Gyan Ganga: भगवान श्रीराम के मुख से अपनी भरपूर प्रशंसा सुनकर हनुमानजी क्या सोच रहे थे?

Lord Rama
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सुखी भारती । Sep 6 2022 4:49PM

श्रीहनुमान जी के तर्क सुन कर भगवान श्रीराम मन ही मन प्रसन्न हो रहे हैं। सोच रहे हैं, कि कपि को जब हम भगवान होकर भी नहीं घेर पा रहे हैं, तो रावण अथवा उसके राक्षस, भला क्या घेर पा रहे होंगे। श्रीहनुमान जी ने भी सोचा, कि प्रभु ही तो संपूर्ण सृष्टि के रचयिता हैं।

भगवान शंकर, श्रीहनुमान जी एवं श्रीराम जी के विशुद्ध प्रेम की गाथा का रसपान कराते-कराते, स्वयं ही उस भाव में बहते जा रहे हैं। भगवान शंकर ने सोचा, कि अगर हम ही हमारे प्रभु के प्रेम सागर में डूब गए, तो फिर देवी पार्वती जी को कथा रसपान कौन करायेगा? इसलिए भगवान शंकर तनिक सावधान से होकर, पुनः कथा सुनाना आरम्भ करते हैं।

भगवान शंकर विस्तार पूर्वक बताते हैं, कि हे पार्वती! श्रीहनुमान जी तो शायद जीवन भर प्रभु के श्रीचरणों में लेटे रहते। लेकिन प्रभु ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। मानों प्रभु कहना चाह रहे हों, कि हे हनुमंत लाल, हमारे जीवन में आपका स्थान, हमारे चरणों में नहीं, अपितु हमारे हृदय में है। श्रीराम ने जब श्रीहनुमान जी को अपने हृदय से लगाया, तो श्रीहनुमान जी से अधिक भाग्यशाली, इस धरा पर और कौन होगा। केवल इतना ही नहीं। भगवान श्रीराम जी ने, श्रीहनुमान जी को अपने अतिअंत निकट बिठा लिया। निकट बिठाने का तात्पर्य था, कि श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी के साथ-साथ, समस्त संसार को यह संदेश दे दिया, कि जो भक्त मुझे अनन्य भाव से समर्पित है, वह मेरे ही बराबर है। मेरे से किसी भी प्रकार से हीन व क्षुद्र नहीं है। अगर हम संसार में समस्त लोकों में पूजनीय हैं, तो ठीक वैसे ही मेरा भक्त भी, निःसंदेह पूजनीय व वंदनीय है-

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‘सावधान कर करि पुनि संकर।

लागे कहन कथा अति सुंदर।।

कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।

कर गहि परम निकट बैठावा।।’

सोचने वाली बात है, कि संसार में अगर कोई व्यक्ति, किसी उच्च पद पर आसीत किसी माननीय के अधिक निकट हो, तो समस्त और उसकी धाँक होती है। लेकिन जिसकी निकटता सीधे भगवान से हो, तो सोचिए उसकी धाक का अनुमान भला कौन लगा सकता है। भगवान श्रीराम जी अपने महान भक्त पर प्रसन्न तो थे ही, सो बातों ही बातों में, प्रभु ने वह प्रसंग छेड़ दिया, जिसे श्रवण करने की अभिलाषा सभी के मन में थी। प्रभु बोले कि हे हनुमंत लाल! यह तो हमने सुन लिया, कि आपने रावण की स्वर्ण से निर्मित लंका नगरी को, पावक में दाह कर दिया। लेकिन यह असंभव कार्य तुमने कैसे कर दिखाया? कारण कि रावण की लंका तो अतिअंत सुरक्षा के घेरे में रहती है। वहाँ तो एक मच्छर भी अपनी इच्छा से उड़ नहीं सकता। इतना होते हुए भी, तुमने कैसे लंका नगरी को भस्म करने का कठिन कार्य कर दिखाया-

‘कहु कपि रावन पालित लंका।

केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

बोला बचन बिगत अभिमाना।।’

श्रीहनुमान जी ने सोचा, प्रभु तो नाहक ही प्रेमवश होकर मुझे दुलार पे दुलार किये जा रहे हैं। इतना दुलार तो मैं अपनी झोली में समेट भी नहीं पा रहा हूँ। मेरे सामर्थ की भला क्या बिसात? हमारे बल की अगर इतनी ही महानता होती, तो क्या हम ऐसे ही वनों में दर-दर भटकते? कहने को तो मच्छर के भी पंख होते हैं, लेकिन क्या वह गरुड़ की गति को मात दे सकता है?

श्रीहनुमान जी के तर्क सुन कर भगवान श्रीराम मन ही मन प्रसन्न हो रहे हैं। सोच रहे हैं, कि कपि को जब हम भगवान होकर भी नहीं घेर पा रहे हैं, तो रावण अथवा उसके राक्षस, भला क्या घेर पा रहे होंगे। श्रीहनुमान जी ने भी सोचा, कि प्रभु ही तो संपूर्ण सृष्टि के रचयिता हैं। और हमें भी वानर के रूप में उत्पत्ति, उन्हीं की ही देन है। निश्चित ही प्रभु को यह लग रहा होगा, कि उन्हें हमें वानर का शरीर नहीं देना चाहिए था। लगता है, प्रभु को यह अच्छा-सा नहीं लग रहा है। तो क्यों न प्रभु को हम अपनी असली औकात बता ही दें। बता देते हैं, कि प्रभु लंका नगरी जल गई, तो इसमें हमारी कोई शक्ति व सामर्थ का योगदान नहीं। कारण कि हम तो ठहरे एक डाल से दूसरी डाल पर, कूदने फाँदने वाले चंचल वानर। हमें भला क्या ज्ञान, कि लंका नगरी के महान पंडित रावण की नगरी को कैसे जलाना है? आप सच मानिए प्रभु इसमें हमारी तनिक भी बड़ाई नहीं है। बस आपका ही खेल सब और चल रहा है। आपकी ही प्रभुताई है, कि सब होता चला गया-

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‘साखमग कै बड़ि मनुसाई।

साखा तें साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।’

श्रीहनुमान जी ने कहा, कि हे प्रभु आप जिस पर भी प्रसन्न हो जायें, वह कुछ भी असाध्य से असाध्य कार्य को सफल कर सकता है। रुई को अगर कोई जलाये, तो वह नन्हीं-सी चिंगारी से ही जल कर भस्म हो जाती है। लेकिन अगर उस रुई पर आपकी दृष्टि हो जाये, तो वह रुई भी बड़े से बड़े वन को जला कर भस्म कर सकती है। बस यही आपकी कृपा मुझ अपात्र से वानर पर हुई है। नहीं तो संसार में तो वनों के वन, वानरों से भरे पड़े हैं। भला आज तक, कौन-सा ऐसा वानर किसी ने देखा है, जो एक डाल से दूसरी डाल की छलाँग लगाते-लगाते, ऐसी छलाँग लगाना सीख गया, जो एक ही छलाँग में सागर तक भी पार कर जाये। चारों ओर बस आप ही का प्रताप है, इसमें सच में मेरी तनिक भी प्रभुताई नहीं है।

श्रीराम जी एवं श्रीहनुमान जी के मध्य और क्या वार्ता होती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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