Gyan Ganga: पुंसवन व्रत के महत्व का वर्णन शुकदेव जी ने इस प्रकार बताया
शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यहाँ देवराज इन्द्र भिखारी हो गया और ऋषि दधीचि दाता हुए। अस्थि-दान करने हेतु त्रिलोक में यश के भागी बने। उन्होने देव समाज के हित के लिए अपने प्राण दे दिए। ऐसा ही एक प्रसंग शिव पुराण में आता है।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आज-कल हम सब भागवत-कथा सरोवर में गोता लगा रहे हैं।
पिछले अंक में हम सबने नर्क की भयावह घोर यातना का वृतांत तथा अजामिल की कथा सुनी और यह संदेश प्राप्त किया कि जिसने “हरि” ये दो अक्षर एक बार भी उच्चारण कर लिए वह मोक्ष का अधिकारी हो गया। नारायण का नाम मुक्ति के साथ-साथ चतुर्वर्ग फल (धर्म, अर्थ, काम मोक्ष) का भी साधन है।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं।
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विश्वरूप और वृत्रासुर की कथा
श्री शुकदेव जी महाराज परीक्षित से कहते हैं— परीक्षित ! एक बार सभी देवता मिलकर ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास गए और उनसे पुरोहित-कर्म करने की प्रार्थना की। विश्वरूप ने अत्यंत प्रिय और मधुर शब्दों में कहा— हे देव वृंद ! पौरोहित्य कर्म ब्रह्म तेज को क्षीण करता है इसलिए धर्मशील महात्माओं ने इस कर्म की निंदा की है। हे देवगण ! हम अकिंचन हैं। खेती कट जाने पर अथवा खेत-खलिहान उठ जाने पर उसमें से गिरे हुए कुछ दानें चुन लाते हैं और उसी से अपनी जीविका चलाते हैं। इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं यह निंदनीय पुरोहित कर्म क्यों करूँ ?
विगर्हितम धर्म शीलै: ब्रह्मवर्च उपव्ययम ।
अकिंचनानां हि धनं शिलोंछनम तेनह निर्वर्तितसाधुसत्क्रिय:।
कथं विगर्ह्यम नु करोम्यधीश्वरा: पौरोधसं हृष्यति येन दुर्मति:॥
तुलसीदास जी ने भी अपने लोक-काव्य रामचरितमानस में इस बात का उल्लेख किया है।
वशिष्ठ जी, प्रभु श्री राम से कहते हैं—
उपरोहित्य कर्म अति मंदा, वेद,पुराण स्मृति कर निंदा॥
फिर भी देवताओं के आग्रह को विश्वरूप ठुकरा नहीं सके और उन्होने पौरोहित्य कर्म स्वीकार किया। उदार बुद्धि विश्वरूप ने ही देवराज इन्द्र को नारायण कवच का उपदेश दिया था, जिस नारायणी विद्या से सुरक्षित इन्द्र ने असुरों की सेना पर विजय प्राप्त की थी। जो व्यक्ति इस नारायण कवच को आदरपूर्वक सुनता और सुनाता है वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। अब आगे कथा आती है कि एक बार इंद्र ने अपने पुरोहित विश्वरूप के तीनों सिर काट लिए क्योंकि विश्वरूप छिप-छिप कर असुर राक्षसों को भी यज्ञ की आहुतियाँ दिया करते थे। विश्वरूप के मरते ही इन्द्र पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा। वृत्रासुर विश्वरूप का भाई था। उसकी उत्पति यज्ञ से हुई थी। उसने इन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा। इन्द्र और अन्य देवता उसके सामने टिक नही सके। हाथ जोड़कर भगवान नारायण की शरण में गए। भगवान ने कहा— इन्द्र ! यह ब्राह्मण विश्वरूप की हत्या का परिणाम है। तुम दधीचि ऋषि के पास जाओ उनकी हड्डियों से बना अस्त्र ही वृत्रासुर को मार सकेगा। सभी देवता दधीचि ऋषि के पास गए, दधीचि ने अपने ध्यान योग से देवताओं के आगमन का अभिप्राय जान लिया। दधीचि ने अनेक तीर्थों के जल से स्नान किया योगाभ्यास से अपने प्राण ब्रह्मांड में चढ़ाकर परमेश्वर के ध्यान में लीन हो गए। इन्द्र ने उनकी हड्डी लेकर विश्वकर्मा को दिया जिसने वज्र नामक अस्त्र बनाया और वृत्रासुर का वध हुआ।
शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यहाँ देवराज इन्द्र भिखारी हो गया और ऋषि दधीचि दाता हुए। अस्थि-दान करने हेतु त्रिलोक में यश के भागी बने। उन्होने देव समाज के हित के लिए अपने प्राण दे दिए। ऐसा ही एक प्रसंग शिव पुराण में आता है। तारकासुर राक्षस का उत्पात दिनो-दिन बढ़ता जा रहा था। वह स्वर्ग पर अधिकार करने की चेष्टा करने लगा। यह बात जब देवताओं को पता चली, तो सब चिंतित हो गए। विचाए विमर्श के बाद सभी देवगण भगवान शिव को समाधि से जगाने का निश्चय करते है। इसके लिए वे कामदेव को सेनापति बनाकर यह काम कामदेव को सौपते हैं। कामदेव, महादेव की समाधि स्थल पर पहुंचकर अनेकों प्रयत्नो के द्वारा महादेव को जगाने का प्रयास करते है, पर सब प्रयास बेकार हो जाते है।
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अंत में कामदेव भोले नाथ को जगाने लिए आम के पेड़ के पत्तो के पीछे छुपकर शिवजी पर पुष्प बाण चलाते है। पुष्प बाण सीधे भगवान शिव के हृदय में लगता है, और उनकी समाधि टूट जाती है। अपनी समाधि टूट जाने से भगवान शिव बहुत क्रोधित होते है और आम के पेड़ के पत्तो के पीछे खडे कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से जला कर भस्म कर देते हैं। देव और संत समाज के हित के लिए ऋषि दधीचि की तरह कामदेव ने भी अपने प्राण त्याग दिए। कामदेव की प्रशंसा करते हुए संत शिरोमणि तुलसी जी लिखते हैं -
“पर हित लागि तजई जो देही, संतत संत प्रसंसहि तेही”
पुंसवन व्रत
पुंसवन व्रत का माहात्म्य पूछने पर शुकदेव जी कहते हैं--- यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों को करना चाहिए। इसका प्रारम्भ मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल प्रतिपदा से करना चाहिए। जो स्त्री इस व्रत का पालन करती है, उसे मनचाही वस्तुएँ मिलती हैं। सौभाग्य, संपति, संतान, यश की प्राप्ति होती है। पति चिरायु होता है, जिसके बच्चे मर जाते हैं वह चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। अभागिनि स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है, कुरूपा को सुंदर रूप प्राप्त होता है। रोगी इस व्रत के प्रभाव से रोगमुक्त हो जाता है। व्रत करने वाले की सम्पूर्ण इच्छायें पूर्ण हो जाती हैं। और सबसे बड़ी बात यह की भगवान लक्ष्मी नारायण प्रसन्न हो जाते हैं।
बोलिए----
लक्ष्मी नारायण भगवान की जय
जय श्री कृष्ण -----
क्रमश: अगले अंक में --------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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