Gyan Ganga: राक्षसों द्वारा परेशान किये जाने के समय हनुमानजी के मन में क्या चल रहा था?

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सुखी भारती । May 31 2022 6:00PM

आध्यात्मिक मूल्यों से दूर, रावण व समस्त राक्षस जन निरंतर अहंकार व अज्ञानता में चूर, कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्हें लगता है, कि स्वयं को सर्वोपरि रखना व दूसरे को अपनी एड़ी ने नीचे कुचलना ही जीवन की प्राप्ति है।

भगवान् श्रीराम जी के प्रिय दूत, श्रीहनुमान जी श्रेष्ठ साधक का ऐसा अविस्मरणीय आदर्श रख रहे हैं, कि जिसे युगों-युगों तक प्रत्येक जीव के कंठ द्वारा गाया जायेगा। कारण कि अपने प्रभु के प्रति दास का कैसा समर्पण भाव होना चाहिए व विपत्ति काल में भी कैसे अपने प्रभु के प्रति आदर व श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत रहें, यह हमें श्रीहनुमान जी का दिव्य चरित्र ही बताता है। श्रीहनुमान जी के मन में एक बार भी ऐसा कटु व निम्न स्तरीय भाव नहीं आ रहा, कि प्रभु ने तो मुझे उलझा कर ही दिया है। कहाँ तो हम बढ़िया अपने वनों में मस्त जीवन व्यतीत कर रहे थे, और कहाँ रावण की लंका में अपने अंतिम परिणाम की घड़ियां गिन रहे हैं। उनका मन ऐसी विपरीत स्थिति में भी उत्साहित व प्रसन्न हैं। उन्हें राक्षसों द्वारा प्रताड़ित होना भी, प्रभु की कृपा ही दिखाई प्रतीत हो रही है। कृपा इसलिए, क्योंकि एक श्रेष्ठ साधक कभी भी यह नहीं सोचता, कि मेरे प्रभु कभी भी मेरे साथ कुछ अनैतिक कार्य होने देना स्वीकार कर सकते हैं।

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श्रीहनुमान जी स्वयं को बँधे जाने में भी यही भाव रखते हैं, कि प्रभु किसी में ऐसा साहस कहाँ, कि आपके दास को कोई बँधक बना सके। लेकिन फिर भी अगर मुझे ब्रह्मपाश में बँधना पड़ा, तो निश्चित ही यह भी आपने मेरे कल्याण के लिए ही किया होगा। कारण कि जीव के पाप कर्म ही ऐसे हैं, कि उसे यमराज के बँधन में बँधना ही होता है। लेकिन जिस जीव को प्रभु ही स्वामी के रूप में प्राप्त हो जायें, तो उसे भला यमराज क्योंकर अपना दास व बँधक बनायेगा? लेकिन जीव के कर्मों लेखा-जोखा तो निपटाना ही होता है। तो प्रभु अपने दास के बड़े पाप कर्मों व कष्टों को, बड़े छोटे में टाल देते हैं। उदाहरणतः भाग्य में अगर लिखा है, कि अमुक दिवस हमारी टाँग टूटनी है, तो प्रभु इस टाँग टूटने के कर्म को किसी नन्हीं-सी खरोंच में ही काट देते हैं। अर्थात टाँग टूटने का भयंकर कर्म, नन्हीं-सी खरोंच में ही कट गया। श्रीहनुमान जी तो वैसे भी किसी कर्म-संस्कारों के बँधन में नहीं हैं। उल्टा वे तो बँधन हर्ता हैं। लेकिन अपनी लीला के माध्यम से, आदर्श यही रख रहे हैं, कि एक साधक को विपरीत स्थिति में भी सदैव यही सोचना चाहिए, कि मुझे मिल रहा प्रत्येक कष्ट व दुख भी मेरे प्रभु की परम् इच्छा का ही परिणाम है। और इसी में मेरा परम् हित व कल्याण निहित है। अगर ऐसा चिंतन साधक का हो जाता है, तो निश्चित ही ऐसे साधक को प्रभु का रुप होने से कोई नहीं रोक सकता है। नर से नारायण तक की यात्र, ऐसे ही पथिक पूर्ण करते हैं।

