Gyan Ganga: हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम का संदेश कैसे प्रेषित किया?
श्रीहनुमान जी ने माता सीता जी के हृदय के धरातल पर जाकर यह समझ लिया था, कि मईया को इस बात से इतना दुख नहीं, कि प्रभु अभी तक उन्हें लेने क्यों नहीं आये। अपितु यह दुख अधिक है, कि प्रभु ने हमें तन से तो अकेला छोड़ा ही, साथ में मन से भी अकेला छोड़ दिया।
माता सीता जी इतनी व्याकुल हैं, कि बातों ही बातों में, वे श्रीहनुमान जी के समक्ष एक ऐसी बात कह सुनाती हैं, कि मानों माता सीता को, यह प्रतीत होने लगा था, कि प्रभु को शायद उनका स्मरण भी हैं, अथवा नहीं-
‘बचन न आब नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।’
साधक को जब यह लगने लगे, कि मेरा स्वामी मुझे स्मरण ही नहीं कर रहा, तो ऐसे जीवन का भला फिर क्या महत्व? किसी भी साधक का यह विचार मंथन योग्य भी है। क्योंकि ऐसी अवस्था में तो निश्चित ही अपने स्वामी की याद में, यूँ तीले की भाँति सूखने का कोई लाभ प्रतीत नहीं होता। एक साधक के लिए, यह कोई कम हौंसले की नींव थोड़ी न होती है, कि प्रभु उसे अपनी नज़र में रखते हैं। इस एक बात के दम पर तो, साधक अपना संपूर्ण जीवन त्याग व तपस्या की तपती भट्टी में जला देता है। माता सीता जी के जीवन में, साधकता का महल, मानों अपनी नींव से खिसक सा रहा था। माता सीता को इस प्रकार उदास व निराश देखकर, श्रीहनुमान जी बड़ी की मृद भाषा में बोले-
‘देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।’
श्रीहनुमान जी ने माता सीता जी के हृदय के धरातल पर जाकर यह समझ लिया था, कि मईया को इस बात से इतना दुख नहीं, कि प्रभु अभी तक उन्हें लेने क्यों नहीं आये। अपितु यह दुख अधिक है, कि प्रभु ने हमें तन से तो अकेला छोड़ा ही, साथ में मन से भी अकेला छोड़ दिया। प्रभु की और से अब तो, कोई भूला भटका पवन का झोंका तक भी, उनका कोई संदेश नहीं पहुँचाता। निश्चित ही जानकी मईया की मनःस्थिति ऐसी है, कि मानों कोई बहुत अधिक बीमार हो, और उसका परम स्नेही ही उसकी ख़बर लेने में संकोच कर दे। क्या ऐसे में उस बिमार व्यक्ति का मन नहीं टूटेगा? वह तो कहेगा ही न, कि मेरे स्नेही ने मुझे भुला ही दिया है। लेकिन ठीक उसी समय अगर उसे पता चले, कि उसका स्नेही तो उससे भी दुगना बीमार है, तो निश्चित ही पहले व्यक्ति का अपने स्नेही के प्रति क्रोध तो शाँत होगा ही होगा। साथ में उसके प्रति सहानुभूति और स्वयं के प्रति एक ग्लानि का भाव भी उत्पन्न होगा। क्योंकि उसे स्वयं से ही उलाहना होगा, कि अरे! मैं कितना अनुचित सोचता रहा, कि मेरे स्नेही के हृदय में प्रतिकूल परिवर्तन हो गया है। जबकि वास्तविक्ता में मेरा स्नेही तो मुझसे भी दोगुना बीमार है। श्रीहनुमान जी ने भी माता सीता जी को कुछ ऐसे ही घटनाक्रम से परिचित करवाया। श्रीहनुमान जी माता सीता जी से बडे़ ही प्रेम व सजल नेत्रें से बोले। हे माता! श्रीराम जी वैसे तो, श्रीलक्ष्मण जी सहित कुशल से ही हैं। उन्हें भला तीनों तापों में से कौन सा ताप है, जो उन्हें प्रताडि़त करने का साहस कर सके। लेकिन तब भी उनके मन की पीड़ा का कोई अन्त नहीं है। यह सुन कर आप आश्चर्य मत करिएगा, कि जब उन्हें तीनों तापों का भय ही नहीं, तो कौन से ताप से वे पीडि़त हैं। वास्तव में, प्रभु श्रीराम जी को स्वयं का दुख नहीं, अपितु उन्हें तो आपका दुख ही मारे जा रहा है। आप तो नाहक ही यह सोच-सोच कर भ्रम में जीती रही, कि प्रभु आपको भूल गए, और यह मान बैठी, कि शायद उन्होंने आपको विसार दिया। आपको लगा कि अब प्रभु आपको प्रेम ही नहीं करते। जबकि सत्य तो यह है, कि प्रभु के मन में तो आपसे भी दूना प्रेम बसता हैं-
