Gyan Ganga: क्या श्रीराम के कहने पर सुग्रीव बालि को फिर ललकारने के लिए राजी हुए ?
इधर सुग्रीव के अंतस पटल किंतु−परंतु, अगर−मगर का महा संग्राम छिड़ा हुआ है। सुग्रीव महा आश्चर्य में है कि आखिर मैं श्रीराम जी के वचन क्यों स्वीकार करता चला आ रहा हूँ। मानों कोई अद्भुत शक्ति मुझे उनके सामने बंधाने पर विवश कर देती है।
सुग्रीव श्रीराम जी की बात सुनकर एक बार अधमरा-सा तो हो ही गया था। गला मानों रेगिस्तान के टीले की तरह सूख गया था। जुबान तो गले में जैसे सरक भी नहीं पा रही थी। केवल उसकी खुली सपाट आँखें उसकी हतप्रभता बयां करने के लिए काफी थी। श्रीराम जी के मुख पर तो सदा की तरह सागर ही गहराई और हिमालय-सी स्थिरता अडिग भाव लिए विद्यमान थी। उन्हें अपने वाक्यों पर न ही तो संदेह था और न ही उन वाक्यों पर पुनर्विचार करने की कोई योजना। श्रीराम जी भी समझ गए कि सुग्रीव के पाँव आसानी से जमने वाले नहीं हैं। क्योंकि एक बार जो गर्म दूध से जलने का कटु अनुभव कर लेता है। फिर वह छाछ को भी फूंक मार, मार कर पीता है। और मैंने तो कितने सहज भाव से ही कह दिया कि सुग्रीव तैयार हो जाओ, तुम्हें पुनः बालि को युद्ध के लिए ललकारना होगा।
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निःसंदेह साधरण मनुष्य के लिए यह आसान तो बिलकुल भी नहीं। लेकिन कठिन उपलब्धियां अभ्यास मांगती ही हैं। बालि कोई राह में पड़ा हल्का−फुल्का कंकड़ तो था नहीं। ऐरावत हाथी से भी भारी उसका व्यक्तित्व था। और उससे भिड़ने के लिए केवल श्रेष्ठ हाथियों के शारीरिक बल की ही आवश्यक्ता नहीं थी। अपितु हाथियों जैसा भारी मानसिक व आत्मिक बल की अनिवार्यता अतिअंत आवश्यक थी। यह तो सुग्रीव का भक्त हृदय था, जो मेरी कही बात पर वह बालि से भिड़ने हेतु तत्पर हो उठा। वर्ना ऐसा साहस कहाँ देखने को मिल सकता था। अतएव पुनः सुग्रीव को बालि के पास भेजने का अर्थ है कि सुग्रीव को मानसिक स्तर पर अथाह संघर्ष का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन कुछ भी हो संघर्षों में तप कर ही तो व्यक्ति निखर कर सामने आता है−
हिना रंग लाती है, पत्थर पर घिसने के बाद।
पत्थर सुरखरू होता है, ठोकरें खाने के बाद।।
इधर सुग्रीव के अंतस पटल किंतु−परंतु, अगर−मगर का महा संग्राम छिड़ा हुआ है। सुग्रीव महा आश्चर्य में है कि आखिर मैं श्रीराम जी के वचन क्यों स्वीकार करता चला आ रहा हूँ। मानों कोई अद्भुत शक्ति मुझे उनके सामने बंधाने पर विवश कर देती है। जिसका परिणाम यह है कि मैं बिना सोचे समझे जाकर बालि से भिड़ बैठा। यह तो भाग अच्छे थे कि मैं भाग खड़ा हुआ। वर्ना....चलो कोई नहीं जो हुआ अच्छा हुआ। गलती जीवन में एक बार हो तो क्षमा योग्य है। लेकिन उस गलती को पुनः करो तो निश्चित ही यह मूर्खतापूर्ण कार्य कहलाएगा। अवश्य ही मुझे श्रीराम जी को स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहिए कि प्रभु भाड़ में गया किष्किंधा का राज्य, 'जान है तो जहान है।' बालि भले दस को मारे भले मारे पचास को, मेरी बला से वह किसी को भी मारे मुझे क्या लेना−देना। मुझे तो बस यह देखना है कि बालि मुझे न मारे। और यह तभी संभव है जब मैं ऋषयमूक पर्वत की गोद में छुपा रहूँ। ठीक है श्रीराम जी के कहने पर मैं बालि से भिड़ने के लिए जैसे−तैसे चला भी गया। और उसका परिणाम कितना व कैसा सुखद है यह भी मैंने बड़ी समीपता से देख लिया। और तब भी मैं पुनः बालि से भिड़ने चला जाऊँ तो इसका सीध व स्पष्ट अर्थ है कि मुझे अपने प्राणों से ही प्रेम नहीं। कुछ भी हो मैं जान बूझकर अंधे कुएँ में छलाँग नहीं लगाने वाला। 'आ बैल मुझे मार' एक बार होना था सो हो गया। मुझे कोई शौक नहीं चढ़ा कि बार−बार मैं अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाऊँ।
