Gyan Ganga: वीर अंगद ने क्रोधित स्वर में रावण को क्या-क्या सुना दिया था?
रावण ने वीर अंगद को बंदर कहा। साथ में बड़े कड़े शब्दों में कहा, कि हे मूर्ख बंदर! तू मुझ प्रतापी और जगत प्रसिद्ध रावण को छोटा कहता है, और उस मनुष्य की बड़ाई करता है। अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया है।
भगवान श्रीराम जी महिमा कितनी अपार है, यह तो कोई भक्त ही जान सकता है। अहंकार वश होकर तो उनके दरबार से खाली ही जाया जा सकता है। लेकिन इसे दुर्भाग्य की सीमा ही कहेंगे, कि कोई पीपासु गंगा जी के पावन घाट पर पहुँच कर भी प्यासा वापिस आ जाये। रावण के साथ ठीक ऐसा ही हो रहा था। उसे उसके अब तक के जीवन काल में किस-किस ने नहीं समझाया। मंदोदरी से लेकर विभीषण जी ने, श्रीहनुमान जी से लेकर वीर अंगद जी ने, लेकिन रावण है कि, नहीं समझने की मानो सौगन्ध ही खाये बैठा है। अब विगत अंक वाली चर्चा ही देख लीजिए। रावण वीर अंगद की एक भी बात पर कान नहीं दे पा रहा है। उल्टे वह स्वयं को ही महिमा मंडित करने में लगा है। और स्वयं की श्लाघा करने में अपनी मर्यादाओं को इतना लाँघ गया, कि स्वयं को अपने गुरु व ईष्ट, भगवान शंकर से भी अधिक बलवान व श्रेष्ठ मानने लगा। और दावा करने लगा, कि मैंने अपने गुरु को भी अपने कँधों पर उठा कर ऊँचा कर दिया है। ऐसे में, यह तो स्वयं सिद्ध हो गया, कि मैं अपने गुरु से भी कहीं अधिक आगे हूँ। मूर्ख रावण, इतना भी नहीं समझ पाया, कि गुरु को शिष्य ऊपर नहीं उठाता, बल्कि गुरु अपने शिष्य को ऊँचाईयों पर लेकर जाता है। सोचिए जो मूर्ख प्राणी अपने गुरु को ही सुंदर दृष्टि से नहीं देख पा रहा है, वह भला श्रीराम जी को भली दृष्टि से कैसे देख सकता था? इसी वेग में रावण वीर अंगद पर निरंतर खीझ रहा है। कारण कि, वीर अंगद श्रीराम जी की महिमा गा रहे हैं, रावण की प्रत्येक बात की भर्तस्ना कर रहे हैं। रावण वीर अंगद जी को अपमानित भाव से बोला-
‘तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान।।’
रावण ने वीर अंगद को बंदर कहा। साथ में बड़े कड़े शब्दों में कहा, कि हे मूर्ख बंदर! तू मुझ प्रतापी और जगत प्रसिद्ध रावण को छोटा कहता है, और उस मनुष्य की बड़ाई करता है। अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया है।
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वीर अंगद ने जैसे ही यह सुना, कि रावण श्रीराम जी को साधारण मनुष्य आँक रहा है, तो वीर अंगद क्रोधित हो उठे। वे रावण की मूढ़ता, व श्रीराम जी की सर्वज्ञता पर तर्कों की झड़ी लगा देते हैं। वीर अंगद कहते हैं-
‘राम मनुज कस रे सठ बंगा।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।।
पसु सुरधेनु कल्पतरु रुखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा।।’
वीर अंगद बोले, क्या रे उद्दण्ड! क्या श्रीराम जी मनुष्य हैं? अगर ऐसा है, तो क्या कामदेव जी भी धनुर्धारी हैं? क्या गंगा जी नदी हैं? कामदेव क्या पशु है? कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? अमृत क्या रस है?
अगर ऐसा सब है, तो निश्चित ही फिर श्रीराम जी को भी मानव मान लिआ जा सकता है। लेकिन गंगा जी एक साधारण नदी कैसे हो सकती है? वे तो नदी के स्तर से इतनी ही ऊँची हैं, जितनी कि धरती से आसमाँ ऊँचा होता है।
वीर अंगद जी वास्तव में अपने तर्कों से यह समझाना चाह रहे हैं, कि श्रीराम जी दिखने में भले ही मानव से प्रतीत हो रहे हों, लेकिन वे तब भी मनुष्य नहीं हैं। क्योंकि वे मानव शरीर का चोला पहने, साक्षात भगवान हैं।
आगे वीर अंगद रावण को क्या समझाते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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