Gyan Ganga: हमारे पाप उतने ही तो कटेंगे, जितनी उनकी संख्या होगी

Lord Rama
Prabhasakshi
सुखी भारती । Feb 29 2024 6:35PM

हमारे पाप समाप्त होने की तो सीमा हो सकती है। हमारे पाप उतने ही तो कटेंगे, जितनी उनकी संख्या होगी। माना कि श्रीराम जी की कथा व गुनगान श्रवण करने से हमारे पाप तो कट गये, लेकिन उसके बाद भी श्रीराम कथा श्रवण करने का फिर क्या लाभ?

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस जैसा महान ग्रंथ कोई ऐसे ही नहीं लिखा गया। इसमें अगर श्रीराम जी की कृपा का अपार प्रभाव है, तो गोस्वामी जी की अनंत श्रद्धा व प्रेम का भी योगदान है। हालाँकि कोई यह भी कह सकता है, कि जब वाल्मीकि ने पहले ही रामायण का लेखन कर दिया था, तो गोस्वामी तुलसीदास जी को एक अन्य रामायण लिखने की क्या आवश्यक्ता पड़ गई थी? तो इसका उत्तर यह है, कि श्रीराम जी की लीला को कितना भी गाया जाये, वह उतना ही कम है। प्रभु श्रीराम जी की लीला केवल इसलिए ही नहीं गाई जाती, कि इससे हमारे पाप कटते हैं बल्कि इसलिए भी गाई जाती है कि श्रीराम जी की दिव्य लीलायों को हम जितना भी गाते हैं, श्रीराम जी से हमारा प्रेम उतना ही प्रगाढ़ होता है और प्रभु के प्रेम को आप सीमा में कैसे बाँध कर देख सकते हैं। प्रेम आकाश की मानिंद होता है। कोई आकाश को कितना भी पा ले, क्या उसे पूरा पाया जा सकता है? कितना भी आकाश को माप लिया जाये, आगे देखेंगे, तो आकाश को और अनंत पायेंगे। इसी प्रकार प्रभु से प्रेम भी आकाश की तरह अनंत ही होता है। उसे जितना पाया जाये, उतना ही कम है।

हमारे पाप समाप्त होने की तो सीमा हो सकती है। हमारे पाप उतने ही तो कटेंगे, जितनी उनकी संख्या होगी। माना कि श्रीराम जी की कथा व गुनगान श्रवण करने से हमारे पाप तो कट गये, लेकिन उसके बाद भी श्रीराम कथा श्रवण करने का फिर क्या लाभ?

विश्वास कीजिएगा, श्रीरामकथा का वास्तविक लाभ तो आरम्भ ही तब होता है, जब आपके सिर से पापों की गठड़ी थोड़ी हल्की हो जाती है। कारण कि पापों के प्रभाव से हमें श्रीराम जी की लीलायों में रस ही नहीं आता है। हमें उनके जीवन चरित्र सुहाते ही नहीं। हमारा मन प्रभु चरित्र सुनते ही व्याकुल होने लगता है। हम उबने लगते हैं। बाहर से भले ही हम प्रगट न करें, लेकिन भीतर तो विद्रोह के भाव उमड़ रहे होते हैं।

‘तुलसी पिछले पाप से हरि चर्चा न सुहाये,

जैसे ज्वर के ताप से, भूख विदा हो जाये।।’