प्रभु का क्या है प्रभु तो कह देंगे कि सुग्रीव तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो। तुम्हें कौन मार सकता है, मरता तो शरीर है यद्यपि तुम तो आत्मा हो। और आत्मा तो अजर, अमर व शाश्वत है। अब बताओ बड़ी−बड़ी बातों से मुझ नन्हीं सी, छोटी सी जान को फिर से फंसाकर रख देंगे। न बाबा न हम तो शरीर ही भले, बेवजह आत्मा, आत्मा चिल्लाने के चक्कर में, मैं आत्मभाव तो महसूस कर नहीं पाऊँगा उल्टे दुरात्मा बालि के मुक्के में इतनी धमक है कि आत्मा−प्रमात्मा का सारा भूत उतर जाएगा।
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श्रीराम जी ने सुग्रीव को यों विचलित पाया तो स्वयं ही शिला से उठकर चले गए। अपने पावन नयनों से ही कहना आरम्भ किया कि हे सुग्रीव! निश्चित ही मैं भगवान हूँ और बालि को केवल संकल्प मात्र से ही मार सकता हूँ। लेकिन इसमें भी मेरी प्रभुता नहीं। मेरी प्रभुता तो तब है जब मैं बालि से भयक्रांत किसी व्यक्ति से ही उसे चुनौती दूँ। यह निश्चित है कि बालि मेरे बाण से ही मरेगा लेकिन समाज में इस संदेश का जाना इतना सुखद व अनिवार्य होगा कि बालि भले ही महाशक्तिशाली क्यों न हो, और उसके विरुद्ध डटने में हमें संभावित पराजय का भी भान हो लेकिन तब भी अन्याय, अधर्म व अनीतियों के विरुद्ध लड़ने का मानवीय कर्तव्य भला हम कैसे त्याग सकते हैं। क्या हिरण्यकश्यपु के बल व सामर्थ्य के सामने प्रह्लाद की कोई बिसात थी। लेकिन तब भी प्रह्लाद अत्याचार व अनाचार के विरु( खड़े होने के अपने धर्म से पीछे नहीं हटा। यह देख प्रभु को भी प्रह्लाद के पक्ष में नृसिंह अवतार लेने पर मजबूर होना पड़ा।
हे सुग्रीव! इसी प्रकार मैं भी तुम्हारे पीछे दृढ़ संकल्प लिए खड़ा हूँ। और सुग्रीव! मेरी ख्याति तो संसार में स्वाभाविक है ही, लेकिन मेरे भक्त की कीर्ति व सम्मान बढ़े। मेरी यही महती इच्छा है। हो सकता है कि तुम्हें यह लगे मैंने तीर क्यों नहीं चलाया? तो सुग्रीव सही समय आते ही मेरा बाण स्वयं ही मेरे धनुष पर आ सजेगा। तुम्हें तो इतिहास के लिए बस एक उदाहरण छोड़नी है कि अधर्म की तरफ अगर आपका सगा भाई भी खड़ा हो तो हम में बल व सामर्थ्य नहीं होते हुए भी उसके खिलाफ डटना चाहिए। इसलिए यह माला मैं स्वयं तुम्हारे गले में पहना रहा हूँ। इसका अर्थ यह नहीं कि इससे मुझे तुम्हारी पहचान सुलभ रहेगी। अपितु यह कि मैंने तुम्हें चुन लिया है। बालि वध का परिणाम आने से पूर्व ही मैं तुम्हें विजेता घोषित कर रहा हूँ। मानता हूँ कि तुम्हारे संकल्प को ठेस पहुँची है। हो सकता है कि तुम्हे मेरे संकल्पों पर भी संदेह हो। लेकिन यह पड़ाव भी तो भक्ति पथ के आवश्यक अंग हैं। सुग्रीव ऐसे में तुम मेरी चमत्कारिक व दिव्य घटनाओं का बार−बार स्मरण करोगे। जैसे ताड़ के पेड़ को एक ही बाण से काट डालना, दुदुंभि राक्षस का पिंजर फेंक देना और अभी−अभी तुम्हारी पीड़ा का मेरे छूते ही जो हरण हुआ इन सबका स्मरण करना फिर देखना तुम्हारा डगमगाता विश्वास फिर से अडिग होने लगेगा, भय मिटने लगेगा और तुम पुनः बालि को युद्ध हेतु ललकारते पाओगे।
श्रीराम जी के इन विचारों का सुग्रीव पर क्या प्रभाव पड़ता है। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम
-सुखी भारती
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