प्रभु श्रीराम से कब, कहाँ और कैसे हुई थी भक्त हनुमानजी की भेंट?
इधर श्री राम जी भी कैसी लीला कर रहे हैं? सर्व समर्थ हैं, अंतर्यामी व घट−घट की प्रत्येक धड़कन के स्वामी व साक्षी हैं। क्या उनसे छुपा है कि श्री सीता जी को तो रावण लंका में ले गया है। लेकिन तब भी उनके पावन श्रीचरण तो लंका की तरफ तो उठे ही नहीं।
नजरें दूर तलक अथक तलाश के पश्चात फिर से खाली टोकरी की तरह खाली ही थीं। प्रतीक्षा की एक भी घड़ी यह मानने को तैयार नहीं थी कि 'वे' नहीं आएंगे। इस घड़ी नहीं तो अगली घड़ी तो उनके आगमन से अवश्य ही सजी होगी। और इसी तरह हनुमान जी एक और दिन की आहुति देने को तैयार थे। परंतु श्री राम जी थे कि अपने पावन श्री चरणों की पद्चाप इस दिशा में कर ही नहीं रहे थे। पता नहीं क्यों श्री हनुमान जी के हृदय का विरह ताप श्रीराम जी को पिघला ही नहीं पा रहा था। लेकिन तब भी हर छुपते सूर्य के साथ ऐसा नहीं कि श्री हनुमान जी का उत्साह व प्रभु दर्शनों की हठ भी कहीं छुप जाते। अपितु अगली सुबह उगते सूर्य के साथ श्री हनुमान जी फिर से अपने मोर्चे पर पूर्णतः डटे मिलते।
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इधर श्री राम जी भी कैसी लीला कर रहे हैं? सर्व समर्थ हैं, अंतर्यामी व घट−घट की प्रत्येक धड़कन के स्वामी व साक्षी हैं। क्या उनसे छुपा है कि श्री सीता जी को तो रावण लंका में ले गया है। लेकिन तब भी उनके पावन श्रीचरण तो लंका की तरफ तो उठे ही नहीं। बल्कि वनों की अंधी दिशाओं में भी एक दिशा का पल्लू पकड़ कर बढ़े जा रहे थे। और वह दिशा सीधी ट्टष्यमूक पर्वत की गोद में जा कर समाप्त हो रही थी। क्या श्रीसीता जी यहीं थी? जिनके लिए श्री राम जी इतने व्याकुल थे। नहीं सज्जनों! यहीं पर तो पहाड़ी की एक चोटी पर दो प्यासे नयन अपनी पलकें बिछाकर बिछे हुए थे। कि कब श्री राम हमें अपने पावन दर्शनों से कृतार्थ करेंगे। जी हाँ! यह हनुमान जी ही थे। जिनकी तरफ श्री राम चुंबक की तरह खिंचे जा रहे थे। कैकई माता तो व्यर्थ ही प्रसन्न थी मानो उसने श्री राम जी को बनवास देकर कोई महान जंग जीत ली हो। जबकि श्री राम जी को अयोध्या का सिंहासन छिन जाने का गम ही नहीं था। क्योंकि उन्हें किसी लकड़ी के बने स्वर्ण जड़ित सिंहासन पर तो राज करना ही नहीं था। अपितु कुंदन से भी शुभ भक्तिमय हृदय ही उनका सिंहासन थे। और श्री हनुमान जैसे भक्त सा हृदयासन भला श्री राम जी को कहीं मिल ही कैसे सकता था?