पाप का प्रभाव हमारे जीवन में ऐसे है, जैसे हमारे तन को बुखार हो गया हो। बुखार के कारण जैसे हमारी भूख चली जाती है। ठीक वैसे ही पापों के प्रभाव से हमें श्रीराम जी की कथा की भूख नहीं लगती। उनकी कथा हमें सुहाती नहीं। लेकिन जैसे-जैसे कथा रसपान से, हमारे पाप समाप्त होते जायेंगे, हमें प्रभु की दिव्य लीलायें भी समझ पड़ने लगेंगी। लीलायें समझ में आने लगी, तो समझ लेना, कि हमें श्रीराम जी से प्रेम भी होने लगेगा। हम जितना अधिक श्रीराम जी का पावन चरित्र श्रवण करेंगे, हमारे हृदय में उतना ही प्रभु का प्रेम व दुलार उमडेगा। हमें हर दिशा में प्रभु ही दृष्टिपात होंगे। कितनी भी विकट परिस्थिति हो, हमें लगेगा ही नहीं, कि हम अकेले हैं। हमसे पहले हमारे प्रभु, उस विकट समस्या के समक्ष खड़े दिखाई प्रतीत होंगे। इस लिए गोस्वामी जी ने जब देखा, कि वर्तमान समाज में बहुत से लोगों को, ऋर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण, संस्कृत में रचे जाने के कारण समझ में नहीं आती। तो गोस्वामी जी ने श्रीराम जी की उन्हीं दिव्य लीलायों को जन साधारण की भाषा में लिख कर, सबके लिए सुगम किया। 

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अब शायद हमें यह उत्तर मिल गया होगा, कि एक रामायण होने के पश्चात भी गोस्वामी जी ने स्वयं एक अन्य रामायण की रचना क्यों की? और ऐसा भी नहीं, कि ऋर्षि वाल्मीकि जी द्वारा रामायण लिखने के पश्चात केवल गोस्वामी जी ने ही श्रीराम जी के नमित श्रीरामचरित मानस लिखी। संसार में जैसे-जैसे भक्त श्रीराम जी को प्रेम रस के रुप में पीते गये, वे वैसे-वैसे प्रभु की लीलायों को लिखते गये। स्वयं गोस्वामी जी कह रहे हैं, कि अब तक सौ करोड़ रामायण लिखी जा चुकी हैं-

‘नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।’

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा तो संवत 1631 में इस पावन ग्रंथ की रचना आरम्भ की गई। लेकिन ग्रंथ समाप्ती के पश्चात ऐसा नहीं, कि फिर से किसी ने रामायाण लिखी ही नहीं। सौ करोड़ रामायण लिखने के पश्चात भी, यह क्रम अपार प्रभाव से चल रहा है। इसलिए आश्चर्य में नहीं पड़ना चाहिए, कि केवल भारत ही नहीं, अपितु बाहरी देशों में भी, श्रीराम जी को लेकर रामायण के पाठ व राम-लीलायों का मंचन होता रहता है। विशेष बात तो यह है, कि श्रीराम की लीलायों का मंचन व पठन पाठन केवल सनातनी वर्ग ही नहीं करता, अपितु अन्य धर्म के लोग भी करते हैं। संसार का सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल संख्या वाला देश इंडोनेशिया है। वहाँ एक माह तक निरंतर श्रीराम जी की लीलायों का मंचन होता है। वे लोग खुल कर स्वीकार करते हैं, कि भले ही अब हमारी मान्यतायें व रिवाज़ अलग हैं। लेकिन मूल व पूर्वज तो श्रीराम जी ही हैं। हम उन्हें भूल कर कभी भी नहीं रह सकते। श्रीलंका में भी वहाँ की भाषा में रामायण की कितनी ही प्रतियां विद्यामान हैं। आज तक अनेकों बार रामायण का निर्माण हो चुका है, आगे भी यह क्रम निरंतर चलता रहेगा। क्योंकि श्रीराम जी की कथा के बिना यह संसार वैसे ही सूना है, जैसे बिना जल के नदिया, बिना पुष्पों के बगिया और बिना चंद्रमा में पूर्णिमा। प्रभु से प्रेम बढ़ाना है, तो जब भी कहीं पर, कभी भी श्रीराम की लीला को श्रवण करने अथवा गाने का सुअवसर प्राप्त हो, उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। (क्रमशः)---जय श्रीराम। 

- सुखी भारती

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