Gyan Ganga: महाभारत को हिंदुओं के समस्त धार्मिक ग्रंथों में काफी पवित्र माना जाता है
फिर जब भीष्म (देवव्रत) को इस बारे में पता चलता है तब वह अपने पिता के प्रेम की खातिर माता सत्यवती को आजीवन अविवाहित रहने का वचन देते हैं। और उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि वह कभी हस्तिनापुर की राजगद्दी पर नही बैठेंगे।
ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ
महाभारत को सनातन धर्म का पांचवां वेद माना गया है। “महाभारतो नाम पंचमों वेद:” जिसकी रचना का श्रेय महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास जी को दिया जाता है। जिन्होंने 4वीं शताब्दी के दौरान इस महान ग्रंथ की रचना की थी। इसमें कुल 1,10,000 श्लोक हैं।
कहा जाता है कि महाभारत द्वापरयुग की रचना है, जिस युग में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया था। इसमें कुरु-पांडव वंश समेत ज्योतिषशास्त्र, खगोलशास्त्र, योगशास्त्र, धर्मशास्त्र और महाभारत युद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया है।
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इसलिए महाभारत को हिंदुओं के समस्त धार्मिक ग्रंथों में काफी पवित्र माना जाता है। प्राचीन काल में महाभारत जयसंहिता, भारत और जय महाकाव्य आदि नामों से प्रसिद्ध थी। तो चलिए आज से हम महाभारत की रहस्यमयी और पुण्यमयी कथाओं में प्रवेश करें।
अथ श्री महाभारत कथा अथ श्री महाभारत कथा
कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की
सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की
शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म संस्थापनार्थाये संभवामि युगे युगे।।
भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी
है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी
ये विश्व भारती है वीरो की आरती है
है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी
महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।
महाभारत कहानी की शुरुआत महाराज शांतनु के राज्यकाल से होती है। जोकि राजा कुरु के वंश में ही उत्पन्न हुए थे। महाराज शांतनु का विवाह गंगा माता से हुआ था। जिन्होंने विवाह से पहले महाराज शांतनु के समक्ष यह शर्त रखी थी कि वह उनसे तभी विवाह करेंगी। जब वह उन्हें यह वचन देंगे कि महाराज शांतनु उन्हें कभी किसी कार्य को करने के लिए मना नही करेंगे। गंगा माता की यह शर्त मानने के बाद महाराज शांतनु से उनका विवाह हो गया। महाराज शांतनु और माता गंगा से आठ बालक उत्पन्न हुए थे।
ऐसा कहा जाता है कि माता गंगा प्रत्येक बच्चे के जन्म के बाद उसे नदी में बहा देती थी। जिसके पीछे की वजह बच्चों का पिछले जन्म में शापित होना था। लेकिन जब माता गंगा अपने आठवे पुत्र को नदी में बहाने के लिए ले जा रही थी, तभी महाराज शांतनु ने उन्हें रोक दिया और माता गंगा का वहीं पुत्र आगे चलकर भीष्म (देवव्रत) के नाम से जाना गया। भीष्म को कौरव और पांडव पितामह कहकर संबोधित करते थे।
महाराज शांतनु के टोकने के बाद गंगा माता ने उन्हें बताया कि हमारे आठों पुत्र पिछले जन्म में वसु देवता के अवतार थे। जिन्हें गुरु वशिष्ठ ने उनकी गाय का हरण करने के लिए शाप दिया था। ऐसे में अपने सभी बालकों को शाप से मुक्त करने के लिए मैंने उन्हें नदी में बहा दिया था, लेकिन अंत में आपने मेरा वचन तोड़ दिया।
इसलिए अब मैं अपने पुत्र भीष्म (देवव्रत) को अपने साथ हमेशा के लिए ले जा रही हूं और इतना कहते ही गंगा माता वहां से चली गई। जिसके बाद महाराज शांतनु हर रोज गंगा माता से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगने नदी के किनारे जाया करते थे। फिर एक दिन माता गंगा भीष्म (देवव्रत) को हमेशा के लिए महाराज शांतनु के पास छोड़कर चली गईं । महाराज शांतनु अकेले ही भीष्म (देवव्रत) की परवरिश और देखभाल करने लगे और श्रेष्ठ गुरुजनों के मार्गदर्शन में उन्हें भलीभाँति शिक्षित किया तथा एक महान योद्धा बनाया।
एक बार की बात है जब महाराज शांतनु जंगल में शिकार करने गए थे। तब वहां उनकी मुलाकात सत्यवती (मत्स्यगंधा) से होती है। जिनसे उन्हें प्रेम हो जाता है। महाराज शांतनु सत्यवती के पिता से उनका हाथ मांगने जाते हैं तो सत्यवती महाराज के आगे एक शर्त रख देती हैं, कि वह उनसे तभी विवाह करेंगी, जब वह भीष्म (देवव्रत) के स्थान पर उनके गर्भ से जन्मे बालक को हस्तिनापुर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। लेकिन महाराज शांतनु को यह बिल्कुल मंजूर नहीं था और वह सत्यवती की शर्त ना मंजूर कर वापस राजमहल लौट आते हैं।
फिर जब भीष्म (देवव्रत) को इस बारे में पता चलता है तब वह अपने पिता के प्रेम की खातिर माता सत्यवती को आजीवन अविवाहित रहने का वचन देते हैं। और उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि वह कभी हस्तिनापुर की राजगद्दी पर नही बैठेंगे। ऐसे भीष्म प्रण और प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म हो गया। देवव्रत (भीष्म पितामह) ने यह भी प्रतिज्ञा कर ली कि वह अपने प्राण तब तक नहीं त्यागेंगे जब तक हस्तिनापुर पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हो जाता है। इसके बाद वह अपने पिता महाराज शांतनु और सत्यवती का विवाह करा देते हैं। अपने पुत्र के इस बलिदान के बदले में महाराज शांतनु भीष्म अर्थात (देवव्रत) को इच्छा मृत्यु का वरदान दे देते हैं।
आगे की कथा अगले प्रसंग में । --------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी
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