Gyan Ganga: आत्मदेव ब्राह्मण की कथा जीवन के लिए बड़ा सकारात्मक संदेश देती है
जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब वह सन्तान के लिये दुःखियों को गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इतने दुःखी हो गए कि अपने प्राण त्यागने के लिए वन में चल दिए। जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो रास्ते में एक संत महात्मा बैठे हुए थे।
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम: !!
पिछले अंक में हमने श्रीमद भागवत महापुराण के माहात्म्य के अंतर्गत नारद से भक्ति की मुलाक़ात की चर्चा की थी, आइए ! उसी क्रम में आत्मदेव ब्राह्मण की कथा का श्रवण करें।
आत्मदेव ब्राह्मण की कथा
एक ब्राह्मण थे आत्मदेव। जो तुंगभद्रा नदी के तट पर रहते थे। ये बड़े ज्ञानी थे। वे समस्त वेदों के विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मों में निपुण थे। इनकी एक पत्नी थी जिसका नाम था धुन्धुली। वैसे तो धुन्धुली कुलीन और सुंदर थी लेकिन अपनी बात मनवाने वाली, क्रूर और झगड़ालू थी। आत्मदेव जी के जीवन में धन, वैभव सब कुछ था लेकिन सिर्फ एक चीज की कमी थी। इनके जीवन में कोई संतान नहीं थी। जिस बात का इन्हें दुःख था।
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जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब वह सन्तान के लिये दुःखियों को गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इतने दुःखी हो गए कि अपने प्राण त्यागने के लिए वन में चल दिए। जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो रास्ते में एक संत महात्मा बैठे हुए थे।
संत ने पूछा तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो?
आत्मदेव जी ने कहा-
धिग्जीवितं प्रजाहीनं धिग्गृहं च प्रजां बिना
धिग्धनं चानपत्यस्य धिक्कुलं संततिं बिना।।
हे मुनिवर ! मुझे कोई संतान नहीं है, संतान के बिना मेरा जीवन सूना-सूना लगता है। मैंने एक गाय रखी थी, यह सोचकर कि उसके बछड़े होंगे उनके साथ अपना मन बहला लूँगा लेकिन वह भी बाँझ निकली। जो भी पेड़ लगाता हूँ उसके फल पकने के पहले ही सड़ जाते हैं। मेरे जीवन को धिक्कार है, इसलिए अब अपने जीवन का अंत करने जा रहा हूँ। ऐसा कहकर आत्मदेव फूट फूटकर रोने लगे।
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संन्यासी ने कहा— ब्राह्मण देवता! संतान प्राप्ति का मोह त्याग दो। विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर !; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देख लिया है। तुम इस जन्म के लिए रोते हो लेकिन तुम्हारे तो सात जन्म तक कोई संतान का योग ही नहीं है। तुम्हारे माथे की रेखा ये बता रही है।
श्रृणु विप्र मया तेद्य प्रारब्धं तु विलोकितं
सप्त जन्मावधि तव पुत्रो नैव च नैव च।
प्राचीन काल में राजा सगर एवं अंग को भी सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण! अब तुम घर-परिवार की आशा छोड़कर संन्यासी बन जाओ। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है।
ब्राह्मण ने कहा— महात्मन ! आप मुझे उपदेश मत दीजिए मुझे पुत्र दीजिए। यदि मेरे भाग्य में संतान नहीं है तो नहीं सही, आपके आशीर्वाद में तो वह शक्ति है जो मुझे संतान प्राप्त करा सके। यदि आपने मेरी अभिलाषा पूरी नहीं की तो मैं अभी ही आपके समक्ष अपनी जीवन लीला समाप्त कर दूंगा।
संत जी ने आत्मदेव का आग्रह और हठ देखकर कहा- ''विधाता के लेख को मिटाने का हठ मत करो ब्राह्मण ! विधाता के लेख को मिटाने का हठ करने से राजा चित्रकेतु को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था, तुम्हें भी संतान से सुख नहीं मिल सकेगा।'' भागवत का एक सुंदर संदेश--
भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरूषम
ब्राह्मण के हठ के सामने महात्मा को झुकना पड़ा, उन्होंने आत्मदेव को एक फल देकर कहा-
तुम यह फल अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसे एक पुत्र होगा। तुम्हारी पत्नी को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये। ऐसा कहकर योगिराज चले गये।
घर आकर आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और कहा कि ये संत का प्रसाद है तुम इस फल को खाकर एक साल तक नियमपूर्वक रहो। तुम्हें सुंदर पुत्र प्राप्त होगा। ऐसा कहकर आत्मदेव वहां से चले गए।
शेष आगे की कथा अगले अंक में---------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी
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