Gyan Ganga: भगवान ने भक्त प्रह्लाद की रक्षा कर विश्व को क्या संदेश दिया ?
भक्त प्रह्लाद कहते हैं, हे नृसिंह भगवान ! इस सार हीन संसार में दुखी जीवों का दुख आपकी कृपा के बिना मिटाया नहीं जा सकता। यहाँ तक कि माँ-बाप लाख कोशिश करने के बाद भी अपनी संतान की रक्षा खुद नहीं कर सकते, औषधि जड़ से रोग नहीं मिटा सकती।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के कथा-प्रेमियों ! आज-कल हम सब भागवत कथा की भागीरथी में गोता लगा रहे हैं। आज होली का परम पावन पर्व है। आप सभी भागवत कथा प्रेमियों को होली महोत्सव की ढेर सारी शुभकामनाएँ। आइए ! कथा की तरफ चलें ----
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पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि हिरण्यकशिपु प्रह्लाद की भक्ति-भाव से बहुत नाराज हो गया उसको बड़े-बड़े हाथियों से कुचलवाया, पहाड़ों के नीचे दबवाया, अंधेरी कोठरी में रखा, जहर देने की कोशिश की। लेकिन प्रह्लाद का बाल बाँका भी नहीं हुआ। जिसके रक्षक सुदर्शन चक्रधारी हैं उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं— नारदजी कहते हैं युधिष्ठिर ! लाख उपाय करने के बाद भी जब प्रह्लाद का कुछ भी नहीं बिगड़ा तब क्रोध से आँख लाल किए हुए हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिए स्वयं ही झपटा पड़ा, परंतु एक अद्भुत आवाज सुनकर डर गया और चारों तरफ देखने लगा। उसी क्षण खंभे में से विचित्र रूप धारण कर नृसिंह भगवान प्रकट हुए। बोलिए नृसिंह भगवान की जय ---
निर्जीव खंभे में से प्रकट होकर भगवान ने यह साबित कर दिया कि भगवान सब जगह व्याप्त हैं। गोस्वामी जी ने कलम चलाई ---
हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम से प्रकट होहिं भगवाना
अब दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा। भगवान ने गदा सहित उसको पकड़ लिया और उसके साथ उसी तरह खेलने लगे जैसे साँप के साथ गरुण खेलने लगते हैं। आइए सुनते हैं, शुकदेव जी के शब्दों में ----
एवं ब्रुवम्त्वभ्यपतद् गदायुद्धो नदन् नृसिहम् प्रति दैत्य कुंजर:
अलक्षितोSग्नौ पतित; पतंगमो यथा नृसिहौजसी सोSसुरस्तदा ॥
तं विक्रमन्तम् सगदम् गदाधरो महोरगम् तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत
स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मत;॥
विश्वक स्फुरन्तम् ग्रहनातुरम् हरि;व्यालोSSयथाखुम्कुलिशाक्षतत्वचम्
द्वार्यूरपात्य ददार लीलया नखे;र्यथाही गरुणो महाविषम् ॥
हिरण्यकशिपु छटपटाने लगा। भगवान ने दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर रखा और अपने नाखून से उसी प्रकार फाड़ डाला जैसे गरुण भयानक जहरीले साँप को चीर देते हैं। नारद जी कहते हैं— युधिष्ठिर ! उस समय हाथी चिंघाड़ने लगे और स्वर्ग डगमगा गया। जिस समय भगवान ने हिरण्यकशिपु का कलेजा फाड़कर धरती पर पटक दिया, आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी। ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि सभी देवता स्तुति करने लगे----
नमोस्त्वनंताय सहस्त्र मूर्तये सहस्त्र पादा शिशिरोरुबाहवे
सहस्त्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्त्रकोटि युगधारिणे नम;॥
देवताओं द्वारा स्तुति करने के बाद भी जब नृसिंह भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ तब ब्रह्मा की आज्ञा से प्रहलाद जी ने भगवान की अद्भुत स्तुति की ----
बालस्य नेह शरणम पितरौ नृसिह नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौ: ।
तप्तस्यतत्प्रतिविधिर्य इहान्जसेष्टस्तावद विभो तनुभृतामत्वदुपेक्षितानाम॥
भक्त प्रह्लाद कहते हैं, हे नृसिंह भगवान ! इस सार हीन संसार में दुखी जीवों का दुख आपकी कृपा के बिना मिटाया नहीं जा सकता। यहाँ तक कि माँ-बाप लाख कोशिश करने के बाद भी अपनी संतान की रक्षा खुद नहीं कर सकते, औषधि जड़ से रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए नौका को नाविक नहीं बचा सकता। यदि ये अपने-अपने उद्देश्यों में सफल होते भी हैं तो भी वहाँ भगवत अनुग्रह ही समझना चाहिए।
तत्तेsर्हत्तमनम:स्तुतिकर्मपूजा: कर्म स्मृति: चरणयो: श्रवणम कथायाम।
संसेवया त्वयि विनेति षडंगया किं भक्तिम जन: परमहंस गतौ लभेत ॥
भक्त प्रह्लाद कहते हैं, हे परम पूज्य नृसिंह भगवान ! आपकी सेवा के छ: अंग हैं---
नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवापूजा, चरणकमलों का चिंतन और लीला-कथा का श्रवण। इस षडंग सेवा के बिना आपके चरण-कमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? भक्त प्रह्लाद की भाव भरी स्तुति सुनकर भगवान का क्रोध शांत हुआ। उन्होंने कहा –
प्रह्लाद भद्र भद्र्म् ते प्रीतोSहम् तेSसुरोत्तम;।
वरम् वृणिश्वाभिमतम् कामपुरोSस्मयहम् नृणाम्॥
प्रह्लाद तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो मुझसे माँग लो। मैं जीवों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला हूँ। जो मुझे प्रसन्न नहीं कर पाता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत कठिन होता है। परंतु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब व्यक्ति के मन में किसी प्रकार की कामना नहीं रह जाती। मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ, इसीलिए ज्ञानी साधु-जन मन, वचन और कर्म से मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। असुरकुल भूषण प्रह्लाद जी भगवान के अनन्य प्रेमी थे, उन्होंने हाथ जोड़कर कहा- मेरे पिता ने आपके स्वरूप को न समझकर आपकी बड़ी निंदा की है। मेरी यही प्रार्थना है कि आप उन्हें इस भवसागर से शुद्ध, बुध और मुक्त कर दे। धन्य है भक्त प्रह्लाद का चरित्र। जिस पिता ने उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दीं, मौत के घाट उतारने की कोई कसर नहीं छोड़ी उस निर्दयी पिता के लिए भी उन्होने मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया। भक्त प्रह्लाद का व्यक्तित्व हम सबको कितना सुंदर संदेश देता है।
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बोलिए भक्त प्रह्लाद की जय---- हमारा चरित्र भी भक्त प्रह्लाद के चरित्र जैसा उच्च और स्वच्छ होना चाहिए।
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है,---
न जाति हो न भाषा, न मन मे हो निराशा
सिंचित करो धरा को, समता की लेके आशा
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है। इतने ऊँचे------
जय श्री कृष्ण-----
क्रमश: अगले अंक में --------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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