Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था- कौन पुरुष गुणों से भरपूर होता है
भगवान कहते हैं, हे कुन्ती नन्दन ! रजोगुण राग, कामना और आसक्ति से उत्पन्न होता है। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है। रजोगुण की अधिकता होने पर मनुष्य की तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है।
अर्जुन ! प्रकृति के नियमों को कोई नहीं बदल सकता......
हाँ, एक ही मार्ग है खुद को बदलो।
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि, जो मनुष्य सभी चर-अचर प्राणियों में समान भाव से एक ही परमात्मा को देखता है वह भगवान के परम-धाम को प्राप्त करता है। आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं---
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श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।1।।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! अब मैं ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को कहता हूँ, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।2।।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मनुष्य मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। वह सृष्टि के आरंभ में पुनः जन्म नहीं लेता और न ही प्रलय काल अर्थात सृष्टि के अंत में दुखी होता। महा प्रलय के समय, समुद्र में बाढ़ आ जाने से धरती डूब जाती है। चौदह लोकों में हाहाकार मच जाता है। सभी प्राणी दुखी हो जाते हैं पर उन ज्ञानी महापुरुषों को कोई दुख नहीं होता। अब आगे के श्लोक में शरीर की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहते हैं---
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।4।।
हे अर्जुन ! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज का स्थापन करने वाला पिता हूँ।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।5।।
हे अर्जुन ! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। वास्तव में देखा जाय तो ये तीनों गुण अपनी तरफ से किसी को भी नहीं बाँधते, बल्कि मनुष्य ही धन, परिवार और शरीर की ममता में इन गुणों के साथ संबंध जोड़कर बंध जाता है। स्वतंत्र होता हुआ भी जीव सांसरिक मोह-माया की जंजीर में बंध जाता है।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।।6।।
हे निष्पाप, अर्जुन ! उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण श्रेष्ठ और निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख और ज्ञान के सम्बन्ध से मनुष्य को बाँधता है। कहने का अभिप्राय यह है कि रजोगुण और तमोगुण की तरह सत्त्वगुण में मलिनता नहीं है। यह रजोगुण और तमोगुण की अपेक्षा सात्विक और निर्मल है।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।।7।।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।8।।
भगवान कहते हैं, हे कुन्ती नन्दन ! रजोगुण राग, कामना और आसक्ति से उत्पन्न होता है। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है। रजोगुण की अधिकता होने पर मनुष्य की तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है।
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सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण अज्ञान और मूर्खता से उत्पन्न होता है। वह इस जीवात्मा को उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होने देता, यह तमोगुण प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा मनुष्य को बाँधता है।
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।।9।।
हे भरत वंशी अर्जुन ! सत्त्व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में लगाता है, अर्थात अच्छा कर्म नहीं करने देता है।
यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।14।।
जब सतोगुणी मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम और दिव्य स्वर्गादि लोकों में जाता है।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।15।।
रजोगुणी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है, तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि नीच योनियों में उत्पन्न होता है।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।18।।
सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।(18)
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।19।।
जिस समय द्रष्टा तीनो गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।(19)
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।20।।
यह शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।(20)
अर्जुन उवाच
कैर्लिगैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।21।।
अर्जुन बोलेः इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो ! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत सकता है।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।।22।।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्ये योऽवतिष्ठति नेंगते।।23।।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:।24।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।25।।
श्री भगवान बोलेः हे अर्जुन ! जिस पर सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण का बिलकुल प्रभाव नहीं पड़ता, जिस पर उल्टी-सीधी परिस्थितियों का कोई असर नहीं होता तथा जिसकी शांति कभी भंग नहीं होती, जो कार्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति में भी द्वेष और आकांक्षा नहीं करता, जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है और उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में भी समान भाव वाला है। जो मान और अपमान में सम है, दोस्त और दुश्मन के पक्ष में भी समान है तथा सभी कर्मों के कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है। गुणातीत तो बिरला ही कोई सिद्ध संत हो सकता है। हम मनुष्य तो अपने को तुच्छ मानते हुए प्रभु से यही कह सकते हैं---
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग अंग बॉस समानी,
प्रभु जी, तुम घन, बन हम मोरा,
जैसे चितवत चंद चकोरा,
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी……….
प्रभु जी तुम मोती हम धागा,
जैसे सोने में सुहागा,
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी……….
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती,
जाकी ज्योति जले दिन राती,
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी….
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------
जय श्री कृष्ण ----------
- आरएन तिवारी
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