Gyan Ganga: लंकिनी ने जब लंका में प्रवेश करने से रोका, तो हनुमानजी ने कैसा सबक सिखाया?
लंकिनी को लगा कि अरे! इस नन्हें से वानर की इतनी हिम्मत, कि मेरे सामने ही, मुझे धोखा देते हुए, चोरी छुपे लंका में प्रवेश करने का दुस्साहस करे। यह तो मेरा साक्षात अपमान है। लंका में मेरा अपमान हो जाए, और मैं देखती रहूँ, तो लाख लाहनत है मेरे होने पर।
श्रीहनुमान जी रात्रि काल होते ही मच्छर के समान लघु रूप धारण कर लंका प्रवेश हेतु तत्पर होते हैं। अब इसे लंकेश के विनाश का संकेत मानें, अथवा उसका परम् सौभाग्य। विनाश इसलिए, क्योंकि श्रीहनुमान जी की गदा के एक प्रहार से ही लंका नगरी रसातल में जा सकती थी। और रावण के स्वभाव से तो हम सब अवगत हैं ही, कि रावण अवश्य ही ऐसी कोई न कोई मूर्खता तो करेगा ही, कि लंका रसातल में समाने का अपना रास्ता स्वयं ही ढूँढ़ ले। लेकिन रावण के लिए, श्रीहनुमान जी का लंका नगरी में प्रवेश करना परम् सौभाग्यशाली होना इसलिए था, क्योंकि श्रीहनुमान जी जैसे श्रेष्ठ संत का जिस नगरी में आगमन हो, भला उस नगरी से बढ़कर और कौन-सा स्थान पावन हो सकता है। और जिन संतों के दर्शन करने हेतु, कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ता, जंगल बेले धूल छाँकनी पड़ती है, वही संत आज स्वयं चलकर रावण की नगरी पहुँच रहे हैं। तो यह तो रावण का परम् सौभाग्य था। इस आधार पर तो श्रीहनुमान जी के विशेष स्वागत हेतु लंका द्वार पर किसी स्वागतकर्ता का होना बनता ही था। और देखिए, रावण ने शायद यह प्रबंध भी कर रखा था। क्योंकि मुख्य द्वार पर जो हस्ती उपस्थित थी, वह कोई श्रीहनुमान जी की तरह कोई साधक तो नहीं, लेकिन हाँ, उनके लिए बाधक अवश्य थी। लंका की मुख्य सुरक्षा अधिकारी, व अति क्रूर स्वभाव लिए, लंकिनी नामक खूंखार राक्षसी, श्रीहनुमान जी के सम्मान में नहीं, अपितु अपमान का चक्रव्यूह रचने के लिए खड़ी थी-
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‘नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।’
लंकिनी को लगा कि अरे! इस नन्हे से वानर की इतनी हिम्मत, कि मेरे सामने ही, मुझे धोखा देते हुए, चोरी छुपे लंका में प्रवेश करने का दुस्साहस करे। यह तो मेरा साक्षात अपमान है। लंका में मेरा अपमान हो जाए, और मैं देखती रहूँ, तो लाख लाहनत है मेरे होने पर। अरे भई, इस वानर को मेरे प्रभाव का तनिक तो भान होना ही चाहिए न? या फिर इसके भाग्य में प्राणों की पोटली में ही छेद हो गया है। तभी तो यह स्वयं ही मेरा आहार बनने हेतु मेरे पास चला आया है। छोटा जानकार ऐसा थोड़ी न है, कि मैं इसके अपराध को बड़ा न मानूं। अपराध बड़ा है, तो दण्ड भी तो बड़ा ही होना चाहिए। ठीक है, मैं अभी इसे मज़ा चखाती हूँ-
‘जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।’
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लंकिनी बकवाद करती हुई कहती है, कि हे चोर! कितना दुष्ट है रे तू! पता भी है, कि मैं पहरे पर खड़ी हूँ, तब भी तू लंका प्रवेश का दुस्साहस कर रहा है। लगता है तू मुझे ठीक से जानता नहीं। नहीं तो तू कभी भी, ऐसे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी न मारता। अर्थात अपने प्राण न्यौछावर करने मेरे पास स्वयं ही चला न आता। पर तुम्हें क्या पता, कि केवल लंका नगरी में घुसने वाले चोर ही नहीं, अपितु संसार में जितने भी चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। मैं किसी चोर को नहीं छोड़ती। श्रीहनुमान जी ने लंकिनी को जब यूँ फँफनाते देखा, तो वे मन ही मन बोले, कि धत् तेरे की। भई बड़े कमाल की सुरक्षा अधिकारी है। मुझे इतने नन्हे रूप में भी पकड़ लिया। लेकिन अब इसकी भी तो मुझे सेवा पानी करनी पड़ेगी। और हाँ! बातों ही बातों में यह कुछ ज्यादा ही नहीं बोल गई? मुझे चोर कहा? छीं छीं छीं, इतनी गंदी बात भला लोग कैसे बोल लेते हैं। झूठी कहीं की, कह रही है कि समस्त संसार के जितने भी चोर हैं, वे सब इसके आहार हैं। इसे चोरों को खाने का इतना ही चाव है, तो इसने जाकर सर्वप्रथम रावण को क्यों नहीं खाया। क्योंकि संसार का सबसे बड़ा चोर तो रावण है, जिसने हमारी सीता मईया को धोखे से चुरा लिया। पगली सुरक्षा ही करनी है, तो धर्म की करनी थी न। अधर्म की सुरक्षा का ठेका तूने काहे उठा लिया। यह तो ऐसे है, मानों कोई किसी को, कागज़ का छाता ओढ़ा कर उसे बारिश के कोप से बचाने का विफल प्रयास कर रहा हो। नहीं नहीं! मैंने यह भी सही नहीं कहा। कारण कि रावण की पहरेदारिनी भी भला कौन-सी दूध की धुली होगी। चोर-चोर मौसेरे भाई। इनकी तो आपस में ही खिचड़ी पकती रहती होगी। कौन जानें ये लोग कब क्या, और कैसे कर जायें। और इसकी जुबाँ तो देखो कितनी चलती है। मुझे सठ कह रही है, अर्थात दुष्ट। अब यह तो हद ही हो गई। ठीक है, हमें दुष्ट कह ही दिया है, तो थोड़ा दुष्ट तो लगता है हमें बनना ही पड़ेगा। श्रीराम जी का नाम लेकर, क्यों न हम अपनी दुष्टता का ज़रा सा नमूना दिखा ही दें। तब श्रीहनुमान जी क्या प्रतिक्रिया करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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