Gyan Ganga: माता सीता को विश्वास नहीं हो रहा था हनुमान जी प्रभु के दूत हैं
माता सीता जी का हृदय अब व्याकुलता की उस तप्त भट्ठी की निरंतर जलन से बच निकला, जिसमें वे निरंतर मानों सदियों या युगों से जल रही थी। उन्हें लगा, कि आज कितने माह के पश्चात, कोई अपनों से भी अपना मिला है।
श्रीहनुमान जी के साथ यह कैसा घटनाक्रम घट रहा है। कारण कि, कितने कठिन परिश्रम से तो वे माता सीता जी के समीप पहुँच पाये थे। और यहाँ आकर क्या देखने को मिलता है, कि माता सीता जी तो उन पर विश्वास ही नहीं कर पा रही हैं, कि वे श्रीराम जी के दूत हैं, अथवा रावण के कोई भेदिये। संसारिक स्तर पर उतर कर देखें, तो माता सीता जी का, श्रीहनुमंत लाल जी के प्रति ऐसा व्यवहार, किसी का भी हौंसला तोड़ने के लिए पर्याप्त है। श्रीहनुमान जी कह भी तो सकते थे, लो करलो बात! इधर तो खून पसीना एक हो गया। और आप हैं, कि इतना कह कर ही काम चला दिया, कि आपको तो हम पर विश्वास ही नहीं। हम जैसा कोई और होता, तो कह देता, कि ठीक है भई, आपको हमारी आवश्यक्ता नहीं, तो ये लो, हम तो चले अपने घर की ओर वापिस। सच मानिए, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। श्रीहनुमान जी तो उलटे स्वयं को ही दोषी मान रहे थे। कारण कि उनका मानना था, कि वे ही श्रीराम जी के पावन संदेश को सही से प्रेषित नहीं कर पाये। वे माँ जानकी जी के मन की अवस्था को भलीभाँति समझ रहे हैं। उन्हें पता है, कि इतनी प्रताड़ना व कुरुरता के पश्चात तो कोई भी अपने प्राण त्याग दे। भला कोई किस हद तक सहेगा। माता सीता ने तो इस हद तक सह लिया है, कि वह हद भी, अपने दर्द की हद को विस्मरण कर गई होगी। श्रीहनुमान जी जानते हैं, कि यह समय स्वयं के किसी उलाहनों को साधने का नहीं। अपितु श्रीसीता जी के दुख को कम कर, उन्हें श्रीराम जी के पावन संदेश से आनंदित करने का है। उन्हें पता है, कि माता जी को, प्रभु की कथा के द्वारा ही शाँति प्राप्त हो सकती है। माता सीता जी ने तो कह ही दिया, कि मुझे किंचित भी विश्वास नहीं हो पा रहा, कि तुम सचमुच प्रभु के ही दूत हो। भला एक वानर और नर का मिलन कैसे हो सकता है? तब श्रीहनुमान जी ने वह सारी कथा कह सुनाई, जिसमें प्रभु ने वानरों पर कृपा की थी-
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‘नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें।।’
क्या खूब कथा थी, जिसमें न कोई संगीत था, न कोई प्रसाद ही बँटा। और न ही कथा व्यास का कोई सम्मान किया गया। उल्टे कथा व्यास पर संशय ही किया गया, कि भई तुम तो एक वानर हो। और तुम कह रहे हो, कि प्रभु ने वानर जाति वालों का संग किया? सीधे शब्दों में कहें, तो श्रीहनुमान जी को सीधे-सीधे बँदर कहा जा रहा है। लेकिन हमारे कथा व्यास कितने महान हैं, कि बुरा ही नहीं मान रहे। उल्टे वे तो पूरे तन मन व पूर्ण आस्था से, प्रभु की कथा सुना रहे हैं। कथा व्यास का ऐसा समर्पण, जब कथा में देखने को आया, तो देखिए, कथा का प्रभाव भी उच्च कोटि का हुआ। माता सीता जी को श्रीहनुमान जी पर भरोसा हो उठा-
‘कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रमबचन यह कृपासिंधु कर दास।।’
श्रीसीता जी ने जब जाना, कि श्रीहनुमान जी वास्तव में ही प्रभु के सच्चे सेवक हैं। तो उनके हृदय में, श्रीहनुमान जी को लेकर अत्यंत प्रेम उमड़ने लगा। श्रीराम जी को वे अपने आस पास ही महसूस करने लगी। उन्हें तो श्रीहनुमान जी के होने का प्रभाव यूँ लगा, कि मानों वे स्वयं विरह सागर में पूर्णतः डूब रही हैं, और श्रीहनुमान जी साक्षात जहाज बन कर वहाँ प्रकट हो गये-
‘हरि जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन तुलकावलि बाढ़ी।।
बूडत बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना।।’
माता सीता जी का हृदय अब व्याकुलता की उस तप्त भट्ठी की निरंतर जलन से बच निकला, जिसमें वे निरंतर मानों सदियों या युगों से जल रही थी। उन्हें लगा, कि आज कितने माह के पश्चात, कोई अपनों से भी अपना मिला है। ऐसा अपना, कि उसकी प्रत्येक मुद्रा व क्रम में, श्रीराम जी की उपस्थिति अंकित हो रही थी। जब से श्रीसीता जी, श्रीराम जी से विलग हुई थी, तब से आज तक, कोई ऐसा मिला ही नहीं था, जिससे वे प्रभु की कोई कथा कहा पाती, अथवा सुन पाती। प्रभु की कथा सुन, माता सीता जी को मानों, यूँ लग रहा है, कि आज मैं अपने सारे गिले-शिकवों का बोझ उतार दूँ। कम से कम मैं प्रभु तक, श्रीहनुमान जी के माध्यम से अपनी व्यथा तो पहुँचा दूँ। माता सीता जी, प्रभु श्रीराम जी को लेकर, कभी कोई बात आरम्भ कर देती हैं, तो कभी कोई। उनकी जिहवा तो एक है, लेकिन कहने के लिए प्रसंग, कोई एक नहीं, अपितु असंख्य हैं। कोई एक भी प्रसंग को वे पूर्णतः नहीं कह पाती। कभी बीच में रोने लगती, तो कभी प्रभु के किसी स्मरण को याद कर, अपने अधरों पर से मुस्कराहट तैरती देखती हैं। माता सीता कभी उलाहना देती हैं, कि नहीं-नहीं, प्रभु तो हमें भूल ही गए हैं। ऐसा न होता, तो क्या वे कभी हमें याद नहीं करते? अपने सेवक को सदा सुख देना तो उनका स्भाविक बान है। हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे-
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‘सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।’
अब तो माता सीता जी प्रभु श्रीराम जी के प्रेम भाव में इतनी बाँवरी व विवश सी हो रही हैं, कि उनके मुख से कोई वचन ही नहीं निकलता। नेत्रें में विरह का जल भरा हुआ, बाहर छलकता जा रहा है। श्रीहनुमान जी से, माता सीता जी का यह दुख, देखा नहीं जा रहा। उनसे माता सीता जी की परम व्याकुलता देखते ही नहीं बन रही। अंततः श्रीहनुमान जी अपने हृदय को संबल देते हुए, कुछ विनीत वचन कहने का प्रयास करते हैं। क्या कहते हैं श्रीहनुमान जी। उनके आगामी वचनों से श्रीसीता जी का कष्ट दूर होता है, अथवा श्रीहनुमान जी विफल सिद्ध होते हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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