Gyan Ganga: जिनके रक्षक सुदर्शन चक्रधारी हैं उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता
शिशुपाल और दंतवक्त्र जन्म से ही भगवान कृष्ण से दुश्मनी रखते थे। शिशुपाल ने तो पानी पी-पी कर कृष्ण को गाली दी थी। फिर भी भगवान ने शिशुपाल को परम पद दिया। आखिर इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइए।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आज-कल हम सब भागवत कथा सरोवर में गोता लगा रहे हैं।
पिछले अंक में हम सबने पुंसवन व्रत के माहात्म्य के साथ-साथ यह भी पढ़ा कि ऋषि दधीचि और कामदेव ने समाज के हित में कैसे अपने अपने प्राण त्याग दिए थे। आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं।
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हिरण्यकशिपु की कथा
महाराज परीक्षित ने जिज्ञासा प्रकट की, हे महात्मन ! भगवान का स्वभाव तो सभी प्राणियों के लिए एक समान है। उनकी नजर में न कोई अपना है न पराया। फिर भी उन्होने इंद्र का पक्ष लेकर दैत्यों का वध क्यों किया? मेरे मन में बड़ा भारी संदेह है कृपा करके उसे मिटाइए।
श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा-
साधु पृष्टम् महाराज हरेश्चरितमद्भुतम्
यद भागवतमाहात्म्यम् भगवतभक्ति वर्धनम् ॥
परीक्षित ! भगवान के अद्भुत चरित्र के बारे में तुमने बड़ा सुंदर प्रश्न किया। ऐसा ही प्रश्न तुम्हारे दादा जी ने नारद से किया था। बात उस समय की है जब राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर महाराज ने एक आश्चर्य जनक घटना देखी कि चेदिराज़ शिशुपाल मृत्यु के समय सबके सामने भगवान कृष्ण में समा गया।
शिशुपाल और दंतवक्त्र जन्म से ही भगवान कृष्ण से दुश्मनी रखते थे। शिशुपाल ने तो पानी पी-पी कर कृष्ण को गाली दी थी। फिर भी भगवान ने शिशुपाल को परम पद दिया। आखिर इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइए। नारद जी ने समझाया-
हे युधिष्ठिर ! भगवान की भक्ति करने वाले भक्त का उद्धार तो होता ही है, इनसे वैर करने वाले भी इनका चिंतन करते-करते इन्हीं में समा जाते हैं। पूतना, कंस, शिशुपाल, दंतवक्त्र इन लोगो ने द्वेष भाव से भगवान में ध्यान लगाया और हम लोगों ने भक्ति भाव से मन लगाया और सबका कल्याण हुआ। कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-
“ये यथा माम प्रपद्यंते तान् तथैव भजाम्यहम”
इस प्रसंग में मैं आपको हिरण्यकशिपु की कथा सुनाता हूँ।
सनकादि ऋषियों के शाप से जय-विजय का जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में दिति के गर्भ से हुआ था। तृतीय स्कन्ध में वराह भगवान के द्वारा हिरण्याक्ष-वध की कथा हो चुकी है। नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर ! अजर अमर होने के लिए हिरण्यकशिपु ने मंदराचल पर्वत पर जाकर भारी तपस्या करने लगा। उसके तप के प्रभाव से स्वर्गलोक तक धधकने लगा। देवता परेशान होकर ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी हिरण्यकशिपु के पास आए और बोले---
उतिष्ठोतिष्ठभद्रं ते तप: सिद्धोsसिकाश्यप: ।
वरदोहमनुप्राप्तो प्रियताम्पिसतो वर:।।
बेटा हिरण्यकशिपु ! उठो, तुम्हारा कल्याण हो। मैं प्रसन्नता से तुम्हें वर देने के लिए आया हूँ। हे दैत्य शिरोमणि ! वर माँगो। हिरण्यकशिपु ने आँख खोली और सामने हंस पर विराजमान ब्रह्मा जी को देखकर बड़ा आनंदित हुआ। गदगद स्वर से स्तुति करने लगा। उसका पूरा शरीर रोमांचित हो गया।
त्वमेव कालोSनिमिषो जनानाम् आयु: लवाद्यावयवै; क्षीणोषि
कूटस्थआत्मा परमेष्ठ्यजोमहाम् त्वं जीवलोकस्य च जीवआत्मा ॥