इन सब आध्यात्मिक मूल्यों से दूर, रावण व समस्त राक्षस जन निरंतर अहंकार व अज्ञानता में चूर, कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्हें लगता है, कि स्वयं को सर्वोपरि रखना व दूसरे को अपनी एड़ी ने नीचे कुचलना ही जीवन की प्राप्ति है। यह सब तो ठीक है, लेकिन राक्षसों को श्रीहनुमान जी की पूँछ से भला क्या दिक्कत थी? सभी चाह रहे हैं, कि हम ही सबसे पहले श्रीहनुमान जी की पूँछ को दाह करेंगे। तो इसके पीछे प्रभु श्रीराम जी, जीव की विकृत मानसिक दशा का परिचय दे रहे हैं। वास्तव में जीव का स्वभाव ही ऐसा हो गया है, कि उसे अपने दुख से इतना दुख नहीं, जितना उसे पड़ोसी के सुख से दुख होता है। रावण व समस्त राक्षस जन इसी व्याधि से पीड़ित हैं। उनको लगता है कि सब ओर केवल हमारी ही पूछ होनी चाहिए। पूछ अर्थात सम्मान व आधिपत्य का भाव। सांसारिक भाषा में भी यह वाक्य अकसर प्रयोग किया जाता है, कि फलां व्यक्ति की तो समाज में बड़ी पूछ है, अर्थात बड़ा प्रभाव है। रावण सोचता है, कि अब तो मैं तीनों लोकों पर राज करता हूँ। सब ओर मेरी पूछ है। कोई मुझे चुनौती देने वाला नहीं है। तो ऐसे में रावण स्वयं में ही बड़ा प्रसन्न व आत्म मुग्ध है। लेकिन रावण जब देखता है, कि एक वानर मेरी ही लंका में, निर्भीक व स्वतंत्र होकर पूरी अशोक वाटिका उजाड़ गया। मेरे पुत्र का भी वध कर गया। तो यह समाचार जब संसार में फैलेगा, तो परिणाम स्वरूप, इससे मेरी पूछ कम होगी अथवा बढ़ेगी? निश्चित ही कम होगी। मेरी पूछ कम हो, तो यह भी एक बार के लिए चल जायेगा। लेकिन मेरे ही समक्ष किसी और की पूछ बढ़ने लगे, तो यह हमें किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए इससे पहले कि किसी और की पूछ बढ़े, हम पहले ही उसकी पूछ जला डालेंगे। तो रावण व समस्त राक्षस गण श्रीहनुमान जी की पूँछ को जलाने में अत्यधिक उत्साहित हैं। तभी तो वे अपने घरों से केवल तेल ही नहीं, अपितु घी भी भरपूर मात्र में लेकर आ रहे हैं। जबकि रावण का आदेश तो केवल तेल लाने का ही था।

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राक्षसों का श्रीहनुमान जी की पावन देह पर लातों से प्रहार करना व ढोल बजा-बजा कर तालियां बजाना यह बताता है, कि वे इस पाप क्रिया के माध्यम से श्रीहनुमान जी को चिढ़ाना चाहते हैं, कि देखा वानर देवता! हम राक्षसों से भिड़ने का परिणाम? तुम हमारी पूछ क्या कम करोगे। लो हम ही तुम्हारी पूछ अर्थात प्रभाव को जलाये देते हैं। दुनिया में हमारी पूछ तो बहुत हो, लेकिन अन्य की केवल कम ही नहीं, अपितु बिल्कुल ही न हो, इसी उद्देश्य् हेतु ही राक्षस गण, श्रीहनुमान जी की पूँछ को दाह करने को आतुर हैं।

लेकिन ऐसी दुर्भावना जीव के जीवन में क्या रंग लाती है। इससे हमारी पूछ कम होगी, अथवा बढ़ेगी, इन्हीं प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए प्रतीक्षा करेंगे अगले अंक के प्रकाशित होने की---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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