Gyan Ganga: लक्ष्मणजी ने सुग्रीव के पलंग पर बैठकर इस तरह उड़ा दी थी उसकी नींद
सुग्रीव यह सब नहीं कर पाया था और यही पथभ्रष्ट व दिशाहीन हुई सुग्रीव की जीवन नौका को, सही दिशा व दशा दिखाने हेतु ही प्रभु ने श्रीलक्ष्मण जी को भेजा है। जैसा कि हम चिंतन कर रहे थे कि श्री हनुमान जी ने श्रीलक्ष्मण जी को सुग्रीव के पलंग पर बिठा दिया।
अनेकों दिव्य व रसपूर्ण प्रसंगों का पीछा करते हुए हमने अपने मन को, आनंद सागर की गहराइयों में गहरी से गहरी डुबकियां लगवाई हैं। प्रभु की प्रत्येक लीला में, प्रत्येक बार कुछ ऐसा दिव्य मिला कि हमें जीवन जीने का कोई नया ही सूत्र हाथ लगा। कारण कि प्रभु के जीवन चरित्र की नन्हीं-सी-नन्हीं कड़ी में भी, महान से महान संदेश सिमटे होते हैं। रामायण कोई मनोरंजन के लिए लिखी गई कोई सांसारिक प्रेम गाथा नहीं है। अपितु त्याग, तपस्या व आध्यात्म की मीठी चाश्नी का सुंदर मिश्रण है। अब विगत अंक की कड़ी को ही ले लीजिए। श्री लक्ष्मण जी को श्रीहनुमान जी भीतर ले जाकर सुग्रीव के पलंग पर जाकर विराजित कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से हमें यह सामान्य-सी क्रिया भासित होती है। लेकिन इस नन्हीं-सी क्रिया में भी गजब का आध्यात्मिक संदेश करवटें ले रहा है। संदेश यह कि श्री लक्ष्मण जी सुग्रीव को जगाने आये हैं। बाहरी दृष्टि से देखें तो सुग्रीव सोया थोड़ी न है। अपितु वह तो रात−रात भर जाग−जाग कर अपने विषय भोगों की तृप्ति करने में मस्त है। बारिशों के दिनों में जैसे चीटियां अपने अंडों व भोजन को संरक्षित कर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने में दिन रात संलग्न रहती हैं, मानो सुग्रीव भी विषय भोग विलासों में ऐसी ही मेहनत कर रहा था। उसे लग रहा था कि जीवन तो बहुत छोटा पड़ रहा है। क्योंकि विषय भोगने की सुची में अनंत विषय हैं और जीवन में प्रौढ़ अवस्था आने में भी अधिक समय शेष दिखाई नहीं पड़ रहा। तो इतने कम समय में मैं कैसे सब रस भोगों का सुख प्राप्त कर पाऊँगा। सुग्रीव को तनिक भी चिंता नहीं कि मृत्यु को विलाप व रुदन की घड़ी न बनाकर, अगर उत्सव में परिवर्तित करना है, तो जीवन रहते−रहते आध्यात्मिक जगत के दिव्य रहस्यों से अवगत होना होगा। ऐसा नहीं कि इसके लिए उसे अपने परिवार व संसार का त्याग करना होगा। अपितु अपने सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए ही प्रभु में विलीन होना होता है।
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दुर्भाग्य से सुग्रीव यह सब नहीं कर पाया था और यही पथभ्रष्ट व दिशाहीन हुई सुग्रीव की जीवन नौका को, सही दिशा व दशा दिखाने हेतु ही प्रभु ने श्रीलक्ष्मण जी को भेजा है। जैसा कि हम चिंतन कर रहे थे कि श्री हनुमान जी ने श्रीलक्ष्मण जी को सुग्रीव के पलंग पर बिठा दिया। क्या किष्किंधा नगरी में आसनों का इतना अकाल पड़ गया था, जो श्रीलक्ष्मण जी के लिए पलंग को ही आसन बनाना पड़ गया। जी नहीं। वास्तव में श्रीलक्ष्मण जी को पलंग पर ही बिठाना श्रेयष्कर था। कारण कि यह वह पलंग था, जिस पर सुग्रीव चर्म चक्षुयों से तो भले बहुत कम सोया हो, लेकिन आत्मिक स्तर पर तो वह अतिअंत गहरी निद्रा में ही था। कारण स्पष्ट था कि उसे प्रभु का भय ही समाप्त हो गया था। और प्रभु ने श्रीलक्ष्मण जी की सेवा भय दिखाने की ही तो लगाई थी। क्योंकि जो भी भयग्रस्त जीव होगा, उसे भले ही सोने के सिंहासन पर भी सोने को कहो, तब भी वह सोयेगा नहीं, क्योंकि भय सर्वप्रथम निद्रा का ही हरण करता है। पूरे घटनाक्रम का तात्विक अध्ययन करेंगे, तो हमारे श्रीलक्ष्मण जी हैं वास्तव में श्री शेषनाग