Gyan Ganga: लक्ष्मणजी का क्रोध देखकर सुग्रीव ने अपनी पत्नी को याचना के लिए क्यों भेजा ?

Lakshmanji
सुखी भारती । Jul 15 2021 3:34PM

श्री हनुमान जी ने सारी बाज़ी ही पलट दी। कारण कि जैसे ही श्री हनुमान जी ने प्रभु की महिमा का गुणगान किया, श्रीलक्ष्मण जी तो मानो यूं ठंडे हुए मानो अग्नि पर जल की बौछार कर दी गई हो। उनका सारा क्रोध मानो प्रभु महिमा सुन भक्तिमय ही बन गया।

श्री हनुमान जी जब सुग्रीव को संकेत करते हैं कि अब आप ही कुछ उपाय कीजिए कि श्री लक्ष्मण जी का क्रोध शांत हो। सुग्रीव भला इस अवस्था में कहाँ था कि उसका मस्तिष्क कहीं कोई सुलभ रास्ता ढूंढ़ पाता। इसी हड़बड़ी में उसके कानों में जो स्वर पड़े, उसके कारण तो उसके प्राण ही सूख गए। कारण कि श्रीलक्ष्मण जी के आगमन से समस्त किष्किंधा में तो जैसे घमासान ही मच गया था। वानरों को तो भागने के लिए समस्त दिशायें भी कम पड़ रही थीं। और ऊपर से श्रीलक्ष्मण जी ने यह घोषणा कर दी कि मैं पूरी किष्किंधा नगरी को अभी जला कर भस्म कर दूंगा। यह सुन वहाँ तुरन्त बालि कुमार वीर अंगद का पर्दापण होता है। यहाँ परिस्थितियाँ निश्चित ही बड़ी भयानक बन सकती थीं। कारण कि वीर अंगद श्रीलक्ष्मण जी के इस क्रोधावतार का अगर प्रतिकार करने का सोच लेते तो हालात अति भयावह हो सकते थे। कारण कि वीर अंगद भी कोई साधारण योद्धा तो थे नहीं। वे भी कह सकते थे कि भई कमाल है! आप दोनों भाइयों ने तो हद ही कर रखी है। श्रीराम जी आए, तो मेरे पिताश्री का वध करके चलते बने। और अभी उनकी चिता की राख भी ढंग से ठंडी नहीं हुई कि आप आ धमके। क्या खूब खेल, खेला जा रहा है। बड़ा बड़े को मार रहा है, और छोटा छोटे भाई को मार रहा है। अरे भाई! किष्किंधा को कोई स्वामी जीवित भी रहने दोगे कि नहीं। युवराज होने के नाते और चाचा का वध होने के पश्चात् निश्चित ही हमें ही किष्किंधा नरेश बनना है। और मुझे तो भय है कि तद्पश्चात आप मुझे भी मारने न आ धमको। 

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लेकिन सज्जनों! क्या आपको लगता है कि वीर अंगद ऐसी तुच्छ मानसिकता के स्वामी भी हो सकते हैं? निःसंदेह इसका उत्तर नहीं ही है। वीर अंगद जैसा विशाल हृदय भला किसका हो सकता है? अपने पिता का वध जिसने अपनी आँखों से देखा हो, वध करने वाले श्रीराम जी के प्रति, तब भी वीर अंगद के हृदय में श्रद्धा का अंबार लगा हो, भला प्रभु का ऐसा परम भक्त श्रीलक्ष्मण जी का प्रतिकार कैसे कर सकता है? उलटे वीर अंगद तो श्रीलक्ष्मण जी को जाकर प्रणाम करते हैं-

‘चर नाइ सिरु बिनती कीन्ही।

लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही।।’

