Gyan Ganga: कर्मों का फल निश्चित रूप से हर किसी को भोगना ही पड़ता है
श्रीराम जी सुग्रीव की ओर देखते हुए यह वाक्य कह रहे हैं। और साथ में यह भी चाह रहे हैं, कि जीव को इसके पीछे का कारण भी पता लग जाये। प्रश्न यह है, कि जगत में निकृष्ट व अगाध पाप करने वाले जीवों को, मेरी शरण पाकर, क्या अपने पापों का फल नहीं भोगना होता?
भगवान श्रीराम जी ने सुग्रीव के मन की थाह पा ली थी। वे तो समझ गए थे कि सुग्रीव के मन में श्रीविभीषण जी के संबंध में अतिअंत ही नकारात्मक विचारों ने आकार ले रखा है। सुग्रीव यह तो देख ही नहीं पा रहे कि कैसे-कैसे श्रीविभीषण जी ने हमें समर्पित होकर, रावण के विरुद्ध लोहा लिया है। रावण के प्रति खुले रूप में विद्रोह करना, साक्षात मृत्यु को दावत थी। लेकिन हमारी खातिर श्रीविभीषण जी ने, अपनी नन्हीं जान की भी चिंता नहीं की। वे अपना सब राज-पाट, यश व वैभव को लात मार कर, हमारी शरणागत होने पधारे हैं। लगता है सुग्रीव को अपने साथ हुए, बालि के अन्याय भूल गए हैं। सुग्रीव को अपने साथ घटित प्रत्येक हिंसा व अत्याचार तो याद है, लेकिन वैसा ही अत्याचार, श्रीविभीषण जी के साथ भी घटा है, इसका उन्हें आभास तक नहीं है। संसार में जीव का यही स्वभाव, उसे आध्यात्मिक व नैतिक स्तर पर, ऊँचा उठने में बाधक बनाये रखता है। जीव दूसरे का सुख व प्रसन्नता देख, स्वयं में वह सुखद अनुभव ढूंढ़ने का तो अथक प्रयास करता है। लेनिक स्वयं को मिली पीड़ा का अनुभव, कभी भी किसी अन्य प्राणी में महसूस करने का प्रयास नहीं करता।
सुग्रीव श्रीविभीषण जी के प्रति, यह भाव भी तो रख सकता था, कि बेचारे विभीषण जी के साथ तो घोर अन्याय हुआ है। मुझे भी मेरे भाई बालि ने जब, मुझे मेरे घर से निकाल दिया था, तो मुझे कैसे छुप-छुप कर भयभीत हो, कंद्रायों में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा था। यह तो धन्य हैं श्रीराम जी। जिनकी कृपा से मुझे, अनाथ व दीन पर उनकी दया के फलस्वरुप, आज राज-पाट मिले हुए हैं। नहीं तो मैं यूँ ही दर-दर की ठोकरें खाने को विवष होता। ठीक वैसी ही प्रस्थिति
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सुग्रीव को निःसंदेह ही ऐसा सकारात्मक सोचना चाहिए था। लेनिक दुर्भाग्यवश सुग्रीव श्रीविभीषण जी के प्रति दण्ड़ भाव की नीति अपनाये बैठा था। जो कि श्रीराम जी के दया व प्रेम की शिक्षा के बिल्कुल विपरीत था। सुग्रीव का कहना यहीं तक ही सीमित नहीं थी। वह तो श्रीराम जी को यहाँ तक कह देता है, कि हे महारज! मेरा तो यही मत है, कि आप दसानन के इस दुष्ट भाई को बाँध कर रख लीजिए।
श्रीराम जी ने सुना तो एक बार तो वे निश्चित ही सोच में पड़ गए होंगे। कारण कि श्रीविभीषण जी के बारे में, वानरों ने उन्हें यह भी तो सूचना दी थी, कि दसानन का भाई विभीषण, अवश्य ही रावण का दूत बन कर आया हो सकता है। अगर श्रीविभीषण जी वास्तव में रावण के दूत निकले, तो नीति के आधार पर, सुग्रीव का श्रीविभीषण जी को ऐसे बँधी बनाकर रख लेने का मत, क्या हमारे सिद्धांतों के विपरीत नहीं होगा? क्योंकि दूत को बँधी बनाना, लंकापति रावण का सिद्धांत व आदर्श तो हो सकता है, लेकिन कभी रघुकुल के संस्कारों की यह रीति कदापि नहीं हो सकती। रावण ने श्रीराम जी के दूत, श्रीहुनमान जी को बँधी बनाने का जो अपराध किया, क्या सुग्रीव द्वारा, श्रीराम जी के दरबार में भी उसे दोहराया जायेगा? नहीं ऐसा तो स्वपन में भी संभव नहीं था।