व्यक्तम् विभो स्थूलमिदम् शरीरम् येनेन्द्रिय प्राणमनो गुणास्त्वम
भून्क्षे स्थितो धामनी पारमेष्ठ्ये अव्यक्त आत्मा पुरुष; पुराण;॥
प्रभो ! आप सभी वरदान देने वालों में श्रेष्ठ हैं। यदि वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दीजिए कि आपके द्वारा बनाए गए किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु न हो।
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भीतर-बाहर दिन में या रात में धरती या आकाश में न किसी अस्त्र-शस्त्र से कहीं भी मेरी मृत्यु न हो सके। युद्ध में मेरा सामना कोई भी न कर सके। मैं एक क्षत्र सम्राट बनूँ। ब्रह्मा जी ने “एवमस्तु” कह दिया। अब क्या था हिरण्यकशिपु त्रैलोक का राजा बन गया। स्वर्ग में ही महेंद्र के महल में विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि डर के मारे सभी देव-दानव उसके चरणों की वंदना करने लगे। सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारे पर नाचती थी। नारद जी ने युधिष्ठिर को संबोधित किया-
हे धर्मराज ! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र हुए। आह्लाद, विह्लाद, सहलाद और सबसे छोटे प्रह्लाद जी महाराज। प्रह्लाद जी विलक्षण बुद्धि के थे। बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान की भक्ति में लगे रहते थे। वे उच्च कोटि के महात्मा थे। प्रह्लाद जी को देखकर सभी साधु-महात्मा आह्लादित हो जाते थे।
"प्रकृष्टेन् आहलाद्यति य: स: प्रह्लाद:" किन्तु उनके पिता हिरण्यकशिपु प्रह्लाद का भक्ति-भाव देखकर कूढ़ते रहते थे। प्रह्लाद जी असुर बालको को भी भगवान की कथा सुनाते रहते थे। एक बार हिरण्यकशिपु ने पूछा- चिरंजीवी बेटा प्रह्लाद ! इतने दिनों से गुरुजी पढ़ा रहे हैं कोई अच्छी बात हमे सुनाओ। प्रह्लाद ने भगवान की नवधा भक्ति श्लोक में सुना दी।
श्रवणम् कीर्तनम् विष्णो; स्मरणम पादसेवनम्
अर्चनम् वंदनम् दास्यम् सख्यमात्म निवेदनम्॥
पिताजी ! विष्णु भगवान की कथा का श्रवण, उनके नामों का कीर्तन, स्मरण, उनके चरणों की सेवा पूजा। यदि भगवान के प्रति समर्पण भाव से यह नवधा भक्ति की जाय तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ। इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोध में अंधा हो गया और प्रह्लाद को अपनी गोदी से उठाकर जमीन पर पटक दिया। चिल्लाने लगा यह मेरा पुत्र नहीं साक्षात शत्रु है। जिस विष्णु ने इसके चाचा को मार डाला, सम्पूर्ण दैत्य कुल का नाश करने के लिए तत्पर रहता है, उसकी नवधा भक्ति की शिक्षा दे रहा है। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बड़े-बड़े हाथियों से कुचलवाया, पहाड़ों के नीचे दबवाया, अंधेरी कोठरी में रखा, जहर देने की कोशिश की। उसकी माँ कयादु ने भी समझाया—बेटा ! जिस प्रभु के नाम लेने से तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ता है, ऐसे प्रभु का नाम तुम छोड़ क्यों नहीं देते ? प्रह्लाद ने कहा— माँ ! तुम्हारे कहने से मैं नाम लेना छोड़ तो देता परंतु वह नाम ऐसा है कि मुझे कभी छोड़ नहीं सकता। लेकिन प्रह्लाद का बाल बाँका भी नहीं हुआ। जिसके रक्षक सुदर्शन चक्रधारी हैं उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
“हमें चिंता नहीं उनकी उन्हें चिंता हमारी है“
हमारी नाव के रक्षक सुदर्शन चक्रधारी हैं।
जय श्री कृष्ण -----
क्रमश: अगले अंक में --------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी
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