Gyan Ganga: जानिये किसने हनुमानजी को रावण को मारने से रोक दिया था
जाम्बवान ने कहा कि है तात! तुम जाकर इतना ही करो कि श्रीसीता जी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्रीराम जी ही अपने बाहुबल से ही वानरों को साथ ले, श्रीसीता जी को वापिस ले आयेंगे। साथ में समस्त राक्षसों का संहार भी करेंगे।
कितने ही दिवस हो गए हैं, वानर एक समस्या से निकल ही नहीं पा रहे थे। और वह समस्या थी कि कोई भी वानर, सागर पार जाने में स्वयं को समर्थ पा ही नहीं रहा था। यह समस्या ऐसा नहीं कि उन वानरों की ही है। वास्तव में हम सभी मानवों का ध्येय भी तो भवसागर पार कर परमात्मा की शाश्वत भक्ति को पाना ही है। और कैसी विडम्बना है कि हममें से भी जब कहा जाता है कि हमें उस ईश्वर को तत्व से पाना है, तो हम भी कैसे तपाक से कहते हैं, कि न जी! हम भला उस भगवान को कैसे पा सकते हैं। भला हममें ऐसा सामर्थ्य कहां। और यह कह हम फिर से संसार की माया में संलग्न हो जाते हैं। हम मात्र अपने लिए ही नहीं, अपितु प्रत्येक मानव के लिए भी यही धारणा बना लेते हैं, कि भगवान को तो कोई भी नहीं पा सकता है। हमारे भीतर असमर्थता का ऐसा कीड़ा बैठ जाता है, कि हमें संसार का प्रत्येक प्राणी भी ऐसा ही असमर्थ ही प्रतीत होने लगता है। ऐसे में हमारी मनःस्थिति भी ऐसी हो जाती है, कि हमें जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य तो सागर पार करने-सा दुर्गम लगता ही है। साथ में हमारे समक्ष अगर कोई छोटा-सा गड्ढा भी आता है, तो उसे भी हम सागर ही मान कर सदैव पीछे हटते रहते हैं। परिणाम यह निकलता है, कि हम अपने जीवन की नैया बीच भंवर में डूबो बैठते हैं। वानर भी कुछ ऐसा ही करने जा रहे थे। लेकिन इन सब वानरों में श्री हनुमान जी रूपी साक्षात प्रभु भी बैठे थे। और आश्चर्य की बात कि वे भी मौन थे। आखिर वे तो सबके सामने प्रकट हो सबको हौसला दे सकते थे, कि हे मेरे वानर भाईयो! तुम लोग क्यों व्यर्थ चिंतित होते हो। मैं हूं न! मैं सागर पार करके सबकी समस्या का समस्या का समाधान करके लाऊंगा। लेकिन श्रीहनुमान जी ऐसा भी कुछ नहीं करते। और सबसे अलग बिल्कुल शांत व मौन होकर बैठे रहते हैं। मानो कहना चाह रहे हों, कि जब समूह के समूह भी प्रतिक्षण नकारात्मक विचार देते रहें, और सदैव गिरी हुई ही बात करें। तो सफलता हाथ लगने वाले सूत्र भी अदृश्य हो जाते हैं। हमारी समस्याओं के बंद ताले की ‘मास्टर की’ हमारी हथेली पर ही होती है, और हमें उसका पता ही नहीं होता। ठीक वैसे जैसे श्री हनुमान जी समाधानकर्ता के रूप में उपलब्ध तो थे, पर हर कोई उनसे अनजान था। लेकिन इस सुंदर प्रसंग में हम एक बात और देखते हैं, कि इतने नकारात्मक वातावरण में भी जाम्बवान जैसा कोई तो निकल ही आया, कि जिसने पहचान लिया कि अरे! हम भी कितने पागल हैं। हमारे बीच ही श्रीहनुमान जी के रूप में हमारे कष्टहर्ता उपस्थित हैं, और हम हैं कि हम कहाँ-कहाँ खोज रहे हैं। विगत अंक में हमने विस्तार से पढ़ा था कि जाम्बवान श्रीहनुमान जी को याद कराते हैं कि आप ही तो हो, जो यह कार्य कर सकते हो। आप का तो जन्म ही इसलिए हुआ है। केवल यह कार्य ही क्यों? संसार में ऐसा कौन-सा कार्य है, जो आपसे नहीं हो सकता। और हम देखते हैं, कि श्रीहनुमान जी का शरीर अचानक पर्वताकार होने लगा। स्वर्ण की भांति दैदीप्यमान होने लगा। वे जोर जोर से दहाड़ने लगे। और क्या घोषणा करने लगे-
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‘सहित सहाय रावरहि मारी।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ ताही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।।’
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे जाम्बवान! तुम देखते रहो। मैं सागर तो पार करूँगा ही, सागर में रावण को उसके सहायकों सहित मारकर, साथ में त्रिकूट पर्वत को उखाड़ कर यहाँ ले आऊंगा। बस मैं पूछ रहा हूँ, तुम मुझे उचित परामर्श दो, कि मैं क्या करूँ। जाम्बवान जो भी परामर्श दें। आगे चलकर जाम्बवान निःसंदेह अपना मत श्रीहनुमान जी को बताते हैं।
लेकिन अभी घटी इस घटना में कितना मार्मिक व गहरा संदेश छिपा हुआ है। वह यह कि मात्र आप ही नहीं, अपितु आपके साथ आपके समूह वाले भी, अगर निराशा के उच्चतम स्तर पर भी हों। लेकिन भूले से भी इस पूरी भीड़ में एक जाम्बवान जैसा संत आपके पास हो। तो समझ लीजिएगा कि आपके उस पार जाने की संभावना अभी पूर्णता जीवित है। वह वहाँ से भी मार्ग खोज लायेगा, जहाँ से आशा की किरण शून्य से भी कम प्रतीत होती हो। इसलिए हम इस पहलू को चाह कर भी नज़रअंदाज नहीं कर सकते कि श्रीरामचरितमानस में कोई भी प्रसंग, मात्र कोई मनोरंजन का साधन न होकर, हमारी समस्त पीड़ाओं का समाधान है। जीवन में कोई सच्चा साधू हो, तो वे हमारा मार्ग प्रश्स्त कर हमें मंगल भविष्य की और ले जा सकते हैं। जाम्बवान ने जब सुना कि श्रीहनुमान जी तो समस्त लंका पुरी उजाड़ने की ही बात कर रहे हैं। रावण को मार, श्री सीता जी को लाने का संकल्प कर रहे हैं। तो ऐसे में तो श्रीराम जी के अनेकों भावी लीलाओं का समय से पूर्व ही समापन हो जायेगा। तो जाम्बवान कहते हैं-
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‘इतना करहु तात तुम्ह जाई।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।
तब निज भुज बल राजिवनैना।
कौतुक लागि संग कपि सेना।।’
जाम्बवान ने कहा कि है तात! तुम जाकर इतना ही करो कि श्रीसीता जी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्रीराम जी ही अपने बाहुबल से ही वानरों को साथ ले, श्रीसीता जी को वापिस ले आयेंगे। साथ में समस्त राक्षसों का संहार भी करेंगे।
श्रीहनुमान जी ऐसा ही करते हैं। अब श्रीहनुमान जी लंका नगरी हेतु उड़ान भरेंगे। और अगले अंक से ‘सुंदर काण्ड’ का भव्य शुभारम्भ होगा। जिसका कि समस्त पाठक गणों को बड़ी बेसबरी से इन्तजार था। क्या होता है आगे, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
-सुखी भारती
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