Gyan Ganga: सुग्रीव के संशयों का प्रभु श्रीराम ने इस तरह किया था निवारण
परीक्षण और निरीक्षण का अधिकार कभी भी विद्यार्थी को नहीं होता। विद्यार्थी अपने गुरु की परीक्षा अगर लेगा तो हास्यस्पद नहीं होगा तो क्या होगा? ऐसे दुस्साहस का कोई विद्यार्थी सोच भी ले तो पूरी संभावना है कि अध्यापक या गुरु क्रोधित होकर विद्यार्थी को दण्डित भी कर दें।
बेचारे सुग्रीव क्या जानें कि कोमल व कमजोर से रेशमी धागे से किसी ऐरावत हाथी को बांधने का प्रयास करना बुद्धिहीनता से अधिक और कुछ नहीं है। क्या किसी ने सूर्य को पकड़ कर तराजू के पलड़े में डालकर उसे तौलने का सफल प्रयास करते देखा है ? या फिर सागर को किसी की अंजुली में समाते दृष्टिपात किया है ? नहीं न! फिर यह कैसे हो सकता है कि कोई श्रीराम जी का सामर्थ्य माप पाए? कारण कि बुद्धि, ज्ञानि अथवा सामर्थ्य से श्रीराम जी का बल या क्षमता मापी ही नहीं जा सकती।
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लेकिन क्या करें! सुग्रीव तो ऐसा करने निकल ही पड़े हैं न। उसे नहीं पता है कि कागज़ के बांध से भाखड़ा डैम का पानी कदापि नहीं रोका जा सकता है। हालांकि श्री हनुमान जी को पता था कि सुग्रीव चले तो हैं श्रीराम जी की क्षमता का पता करने और प्रदर्शन अपनी क्षमताओं का कर बैठेंगे। क्योंकि परीक्षण और निरीक्षण का अधिकार कभी भी विद्यार्थी को नहीं होता। विद्यार्थी अपने गुरु की परीक्षा अगर लेगा तो हास्यस्पद नहीं होगा तो क्या होगा? ऐसे दुस्साहस का कोई विद्यार्थी सोच भी ले तो पूरी संभावना है कि अध्यापक या गुरु क्रोधित होकर विद्यार्थी को दण्डित भी कर दें।
परंतु यहाँ तो दया के सागर श्रीराम को परीक्षा में उतीर्ण होने के लिए कहा जा रहा है। जिन्हें जीव के कल्याण व उद्धार के प्रति समर्पण व स्नेह हो कि वे परीक्षा भी देने को तैयार हैं। उन्हें कुछ बुरा लग ही नहीं रहा। मानों इसमें भी आनंद ही ले रहे थे। क्योंकि वे तो जानते हैं ही थे कि जीव तो मेरा अंश है− 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' और अंश होने के नाते वह मेरा पुत्र ही तो हुआ। और पुत्र तो अकसर अपने पिता को बोल दिया करता है कि पिता जी−पिता जी घोड़ा बनिए न, मुझे आपकी सवारी करनी है। तो क्या पिता अपने पुत्र की प्रसन्नता के लिए घोड़ा नहीं बनते? क्या वह क्रोधित हो कर पुत्र को दण्ड देने बैठ जाता है कि मुझे घोड़ा बनाने का तूने दुस्साहस ही कैसे किया।
श्रीराम जानते थे कि सुग्रीव चलो हमें घोड़ा इत्यादि तो बनाने वाला है नहीं। लेकिन फिर भी पता तो चले कि सुग्रीव अपनी प्रश्न तालिका में कौन−कौन से प्रश्न दागने को तत्पर है और हमें क्या से क्या बनाने वाला है। क्योंकि भगवान से इन्सान के वेश में तो हम आ ही गए हैं। अब इन्सान से कहाँ की यात्रा करनी है बस यह देखना बाकी है।
