Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र लौटाते समय उनसे क्या कहा था?
भगवान कहते हैं– अरी गोपियों ! तुमने जो व्रत लिया था उसे अच्छी तरह से निभाया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु इस अवस्था में निर्वस्त्र होकर तुम सबने स्नान किया है, इससे जल के देवता वरुण और यमुना जी का अपराध हुआ है।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने भगवान के गो चारण, धेनुकासुर वध और कालिय नाग के उद्धार की कथा सुनी। भगवान ने कालिय नाग को अभय प्रदान करते हुए कहा--- जाओ, अब तेरा शरीर मेरे चरण चिह्नो से अंकित हो गया है। इसलिए अब गरुण तुझे पीड़ा नहीं पहुंचाएंगे। इस प्रकार भगवान ने कालिय नाग का भी उद्धार कर दिया और अपनी प्रेयसी कालिंदी को भी विष से मुक्त किया।
आइए ! कथा के अगले प्रसंग में चलें– शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ! गर्मी का दिन था। एक बार थके प्यासे सभी व्रजवासी गाय बछड़ों के साथ रात में यमुना नदी के किनारे ही सो गए। अचानक प्रचंड आग लग गई, व्रजवासी जलने लगे, भगवान से प्रार्थना की। भगवान ने उस धधकती हुई भयंकर आग को बुझाया नहीं बल्कि पी गए।
भगवान ने सोचा इसी अग्निदेव ने रामावतार में जानकी जी को सुरक्षित रखकर मेरा कितना उपकार किया था इसलिए इन्हें अपने मुख में स्थापित करके इनका सत्कार करूंगा। भगवान के मुख से ही अग्निदेव प्रकट हुए हैं। ----- मुखादग्निरजायत ।
वेणु-गीत प्रसंग
शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! शरद रितु का सुंदर समय है। प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है। जलाशयों में मनोहर कमल के पुष्प खिले हुए हैं, शीतल, मंद और सुगंधित हवा चल रही है, पक्षियों के कलरव से वातावरण खुशनुमा हो गया है। भगवान अपने बाल-मित्रों के साथ गायें चराने के लिए वन में प्रवेश करते हैं।
गायें चराते-चराते अपनी बांसुरी बजाने लगते हैं। वंशी की मधुर आवाज सुनकर गोपियों का हृदय प्रेम से भर जाता है। देखिए ! प्रेम मिलन की आकांक्षा बढ़ाता है। गोपियाँ प्रभु से मिलने के लिए आतुर हो गईं और मन ही मन कृष्ण के पास पहुँच गईं। और उनके रूप सौंदर्य का मधुर वर्णन आपस में करने लगीं।
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् |
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन गोपवृन्दैः-
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ||
वृन्दावनं सखिभुवो वितनोति कीर्तिम्
यद् देवकी सुतपदाम्बुज लब्ध लक्ष्मि
गोविन्दवेणु मनु मत्तमयूर नृत्यम
प्रेक्ष्याद्रि सान्वपरतान्यसमस्तसत्वम.।।
कृष्ण के सिर पर मोर का पंख है, कानों में कनेर के सुंदर-सुंदर फूल खिले हैं, गले में वैजयंती की माला सुशोभित हो रही है, होठों पर वंशी विराजमान है। आज यह वृन्दावन धाम स्वर्ग से भी सुंदर लग रहा है। इस प्रकार भगवान के रूप-सौंदर्य का वर्णन करती हुईं गोपियाँ प्रभु के प्रेम-पाश में बंध गईं।
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एक सखी कहती है— कृष्ण के चरण कमल पड़ने से यह वृन्दावन वैकुंठ लोक से भी अधिक सुंदर हो गया है। जब कृष्ण मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर नाचने लगते हैं। जब स्वर्ग की अप्सराए वंशी की मधुर संगीत सुनती हैं तब हमारी बात क्या वो भी कृष्ण से मिलने के लिए उत्कंठित हो जाती हैं। कृष्ण प्रेम में अपनी सुध-बुध खो बैठती हैं और गाने लगती हैं।
आ जाओ अब तो गिरधारी रास रचने कुंजन में
कृष्ण मुरारी हे वनवारी दरश दिखाने मधुवन में ।
कौन बजाए तुम बिन बंशी इस सुंदर वृन्दावन में
जग के खेवैया कृष्ण कन्हैया, अब तो आओ मधुवन में ॥
