Gyan Ganga: लंकिनी की कौन-सी बात सुनकर हनुमानजी आश्चर्य में पड़ गये थे?
लंकिनी श्रीहनुमान जी से विनतियां कर रही थी। और लंकिनी ने बड़े ही दृढ़ भाव से कहा कि आज एक बात और निश्चित हो गई कि मैं भी पापिनी नहीं हूँ। अपितु मेरे तो भाग ही बड़े उत्तम हैं, भला मेरे पुण्य अगर न होते, तो क्या आप जैसे महान श्रीराम दूत के मुझे दर्शन सुलभ हो पाते?
लंकिनी को श्रीहनुमान जी का ऐसा घूँसा पड़ा, कि मानो लंकिनी की तो नानी ही याद आ गई। उसके स्नायु तंत्र का सारा तालमेल ही बिगड़ गया। उसे एक बार तो यूँ लगा, कि जैसे कद्दु पर किसी ने घन दे मारा हो। घन के प्रहार से जैसे कद्दु की शक्ल बिगड़ जाती है, ठीक वैसे ही लंकिनी की मुखाकृति बिगड़ गई थी। मुख से रुधिर धारा ऐसी फूटी, मानो रक्त का फुहारा ही फूट गया हो। लंकिनी तो वैसे ही क्रोध की स्वामिनी थी। ऊपर से उस पर ऐसा प्रहार हुआ, कि वह संभल ही नहीं पा रही थी। वह धरा पर ऐसे धड़ाम से गिरी, कि मानो धरती ही हिल गई। लंकिनी के होश ठिकाने न रहे, वह बेहोश थी। और निश्चित ही श्रीहनुमान जी को अब लंका प्रवेश कर जाना चाहिए। लेकिन यहाँ एक आश्चर्य घटा। श्रीहनुमान जी लंकिनी को छोड़ लंका के भीतर जाने की बजाये, वहीं लंकिनी के पास ही खड़े रहे, जोकि हमारे हिसाब से किंचित भी उचित नहीं था। कारण कि लंकिनी तो वैसे ही श्रीहनुमान जी के प्रति क्रोध से भरी हुई थी। अब तो उसके मुख पर नहीं, अपितु सम्मान पर चोट लगी थी। और होश में आने के पश्चात, लंकिनी किसी भी कीमत पर श्रीहनुमान जी को क्षमा करने की अवस्था (मूड) में नहीं थी। जिससे ऐसी तो संभावना नहीं थी, कि वह श्रीहनुमान जी का कुछ बिगाड़ पाती, परन्तु श्रीहनुमान जी के लंकिनी के साथ उलझने में, श्रीहनुमान जी के कीमती समय का वय अवश्य होना था। और श्रीहनुमान जी यह निश्चित ही नहीं चाहते थे। इसलिए श्रीहनुमान जी को यहाँ शत प्रतिशत यही करना चाहिए था, कि वे लंकिनी के बेहोश होते ही, लंका प्रवेश करते, और श्रीराम काज के अपने पावन लक्ष्य को साधते। लेकित श्रीहनुमान जी हैं, कि लंकिनी के पास से हटते ही नहीं। हो सकता है, कि श्रीहनुमान जी का मन लंकिनी को पीटने से भरा नहीं था। और वे लंकिनी को होश में आने के पश्चात् और ढंग से सबक सिखाकर ही वहाँ से निवृत होंगे। और लंकिनी की निढ़ाल-सी देह में मानो प्राण ही नहीं थे। यह तो श्रीहनुमान जी का मन था, कि लंकिनी होश में आये। तभी तो उसकी अँगुलियां में कुछ हरकत हुई। लंकिनी फिर से उठने को तत्पर थी। जैसा कि हमने पहले ही कहा कि लंकिनी वापिस होश में आने के पश्चात् निश्चित ही श्रीहनुमान जी पर टूट पड़ने वाली थी। लंकिनी आश्चर्य की इस कड़ी में एक आश्चर्य और घटा। लंकिनी होश में आकर उठी तो अवश्य, लेकिन जैसा हम सोच रहे थे, लंकिनी वैसा उग्र व्यवहार लेकर किंचित भी प्रतीत नहीं हो रही थी। अपितु दोनों हाथ जोड़कर विनती भाव से खड़ी हो गई। और कहने लगी कि आज मुझे सारी कहानी समझ आ गई। निश्चित ही रावण सहित समस्त राक्षसों का अब अंतिम समय निकट आ गया है। श्रीहनुमान जी के मस्तक पर प्रश्नों के नाग ने अपना फन उठा लिया। श्रीहनुमान जी ने कहा, कि क्या हुआ लंकिनी! एक घूँसे ने ही अक्ल ठिकाने ला दी। अपना विनाश क्या दिखा, तुम्हें सारे राक्षसों का ही विनाश प्रतीत होने लगा। तब लंकिनी ने कहा कि हे तात! मैं असत्य भाषण नहीं कर रही। वास्तव में मुझे ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था-
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‘पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका।।
जब रावरहि ब्रह्मा बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा।।’
श्रीहनुमान जी ने कहा कि आपको ऐसी कौन-सी पहचान बताई, जिससे यह सिद्ध हो कि राक्षसों के अंतिम समय का ज्ञान निश्चित हो सके। तब लंकिनी कहती है, कि हे हनुमंत लाल! ब्रह्मा जी ने मुझे कहा था, कि जब एक वानर के मारने से व्याकुल होकर गिर जाये, तब तू जान लेना कि राक्षसों के संहार का उचित समय आन पहुँचा है-
‘बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।’
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लंकिनी श्रीहनुमान जी को दोनों हाथ जोड़कर यह सब विनतियां कर रही थी। और लंकिनी ने बड़े ही दृढ़ भाव से कहा कि आज एक बात और निश्चित हो गई कि मैं भी पापिनी नहीं हूँ। अपितु मेरे तो भाग ही बड़े उत्तम हैं, भला मेरे पुण्य अगर न होते, तो क्या आप जैसे महान श्रीराम दूत के मुझे दर्शन सुलभ हो पाते? मुझे विश्वास हो गया कि श्रीराम जिसे तारना चाहें, उसे वे कहीं से भी, और कहीं पर भी तार सकते हैं। श्रीहनुमान जी की पारखी निगाहों ने पहचान लिया था, कि लंकिनी मिथ्या भाषण नहीं कर रही है। वे सोच रहे हैं, कि शायद लंकिनी को मैंने नाहक ही, अधिक बल से मार दिया। बेचारी को असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ा। श्रीहनुमान जी तो ऐसा सोच ही रहे थे, कि लंकिनी ने श्रीहनुमान जी के पूर्णतः ही विपरीत बात कह कर श्रीहनुमान जी को चौंका दिया। लंकिनी श्रीहनुमान जी से ऐसी बात कहती है, कि आप भी वह बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जायेंगे, कि भला ऐसा कैसे हो सकता है। क्या थी वह बात, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः...)...जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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