Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-3
विद्वान् पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है किंतु शीघ्र ही समझ लेता है। फल की इच्छा किए बिना कर्तव्यबुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्त हो जाता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात नहीं कहता है। ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति को पण्डित कहा जाता है।
मित्रो ! आज-कल हम लोग कथा के माध्यम से विदुर नीति पढ़ रहे हैं।
आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें।
पिछले अंक में विदुर जी ने महाराज धृतराष्ट्र को विद्वान और पंडित व्यक्ति के लक्षण बताए और यह भी समझाया कि रात्रि में किन चार लोगों को ठीक से नींद नहीं आती, वे पूरी रात करवटें ही बदलते रहते हैं।
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आइए ! चलते हैं विदुर नीति के अगले प्रसंग में और देखते हैं कि महात्मा विदुर जी की दृष्टि में पंडित, बुद्धिमान और ज्ञानी व्यक्ति के क्या लक्षण हैं।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥
विदुर जी कहते हैं---- हे, महाराज धृतराष्ट्र !
सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्पत्ति अथवा दरिद्रता ये छे बातें जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालती, अर्थात उपर्युक्त बातों से जो विचलित नहीं होता निरंतर अपने कार्य की पूर्ति में लगा रहता है वही पण्डित कहलाता है॥
यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।
कामादर्थं वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते ॥
जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थका ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ को ही चुनता है केवल भाग्य के भरोसे नहीं बैठे रहता है वह पण्डित और बुद्धिमान कहलाता है।।
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किं चिदवमन्यन्ते पण्डिता भरतर्षभ ॥
हे भरत श्रेष्ठ !
विवेकपूर्ण बुद्धि वाले पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार काम करने की इच्छा रखते हैं और करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ या छोटा समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते।।
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ।
नासम्पृष्टो व्यौपयुङ्क्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥
विद्वान् पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है किंतु शीघ्र ही समझ लेता है। फल की इच्छा किए बिना कर्तव्यबुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्त हो जाता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात नहीं कहता है। ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति को पण्डित कहा जाता है।
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डित बुद्धयः ॥
विदुर जी के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते हैं, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक नहीं करते और विपत्ति में पड़कर भी घबराते नहीं हैं॥
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः ।
अवन्ध्य कालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥
जो पहले निश्चय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य को पूरा किए बिना बीच में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है॥
आर्य कर्मणि राज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते ।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥ ३० ॥
हे भरतकुल-भूषण धृतराष्ट्र ! पण्डित जन श्रेष्ठ कर्मों में रुचि रखते हैं, उन्नति का काम करते हैं तथा साथ ही भलाई का भी काम करते रहते हैं और जो लोग दूसरे की भलाई करते हैं उनमें कोई दोष नहीं निकालते हैं॥
न हृष्यत्यात्मसंमाने नावमानेन तप्यते ।
गाङ्गो ह्रद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥
जो आदर और सम्मान मिलने पर बहुत प्रसन्न नहीं होता, अनादर और तिरस्कार से संतप्त नहीं होता तथा गङ्गाजी के कुण्ड के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वह पण्डित कहलाता है।।
तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ॥
जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थो की असलियत का ज्ञान रखनेवाला सभी कार्यों को करने का ढंग जानने वाला तथा जो सभी उपायों को जानता हो, वही मनुष्य पण्डित कहलाने के योग्य है॥
प्रवृत्त वाक्चित्रकथ ऊहवान्प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च स वै पण्डित उच्यते ॥
जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो अनोखे ढंग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को भलीभाँति समझता है, वही पण्डित कहलाता है ॥
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असम्भिन्नार्य मर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥
जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो शिष्ट पुरुषो की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही पण्डित' की पदवी पाने के योग्य है ॥
महात्मा विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र के समक्ष अब तक विद्वान, बुद्धिमान और पंडित के लक्षणों का विवेचन किया, अब अविवेकी, मूढ़ और मूर्ख व्यक्ति के लक्षणों की चर्चा करते हुए कहते हैं----
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः ।
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥
जो लोग अनपढ़ और गँवार होते हुए भी स्वयं पर गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनसूबे बाँधने वाले और बिना काम किये ही धन पानेकी इच्छा रखते हैं, ऐसे व्यक्तियों को मूर्ख कहा जाता है ॥
विदुर जी हमें सचेत करते हैं, कि हम सबको उपरोक्त बातों से बचना चाहिए।
शेष अगले भाग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
- आरएन तिवारी
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