‘मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।’
जैसे ही माता सीता जी ने, श्रीहनुमान जी के यह प्रिय वचन सुने। तो मानों किसी बहुत विशाल व सुंदर महल को, गिरते-गिरते संबल प्राप्त हो गया हो। उनके हृदय के तपते भाव अँगारों पर मानों किसी ने शीतल जल के कुछ छींटे छिड़क दिये हों। श्रीहनुमान जी ने भी देखा, कि माता सीता जी का पावन हृदय, अब प्रभु के संदेश को ग्रहण करने हेतु तत्पर है। श्रीहनुमान जी सजग होकर कहते हैं, कि हे माता! अब आप धीरज धरकर श्रीरघुनाथ जी का पावन संदेश सुनिए। श्रीहनुमान जी ने संदेश सुनाना अभी आरम्भ भी न किया, कि उनकी स्वयं का हृदय ही भाव विभोर हो उठा। वे प्रेम से गद्गद हो उठे, और उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओें का जल भर आया-
‘रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननि धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।’
क्या सुंदर संदेश वाहक हैं श्रीहनुमान जी। वे आजकल के संदेश वाहक की भाँति थोड़ी न हैं, जिन्हें आप डाकिया के नाम से जानते हैं। डाकिया भी जब किसी को, किसी का संदेश प्रेषित करता है। तो वह संदेश अगर शोक से सना है, तो ऐसा नहीं, कि डाकिया भी शोक में डूब जाता है। वह सामान्य व्यवहार में ही पूरा संदेश पत्र पढ़ता है। पत्र में अगर लिखा है, कि हमें बडे़ दुखी मन से, रोते हुए, यह कहना पड़ रहा है, कि आपके अमुक रिश्तेदार अब संसार में नहीं रहे। तो ऐसे में, क्या आपने किसी डाकिये को भी, ऐसा शोक संदेश रोते हुए पढ़ते देखा है क्या? कारण कि डाकिये का कार्य तो मात्र संदेश पत्र को, अमुक स्थान से अमुक स्थान पर पहुँचाना होता है। उस पत्र में क्या लिखा है, उसमें लिखे शब्दों के क्या-क्या प्रभाव हो सकते हैं, इससे डाकिये को कोई सरोकार नहीं होता है। लेकिन श्रीहनुमान जी कैसे डाकिये हैं, कि उन्होंने प्रभु के संदेश को अभी सुनाना भी आरम्भ नहीं किया, और उनके नेत्र अश्रुयों से भीग गए। कारण कि वे मात्र एक साधारण संदेश वाहक नहीं थे। जो किसी अज्ञात को, किसी अज्ञात का संदेश प्रेषित करने पहुँचे थे। जी हाँ! श्रीहनुमान जी कोई ‘किसी’ कर संदेश देने नहीं आये थे। अपितु अपने पिता का, अपनी माता को संदेश देने आये थे। अब आप ही सोचिए, कि एक अभागा बालक, अपने पिता से बिछुड़ चुकी, अपनी माता को, अपने पिता का बिरही संदेश देने आया हो। तो क्या ऐसे में उसका हृदय अंदोलित नहीं होगा? क्या भावनायों का ज्वारभाटा, उसे बहाकर या धूकर नहीं ले जायेगा? निश्चित ही वह मासूम व अभागा पूत्र बिना अश्रुपात के वह संदेश दे ही नहीं पायेगा। और देखो ऐसा ही यहाँ भी घट रहा है।
श्रीहनुमान जी ने प्रभु का संदेश कैसे प्रेषित किया, व शब्दों में क्या-क्या कहा। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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