आ जाओ अब तो गिरधारी---------------------------------
चीर हरण प्रसंग
शुकदेव जी महाराज कहते हैं- परीक्षित ! अब हेमंत ऋतु का मौसम आ गया।
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्।
आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोगितेरुणे
कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानुर्चुर्नृप सैकतीम् ।
मार्ग शीर्ष महीने में गोपियाँ यमुना के तट पर बालू की कात्यायनी देवी की मूर्ति बनाती और यमुना के पवित्र जल में स्नान कर देवी का विधिपूर्वक पूजन कर प्रार्थना करतीं, हे देवी ! कृष्ण को हमारा पति बना दीजिए।
कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधिश्वरी
नंद गोप सुतं देवी पतिं मे कुरुते नम:।।
एक दिन सभी गोपकुमारियों ने प्रतिदिन की भांति यमुना के किनारे अपने-अपने वस्त्र उतार दिए और कृष्ण का गुण-गान करतीं हुई बड़े आनंद से जलक्रीड़ा करने लगीं। शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित भगवान योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे सबकी अभिलाषा समझते हैं। वे गोपियों का अभिप्राय जानकर अपने ग्वाल सखाओं के साथ गोपियों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए यमुना तट पर पहुँच गए।
भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वर:
वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये।।
उन्होंने अकेले ही गोपियों के सारे वस्त्र उठा लिए और बड़ी फुर्ती से कदंब के वृक्ष पर चढ़ गए। हास-परिहास भी करने लगे। अरी ! कुमारियों तुम यहाँ आ कर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ।
तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वर:
हसद्भि: प्रहसन बालै: परिहासमुवाच ह
अत्रागत्याबला: कामं स्वं स्वं वासं प्रगृह्यताम
सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद् यूयम् व्रतकर्षिता:।।
भगवान का यह हास-परिहास देखकर गोपियों का हृदय कृष्ण-प्रेम में डूब गया। गोपियाँ कहने लगीं- प्यारे श्री कृष्ण ! ऐसा अनुचित काम मत करो। देखो, हम सब ठंड के मारे ठिठुर रही हैं। हमे और कष्ट मत दो हमारे वस्त्र दे दो नहीं तो हम जाकर नंदबाबा से शिकायत करेंगी।
श्यामसुंदर ते दास्य: करवाम तवोदितम ।
देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवामहे।।
भगवान कहते हैं-- हे कुमारियों ! यदि तुम अपने को मेरी दासी समझती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने वस्त्र ले लो।
भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ
अत्रागत्य स्व वासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मित:।।
कृष्ण की मधुर वाणी सुनकर कृष्ण गृहीत मानसा गोपियाँ बाहर निकलकर कृष्ण के पास आतीं हैं। भगवान ने सबके वस्त्र दे दिए और गोपियों का शुद्ध भाव देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
ततो जलाशयात् सर्वा दारिका: शीतवेपिता: ।
पाणिभ्याम योनिमाच्छाद्य प्रोक्तेरु: शीतकर्षिता: ॥
यूयं विवस्त्रायदपोधृतव्रता
व्यगाहतैतत् तदुदेव हेलनम॥
बद्ध्वांजलिं मूर्धन्यपनुत्तयेSहस:
कृत्वानमोSघो वसनं प्रगृह्ताम्।।
भगवान कहते हैं– अरी गोपियों ! तुमने जो व्रत लिया था उसे अच्छी तरह से निभाया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु इस अवस्था में निर्वस्त्र होकर तुम सबने स्नान किया है, इससे जल के देवता वरुण और यमुना जी का अपराध हुआ है, अत: इस दोष की शांति के लिए अपने हाथ जोड़कर सिर से लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो।
शेष अगले प्रसंग में ----
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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