सज्जनों सुग्रीव ने किया भी कुछ ऐसा ही। सुग्रीव श्रीराम जी को लेकर एक स्थान पर जा पहुँचा और बोला कि प्रभु यह सात ताड़ के पेड़ हैं। इन्हें गौर से देखिए। प्रभु ने सोचा कि ताड़ के पेड़ों को भला गौर से देखने वाली क्या बात है ? वैसे अगर मैं तुमसे पूछ लूं कि सुग्रीव क्या तुमने कभी ताड़ के इन सातों पेड़ों को ध्यान से देखा है? देखा होता तो अवश्य कुछ आध्यात्मिक संदेश तक तो जरूर पहुँचते। वह संदेश यह कि ताड़ के वृक्ष धरती से ऊपर ऊँचाई की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन साथ ही वे जितने बाहर बढ़ते हैं उतने ही ज़मीन के भीतर भी बढ़ते हैं, अपनी जड़ें फैलाते हैं। तभी तो वे लाख आंधी तूफान में भी अडि़ग खड़े रहते हैं। अर्थात् हे सुग्रीव! तुम बाहर से तो बड़ी−बड़ी ऊँचाईयों को छूना चाहते हो। आसमां छूना चाहते हो लेकिन जितना बाहर बढ़ना चाहते हो। क्या अन्दर भी उतना ही गहरा उतरने का मन है या नहीं? अगर हां तो ठीक है वरना ध्यान की भीतरी गहराई छुये बिना तुम्हें जरा-सी आंधी का झोंका भी तुम्हारी जड़ें हिला कर रख देगा।
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खैर! श्रीराम जी ने बोला कि हाँ सुग्रीव मैं इन ताड़ के वृक्षों को देख रहा हूँ। तो क्या करना है? सुग्रीव बोला कि करना क्या है? बस काट दीजिए और वह भी एक ही बाण में। श्रीराम जी सोचने लगे कि लो कर लो बात। सुग्रीव तो हमें लक्कड़हारा बनाने की योजना बनाए बैठे हैं। अगर कोई लकड़ी काटने वाला ही बालि को मार देगा तो यह कार्य तो फिर सुग्रीव भी सहजता से कर सकते थे। एक आरी अथवा कुल्हाड़ी लेते और यह पेड़ काट डालते। और मार डालते महाबलि बालि को। लेकिन अब, जब बहाने से आपने हमसे लकड़ियां ही कटवानी हैं तो ठीक है भाई। काट डालते हैं। और क्षण भर में प्रभु ने वह ताड़ के वृक्ष एक ही तीर में धराशायी कर दिए। यह देख सुग्रीव की आँखें आश्चर्य से चमक उठीं। प्रभु ने सोचा कि चलो सुग्रीव प्रसन्न हुआ। लेकिन प्रभु कुछ कह पाते कि सुग्रीव आगे अपने नए वाक्य गढ़ता बोलता है कि प्रभु यहाँ तक तो ठीक है, आप उतीर्ण हुए लेकिन इधर देखिए, अब आपको यहाँ भी तो अपना हुनर दिखाना है। श्रीराम ने देखा तो सोच में पड़ गए कि अरे भला यहाँ मैं अपना, कौन-सा हुनर दिखाऊँ? हे प्रभु! दुंदुभि राक्षस के इस विशाल पिंजर को आपने यहाँ से कोसों दूर फेंकना है। वह भी केवल छूने मात्र से।
श्रीराम जी तो सुग्रीव की बात सुनकर एक दम अवाक ही रह गए कि सुग्रीव भाई आपने हमें बालि का भेजा गुप्तचर समझ लिया हमने मान लिया। फिर आपने हमसे लकड़ियां कटवाईं हमने वह भी मान लिया। लेकिन क्या अब हमें हड्डियां भी हटानी पडेंगी? फिर स्वयं ही सोचा कि सुग्रीव तुम ठीक ही तो कह रहे हो तुम्हारी जन्मों−जन्मों की एकत्र हड्डियां और कर्मों के बड़े−बड़े ताड़ जैसे वृक्ष अब हम नहीं उठाएंगे तो और कौन उठाएगा। और लो हम तुम्हारे लिए यह भी किए देते हैं−
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।। सज्जनों क्या सुग्रीव द्वारा प्रभु श्रीराम जी की परीक्षा लेना उचित है और क्या प्रभु की परीक्षा लेकर सुग्रीव को समाधान मिल गया? क्या उसका संशय जाल कट गया? जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः... जय श्रीराम
- सुखी भारती
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