प्रतिउत्तर में श्रीलक्ष्मण जी वीर अंगद को बाँह उठाकर अभय दान प्रदान करते हैं। यहाँ सुग्रीव के अंतःकरण में अनेकों अनहोनियों के झंझावत जन्म लेते देखे जा सकते थे। सुग्रीव ने जब सुना कि श्रीलक्ष्मण जी ने वीर अंगद को अभय दान प्रदान कर दिया है, तो अवश्य ही उसे लगा होगा कि इसके पीछे कहीं भतीजे अंगद का हाथ तो नहीं? क्योंकि श्रीलक्ष्मण जी को किष्किंधा नगरी ही जलानी होती तो वीर अंगद को अभय दान क्यों? कहीं यह मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र तो नहीं? लेकिन उसी क्षण उसे आत्मा के दूसरे स्वर ने लताड़ते हुए झंझोड़ा, कि अरे ओह मूर्ख सुग्रीव! उम्र भर नकारात्मक ही सोचता रहेगा क्या? पहले श्रीराम जी के प्रति इतनी मैल से तूं भरा रहा। और अब श्रीलक्ष्मण जी के प्रति तू झंड़ा उठाये खड़ा है। संपूर्ण सृष्टि में एक तू ही महात्मा बचा है क्या? विषयों के पर्वत तो तुमने अपने सिर पर उठा रखे हैं। और अँगुली उठा रहा है परम बैरागी श्रीलक्ष्मण जी पर? निःसंदेह धिक्कार है ऐसी मानसिकता पर। सुग्रीव को भी लगा कि शायद मैं अधिक ही सोचे बैठा हूँ। भला ऐसा कुछ होता तो श्री हनुमान जी क्या मुझे आगाह नहीं करते?श्रीलक्ष्मण जी ने वीर अंगद को अभय दान देकर यह तो स्पष्ट कर ही दिया है, कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ मुझे ही साधना है। अब सुग्रीव का मन गहन दुविधा में रमण कर रहा है, कि करूँ तो क्या करूँ। तभी सुग्रीव के मन में श्री हनुमान जी के विचार कौंधने लगे कि मैं स्वयं सोचूं कि समस्या की जड़ क्या है? तो समस्या की जड़ तो नारी को प्रति मेरी विषयी सोच है न? नारी को मात्र भोग विलास की वस्तु समझ मैंने सदा ही उसका शोषण करने का पाप किया है। कभी नहीं सोचा कि धर्म पत्नी भोग नहीं, अपितु योग मार्ग की संगिनी है। और योग मार्ग का सबसे बड़ा आधार तो वैराग्य का सान्निध्य है। और मैं मूर्ख उलटी ही धारा में बहे जा रहा था कि अरे देखो वैराग्य मेरा शत्रु है। वैराग्य मेरा नहीं, अपितु मेरे विषयों का शत्रु है। और मेरे विषयों का आधार मैंने नाहक ही अपनी पत्नि को बना रखा है। तो क्यों न मैं अपनी पत्नि को ही पहले श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष उपस्थित कर दूं। शायद श्रीलक्ष्मण जी का क्रोध कुछ शांत ही हो जाए। जब श्री हनुमान जी ने सुग्रीव का यह विचार सुना तो उन्होंने भी साधु-साधु कह कर सुग्रीव का समर्थन किया। और सुग्रीव अपनी पत्नि तारा को तत्काल श्री हनुमान जी के साथ श्रीलक्ष्मण जी के सम्मुख भेजने को तत्पर होते हैं-

‘सुनु हनुमंत संग लै तारा।

करि बिनती समुझाउ कुमारा।।

तारा सहित जाइ हनुमाना।

चरन बंदि प्रभुसुजस बखाना।।’

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श्री हनुमान जी ने तारा को संग ले श्रीलक्ष्मण जी को प्रणाम किया और कोई और चर्चा न करके मात्र प्रभु के सुंदर यशगाण का वर्णन करते हैं। और यहीं पर मानो श्री हनुमान जी ने सारी बाज़ी ही पलट दी। कारण कि जैसे ही श्री हनुमान जी ने प्रभु की महिमा का गुणगान किया, श्रीलक्ष्मण जी तो मानो यूं ठंडे हुए मानो अग्नि पर जल की बौछार कर दी गई हो। उनका सारा क्रोध मानो प्रभु महिमा सुन भक्तिमय ही बन गया। आगे तारा श्रीलक्ष्मण जी से क्या वार्ता करती हैं, क्या वह श्रीलक्ष्मण जी को प्रभावित कर पाएँगी? जानने के लिए प्रभु महिमा स्तंभ का आगामी अंक अवश्य पढि़एगा...(क्रमशः)...जय श्रीराम...?

-सुखी भारती

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