श्रीराम जी ने, फिर भी सुग्रीव को यह नहीं कहा, कि हे सुग्रीव आपने तो बिल्कुल ही हमारे आदर्श, संस्कारों व धर्म के विरुद्ध आचरण किया है। कारण कि, क्या अब हम दूत को भी बँधी बनायेंगे? श्रीराम जी इतने उद्दार हैं, कि सुग्रीव की भावना को भी सम्मानजनक रूप से व्यक्त करते हैं। प्रभु श्रीराम सुग्रीव को गंभीरता पूर्वक बोले-
‘सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।’
श्रीराम बोले, कि हे सखा! एक सेनापित और राजा होने के नाते, आपने नीति तो बहुत अच्छी बताई। लेनिक शायद आप हमारे स्वभाव की एक बात से अनभिज्ञ रह गए। वह यह कि अगर कोई भी जीव हमारे चरणों में आकर शरणागत हो जाये। और हमें समर्पित होने की विनति करे, तो यह हमारा अतिअंत ठोस व कठिन प्रण है, कि हम उस शरणागत को, किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं सकते। भले वह हमारा परम् शत्रु भी क्यों न हो। यहाँ तक कि अगर किसी को करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप भी क्यों न लगा हो। उसके पापों के भयंकर भार को देखते हुए, ब्रह्मा भी भले उसे त्याग दे, लेनिक तब भी हम उसे शरणागत में आया देख, स्वपन में भी त्याग नहीं सकते-
‘कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।’
श्रीराम जी सुग्रीव की ओर देखते हुए यह वाक्य कह रहे हैं। और साथ में यह भी चाह रहे हैं, कि जीव को इसके पीछे का कारण भी पता लग जाये। प्रश्न यह है, कि जगत में निकृष्ट व अगाध पाप करने वाले जीवों को, मेरी शरण पाकर, क्या अपने पापों का फल नहीं भोगना होता? निश्चित ही कर्मों का फल तो किसी को भी भोगना पड़ता है। लेकिन अगर वे पाप कर्मों के बीज़ ही नष्ट हो जायें। उनका कोई अस्तित्व ही न बचे। तो फिर किसी कर्म का फल भोगना, अथवा नहीं भोगने का तो कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। बस यही घटनाक्रम तो, मेरी शरणागत हुए जीव के साथ होता है। जीव शरणागत भाव से जैसे ही मेरे समक्ष आता है, उसके एक नहीं, अपितु अनेकों-अनेकों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं-
‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।’
श्रीराम जी सुग्रीव को संबोधित करते हुए कहते हैं, कि हे सुग्रीव माना कि सुरक्षा की दृष्टि से तुम्हारा सोचना भी उचित है। लेकिन अगर श्रीविभीषण जी में कपट होता, अथवा वह हमारा अहित भाव सोच कर हमारे पास आता, उसमें कुछ विशेष वाले गुण कतई न होते।
श्रीराम जी श्रीविभीषण जी में कौन-कौन से गुणों का बखान करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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