इधर श्री हनुमान जी का रोम−रोम मानो नृत्य सा करने लगा था। पवन में चंदन सी महक का समावेश हो बह रहा था। प्रत्येक पक्षी का कंठ स्वतः ही राग−रागनीयों की धुन से सज गया। हर दिशा महकने सी लगी। ऐसा होना ही था। क्योंकि श्रीराम जी के पावन युगल चरण हैं ही ऐसे। जहाँ पड़ते हैं वहाँ सूखे मरुस्थल में भी अमृत कुण्ड फूट पड़ते हैं। उज़डे बागों में बहार स्पंदित हो जाती है। और पलक झपकते ही अमावस्या की काली डरावनी रात्रि मनभावन उजली पूर्णिमा में परिवर्तित हो जाती है। श्री हनुमान जी के साथ ऐसा ही कुछ घट रहा था। मृत से जीवन में नवीन प्राणों का संचार होने को था।
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सब सही दशा व दिशा में था कि तभी भक्त एवं भगवान् के इस पावन मिलन में एक बाध ने खलल सा पैदा कर दिया। यूं लगा मानो स्वादिष्ट व्यंजन का स्वाद चखते−चखते मुख में कंकड़ आ गया हो। जी हाँ! इससे पहले कि श्री हनुमान जी अपने प्रभु का दर्शन निहारते। सुग्रीव पहले ही श्री राम और लक्ष्मण जी को देख लेते हैं। लेकिन यहाँ दृष्टि की भिन्नता देखिए, श्री हनुमान जी को यही लगा कि अरे 'वे' भगवान श्री राम आ तो नहीं गए। और सुग्रीव भी यही सोचता है कि कहीं 'वे' आ तो नहीं गए लेकिन यहाँ सुग्रीव का 'वे' से तात्पर्य श्री राम नहीं बल्कि उसके काल बालि से था। कहाँ तो श्री राम एवं लक्ष्मण के शुभ आगमन से श्री हनुमान जी अत्यंत आनंददित व रोमांचित थे और कहाँ सुग्रीव भयक्रांत व संदेह की स्थिति में है। और इसी असमंजस की स्थिति में सुग्रीव श्री हनुमान जी को कहते हैं−
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधना।।
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई।।
अर्थात हे हनुमान! मैं तो बहुत डरा हुआ हूँ। क्योंकि वे दोनों पुरुष बल और रुप के धनी हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धरण करके जाओ, अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझा कर कह देना−
पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला।।
अर्थात यदि वे मन के मलिन बालि द्वारा भेजे हों तो मैं तुरंत इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊंगा।
बेचारे श्री हनुमान जी अवश्य ही दुविधा में फंस गए होंगे। क्योंकि श्री हनुमान जी को गोस्वामी तुलसीदास जी संत की संज्ञा देते हैं। और संत, सुग्रीव जैसे भीरू जीव को भगवान् के समीप लाने का कार्य करेंगे या यह इशारा करेंगे कि तुम प्रभु से दूर भाग जाओ। ऊपर से यह भी आदेश कि हे हनुमान आप अपना वेश बदल कर जाना और वह भी ब्राह्मण वेश। यह सुनकर श्री हनुमान जी का हृदय दुबिध में पड़ गया। क्योंकि जीव आखिर कब तक अपने वेश बदलता रहेगा। पहले तो चौरासी लाख योनियों में कभी नभचर, कभी जलचर और कभी थलचर जीवों के असंख्य वेश धरण किए। और मनुष्य बने तो स्वार्थ व विकारों के वशीभूत हो पल प्रतिपल इतने मुखौटे बदले कि जिसकी चर्चा ही मन को विचलित व अशांत करने वाली है। सुग्रीव निश्चित ही श्री हनुमान जी को अपने जमीर से विपरीत कार्य करने के लिए बाध्य कर रहे थे। कहाँ तो श्री राम जी के दर्शनों का परिणाम ही यह है कि जीव के भवबंधन कट जाते हैं। और कहाँ उन्हीं के सामने एक और नया रूप धरण करना पड़ रहा है। उस पर भी असमंजस की स्थिति यह कि वानर होते हुए भगवान् की परीक्षा लेने का धृष्टता करनी पड़ रही है। भगवान् को परीक्षा दी जाती है न कि उनकी परीक्षा ली जाती है। और एक मुख वाला ब्राह्मण बनकर तो छोडि़ए मैं सहड्ड मुख वाला भी बन जाऊं तो भी प्रभु की परीक्षा हेतु मेरे पास कण मात्रा भी सामर्थ्य नहीं है। वानर होकर ब्राह्मण होने की धृष्टता भला मैं क्यों करूँ। अपनी असमर्थता, अवगुण व हीनता उनसे क्यों छुपाऊँ। वैद्य सामने हो तो उसे अपने स्वस्थ व पुष्ट अंगों की जानकारी थोड़ी दी जाती है। अपितु कौन से अंग में रुग्णता है यह रोना रोया जाता है। और मुझ अभागे की कैसी विकट मनोस्थिति है कि ईश्वर सामने है और वानर जाति का होने के नाते उनके इशारों पर नाचने का सौभाग्य मिल रहा है तब भी नाचना सुग्रीव के इशारों पर पड़ रहा है। कैसी पीड़ादायक घड़ी कि जो ईश्वर अपनों से भी अपना है उसी के सामने बेगाना बनकर जाना पड़ रहा है। कहाँ तो प्रभु के आगे मुझे अपना यह दुखड़ा रोना था कि हे प्रभु! मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और आप से बिछुड़ कर क्यों भटक रहा हूँ। कहाँ प्रभु से उलटा यह प्रश्न पूछना पड़ेगा कि आप कौन हो और इन वनों में क्यों भटक रहे हो−
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। क्षत्री रुप फिरहु बन बीरा।।
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।।
हे वीर! साँवले एवं गोरे शरीर वाले आप कौन हैं जो क्षत्रिय के रुप में आप वन में विचरण कर रहे हैं। हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण से वन में विचर रहे हैं।
सज्जनों क्या श्री हनुमान जी प्रभु श्री राम जी की सच में परीक्षा लेते हैं? या सीधे उनके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः
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