Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-25
हे भारत ! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पंडित होने पर भी जिसका मन बश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षा का भार मन्त्री पर ही रहता है।
मित्रो ! आजकल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणों को निखारा जा सकता है।
नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि ---
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥
स्त्रीयां घर की लक्ष्मी कही गयी हैं: वे अत्यंत सौभाग्यशालिनी पूजा के योग्य पवित्र तथा धर की शोभा है। अतः इनकी विशेष रुप से रक्षा करनी चाहिये॥
पितुरन्तःपुरं दद्यान्मातुर्दद्यान्महानसम् ।
गोषु चात्मसमं दद्यात्स्वयमेव कृषिं व्रजेत् ।
भृत्यैर्वणिज्याचारं च पुत्रैः सेवेत ब्राह्मणान् ॥ १२ ॥
अन्तःपुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दे, रसोई-घर का प्रबंध माता के हाथों में दे दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं करे ॥
नित्यं सन्तः कुले जाताः पावकोपम तेजसः।
क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव शेरते॥
अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशुन्य पुरुष सदा काष्ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं॥
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यस्य मन्त्रं न जानन्ति बाह्याश्चाभ्यन्तराश् च ये।
स राजा सर्वतश्चक्षुश्चिरमैश्वर्यमश्नुते॥
जिस राजा की मन्त्रणा को उसके बहिरङ्ग एवं अन्तरङ्ग सभासद् तक नही जानते सब और दूष्टि रखने वाला वह राजा चिरकाल तक ऐस्वर्य का उपभोग करता है ॥
गिरिपृष्ठमुपारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।
अरण्ये निःशलाके वा तत्र मन्त्रो विधीयते॥
पर्वत की चोटी अथवा राजमहलपर चढ़कर एकान्त स्थान में जाकर या जङ्गल में तृण आदि से अनावृत स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिये॥
नासुहृत्परमं मन्त्रं भारतार्हति वेदितुम् ॥
अपण्डितो वापि सुहृत्पण्डितो वाप्यनात्मवान् ॥
अमात्ये ह्यर्थलिप्सा च मन्त्ररक्षणमेव च ॥
कृतानि सर्वकार्याणि यस्य वा पार्षदा विदुः।
गूढमन्त्रस्य नृपतेस्तस्य सिद्धिरसंशयम् ॥
हे भारत ! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पंडित होने पर भी जिसका मन बश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षा का भार मन्त्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ ओर काम विषयक सभी कार्य पूर्ण होने के बाद ही लोगों को पता चले , वही राजा समस्त राजाओ में श्रेष्ठ है। अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाले उस राजा को निःसन्देह सिद्धि प्राप्त होती है।॥
अप्रशस्तानि कर्माणि यो मोहादनुतिष्ठति ।
स तेषां विपरिभ्रंशे भ्रश्यते जीवितादपि ॥
जो मोहवश बुरे कर्म करता है, वह विपरीत परिणाम भोगते हुए अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है॥
कर्मणां तु प्रशस्तानामनुष्ठानं सुखावहम् ।
तेषामेवाननुष्ठानं पश्चात्तापकरं महत् ॥
उत्तम कर्मो का अनुष्ठान तो सुख देने वाला होता है किन्तु उन्ही का अनुष्ठान न किया जाय तो वह पश्चाताप का कारण माना गया है ॥
अनधीत्य यथा वेदान्न विप्रः श्राद्धमरहति ।
एवमश्रुतषाडगुण्यो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति ॥
जैसे वेदों को पढ़े बिना ब्राह्मण श्राद्ध का अधिकारी नहीं होता, उसी प्रकार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय नामक छः गुणों को जाने बिना कोई गुप्त मन्त्रणा सुनने का अधिकारी नहीं होता ।।
अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षिणः।
आत्मप्रत्यय कोशस्य वसुधेयं वसुन्धरा ॥
जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते जो आवश्यक कर्यो की स्वयं देख-भाल करता है और खजाने की भी स्वयं जानकारी रखता है उसकी पृथ्वी पर्याप्त धन देने वाली होती है॥
नाममात्रेण तुष्येत छत्रेण च महीपतिः।
भृत्येभ्यो विसृजेदर्थान्नैकः सर्वहरो भवेत् ॥
भूपति को चाहिये कि अपने राजा' नाम से और राजोचित छत्र धारण से संतुष्ट रहे और सेवको को पर्याप्त धन दे, सब अकेले ही न हडप ले ।।
ब्राह्मणो ब्राह्मणं वेद भर्ता वेद स्त्रियं तथा ।
अमात्यं नृपतिर्वेद राजा राजानमेव च ॥
ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री की उसका पति जानता है, मन्त्री को राजा जानता है और राजा को भी राजा ही जानता है ।
न शत्रुरङ्कमापन्नो मोक्तव्यो वध्यतां गतः ।
अहताद्धि भयं तस्माज्जायते नचिरादिव ॥
वश मे आये हुए वध योग्य शत्रु को कभी छोड़ना नहीं चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिये और बल होने पर उसे मार डालना चाहिये, क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है ॥
दैवतेषु च यत्नेन राजसु ब्राह्मणेषु च ।
नियन्तव्यः सदा क्रोधो वृद्धबालातुरेषु च ॥
देवता, ब्राह्मण, राजा, वृद्ध, बालक और रोगी पर कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिये॥
निरर्थं कलहं प्राज्ञो वर्जयेन्मूढ सेवितम् ।
कीर्तिं च लभते लोके न चानर्थेन युज्यते॥
निरर्थक कलह करना मूर्खो का काम है, बुद्धिमान पुरुष को इसका त्याग करना चाहिये ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता ॥
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः॥
जिस राजा के प्रसन्न होने से प्रजा को कुछ प्राप्त नहीं होता तथा ज़िसका क्रोध भी व्यर्थ होता है ऐसे राजा को प्रजा उसी तरह नहीं चाहती, जैसे स्त्री नपुंसक पति को नहीं चाहती।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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