामानय व स्वाभाविक सी क्रिया है, जैसे स्नान कर लेना व भोजन कर लेना। बालि भी ठीक इसी श्रेणी का अपराधी है। देखिए तो कितना मासूम बनकर पूछ रहा है कि प्रभु आपने मुझे व्याध की तरह छुपकर बाण क्यों मारा। कम से कम मेरा अपराध तो बता दिया होता। प्रभु सोच रहे हैं कि वाह बालि हमें लेकर कैसा विचित्र विशलेषण है तुम्हारा। हमें प्रभु की संज्ञा भी दे रहे हो और हमारी तुलना व्याध से भी कर रहे हो। वैसे तुमने ठीक ही कहा, क्योंकि व्याध की तरह होना भी कौन सा सहज कार्य है? गहनता से देखा जाए तो इसमें भी एक सम्मान ही छुपा है। और यह सम्मान पाने की कला केवल दो लोगों में हैं। एक भक्त व दूसरे भगवान्। क्योंकि व्याध शिकार करते समय जमीन पर जैसे साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में लेट जाता है, पूर्णतः झुककर नतमस्तक हो जाता है। वैसा तो केवल और केवल निहंकारी भक्त व भगवान ही कर सकते हैं। और जिसने साष्टांग प्रणाम ही कर दिया, वह भला श्रेष्ठ व बड़ा कहाँ रहा। बड़ा व सम्मानीय तो वही हुआ न जिसे प्रणाम किया जा रहा है। और तुम्हारे मन की अभिलाषा सदैव यही रही कि तुम्हें समस्त जगत बड़ा व सम्मानीय कहे। लो तुम्हें प्रणाम करके हमने तुम्हारी यह इच्छा भी पूर्ण कर दी। रही बात अवगुण की उसकी सूची वैसे तो बहुत वृहद है लेकिन इस सूची में एक अपराध ऐसा है जो अक्ष्मय है, क्षमा हो भी क्यों, क्योंकि क्षमा तो गलती की होती है अपराध की नहीं। हे बालि! तुम जो मुझे धर्म का उपदेश दे रहे हो इसका तात्पर्य है कि तुम्हें भी अवश्य ही धर्म की पूर्ण जानकारी होगी। लेकिन तब भी तुमने वह अधर्म किए कि जिनकी चर्चा करने में भी मुझे लज्जा व संकोच हो रहा है। मेरी बनाई सृष्टि में ऐसा अधर्म व अनर्थ करने वाले जीव इस धराधाम पर फल फूल रहे हैं। यह देख मैं चिंतातुर हूँ। लेकिन तब भी तुम्हारा मुख्य अपराध मैं कहने जा रहा हूँ। सुनो और विचार करो। श्रीराम जी बालि को उसका कौन सा अपराध बताने जा रहे हैं। जानने के लिए पढ़ते रहिए ज्ञान गंगा---क्रमशः---जय श्रीराम!
- सुखी भारती
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