के अवतार। साधारण भाषा में कह सकते हैं कि वे जगत में समस्त सर्पों के बाप हैं। तनिक कलपना कीजिए कि आप अपने पलंग पर सोये हुए हैं। और सुंदर−सुंदर स्वप्नों का आनंद ले रहे हैं। ऐसा रस आ रहा है कि उसे आप किसी भी स्थिति में खोना नहीं चाहते। कोई आप को उठाने का प्रयास भी करे, तो उसे आप मारने दौड़ते हैं। मानो आप किसी की सुनते ही नहीं। सही भी है। भला इतनी सुंदर निद्रा में कौन खलल चाहता है। लेकिन मान लीजिए कि आपको अपने तकिये के नीचे कुछ न कुछ होने का अहसास होता है। आप ने सोचा होगा, चलो हमें क्या लेना है कि तकिये के नीचे क्या है, और क्या नहीं। हम तो अपनी निद्रा देवी का पूजन करते रहें बस। थोड़ी देर बाद आपको फिर लगा कि नहीं−नहीं, कुछ तो सुरसुराहट हो रही है। इस बार आप उसे चाहते हुए भी नकार नहीं पा रहे हैं। आपको लगता है कि यह गर्म−गर्म सी श्वास किसकी है? कहीं मेरा भ्रम तो नहीं? क्यों न मैं देख ही लूं। अब आप तकिया उठा ही लेते हैं। तकिया उठाने के पश्चात अब जो दृश्य आपके समक्ष है, उसे देख निश्चित ही आपके प्राण सूखने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रही होगी। कारण कि तकिये के नीचे कुछ और नहीं, अपितु एक विषैला सर्प आघात करने को तत्पर है। अब आप से पूछा जाये कि क्या अब आपको अब नींद आयेगी? आपकी आँखों के वे सुंदर स्वप्न, क्या अब भी आपको आनंद की अनुभूति करवायेंगे। निश्चित ही हमारा उत्तर नहीं में होगा। क्योंकि सर्प की उपस्थिति ही ऐसी है कि आप और मैं क्या, संसार के किसी भी साधरण व्यक्ति को निद्रा नहीं आयेगी।
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श्री हनुमान जी ने सुग्रीव के संदर्भ में इसी सिद्धांत का तो प्रतिपादन किया। वे सुग्रीव के पलंग पर साक्षात शेषनाग के अवतार श्रीलक्ष्मण जी को विराजमान कर देते हैं। कोई साधरण नाग का दंश तो हो सकता है कि इतना प्रभावी न हो। लेकिन शेषनाग के मृत्यु कारक दंश पर कैसे संदेह किया जा सकता था। श्रीहनुमान जी को पता है कि हमारे राजा सुग्रीव महाराज तो भय के पुजारी हैं ही। और श्रीलक्ष्मण जी को सुग्रीव के पलंग पर बिठाने का सीधा-सा तात्पर्य है कि जब−जब सुग्रीव का मन पलंग पर सोने का करेगा, और तब−तब सुग्रीव जब श्रीलक्ष्मण जी को पलंग पर बैठा देखेगा, तो सुग्रीव की निद्रा स्वतः ही नौ दो ग्यारह हो जाया करेगी। सुग्रीव जगा रहेगा तो अपने आप वह विषयों से रहित रहेगा। सज्जनों निश्चित ही यह घटना छोटी-सी प्रतीत हो। लेकिन एक सांसारिक जीव के लिए सफल व श्रेष्ठ आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए यह घटना निःसंदेह अति उत्तम है। जिसमें हमें यह प्रेरणा मिलती है कि भक्तिपथ पर चलते हमको अनेकों ही विषयों से दो−दो हाथ करना पड़ता है। ऐसी स्थिति आती है कि हमें भक्तिपथ से गिर ही जाना होता है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए। निःसंदेह ही हमें सुग्रीव के जीवन में घटी इस सुंदर घटना को अपने चरित्र में चरित्रार्थ करना चाहिए। पहला तो किसी भी स्थिति में संत का आश्रय नहीं छोड़ना चाहिए। और दूसरा वैराग्य को अपने जीवन में सदा रखना चाहिए, भले ही हम सोने के लिए अपने पलंग पर क्यों न जा रहे हों। तब भी संत और वैराग्य हमारे जीवन के अभिन्न अंग होने चाहिए। यह सब कर लिया तो हमारा भक्तिपथ निश्चित ही ठोस व अडिग रहेगा, इसमें किंचित भी संदेह नहीं।
अब सुग्रीव श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष उपस्थित होता है अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः
-सुखी भारती
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