Gyan Ganga: क्या पहली मुलाकात के दौरान हनुमंत भगवान श्रीराम जी को पहचान पाए?
श्रीराम जी ने देखा कि श्री हनुमान जी तो प्रश्न ही अनुपयुक्त पूछ रहे हैं। भला हमें भूमि कठोर क्यों महसूस होगी। एक ही कदम में जब हम पूरी पृथ्वी को माप सकते हैं तो पृथ्वी की कठोरता भला हमें क्यों महसूस होगी? और कठोर भूमि नहीं बल्कि कठोर तो हमारे कदम हैं।
विगत अंक में हमने देखा कि श्री हनुमान जी भले ही ब्राह्मण रूप में हों लेकिन क्षत्रिय रूपधरी श्रीराम जी को प्रणाम करने की विपरीत रीति का निर्वाह करते हैं। श्रीराम जी ने देखा कि हमारा परम् भक्त ही अगर हमसे वास्तविक रूप छुपाने की जिद्द पाल कर बैठा है तो चलो हम भी उसका साथ दिए देते हैं। हम क्यों कहें कि हनुमंत लो तुम्हारा युगों का इन्तजार हमने समाप्त किया और तुम्हें दर्शन देने हेतु आ पहुंचे। आखिर भक्त की इच्छा का रक्षण करना हमारा परम धर्म जो है।
श्री हनुमंत भगवान श्री राम जी को विवश कर रहे हैं कि आप अपने शारीरिक परिचय से आगे न बढ़ें−
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को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा।।
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।।
अर्थात् हे वीर! सांवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं जो क्षत्रिय के रूप में वन में विचरण कर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?
श्रीराम जी ने देखा कि श्री हनुमान जी तो प्रश्न ही अनुपयुक्त पूछ रहे हैं। भला हमें भूमि कठोर क्यों महसूस होगी। एक ही कदम में जब हम पूरी पृथ्वी को माप सकते हैं तो पृथ्वी की कठोरता भला हमें क्यों महसूस होगी? और कठोर भूमि नहीं बल्कि कठोर तो हमारे कदम हैं। सोचो क्या हम इस घटना से अनभिज्ञ थे क्या कि सायं काल तो हमें अयोध्या का राजा बनाने की पिता दशरथ की घोषणा हुई है लेकिन सुबह होते ही वनों को प्रस्थान करना है। समर्थ होते हुए हम विधि का विधान बदल भी सकते थे। लेकिन हमने ऐसा कहाँ किया। बल्कि वनवास धारण करने का कठोर कदम उठा लिया। तो भला भूमि कहाँ कठोर हुई, कठोर तो हमारे कदम ही हुए न। और श्री हनुमान जी कह रहे हैं 'कठिन भूमि कोमल पद गामी' अर्थात् हमारे पद कोमल हैं? बेचारे श्री हनुमान जी भी क्या करें। अपना बाहरी रूप वे हमसे भले छुपा रहे हैं। लेकिन मन की भावना छुपाने में पूर्णतः असमर्थ सिद्ध हो पा रहे हैं। क्योंकि असुर जनों के लिए निश्चित ही हमारे पद कठोर से भी अति कठोर हैं। लेकिन श्री हनुमान जी जैसे भक्त हृदय को हमारे पद सदैव ही कोमल दिखेंगे। हृदय की भावना भले ही नहीं छुपाई लेकिन अपना वास्तविक देह परिचय तो छुपाया ही है। तो फिर भला हम क्यों बोलें। हम भी चुप ही रहेंगे।
श्री हनुमान जी ने देखा कि प्रभु तो कुछ बोल ही नहीं रहे। कोई उत्तर ही नहीं दिया और उत्तर देंगे भी क्यों। क्योंकि उत्तर तो किसी यथोचित प्रश्न का दिया जाता है। मुझ जैसे किसी वानर के बकवाद का नहीं। श्री हनुमान जी फिर प्रश्न करते हैं−
मृदुल मनोहर सुंदर गावा। सहत दुसह बन आतप बाता।।
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायण की तुम्ह दोऊ।।
अर्थात् मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल, अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं। क्या आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों देवों में से कोई एक हैं। या आप दोनों नर और नारायण हैं।
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श्रीराम जी ने फिर कोई प्रति उत्तर नहीं दिया। क्योंकि श्री हनुमान जी के प्रश्न अभी भी अनुकूल नहीं थे। जब श्री हनुमान जी ने कहा कि आप तीनों देवों में से कोई हैं क्या? तो श्री राम सोचने लगे कि पगले हम तो केवल दो भाई हैं। और तुलना तुम तीन देवों से कर रहे हो। हाँ ब्रह्मा और विष्णु के अवतार तुम कहते हो तो आध प्रतिशत तो कम से कम सही ही होता। क्योंकि हम विष्णु का अवतार हैं लेकिन हमारे अनुज लक्ष्मण जी फिर ब्रह्मा का अवतार नहीं हैं। प्रश्न तो आपने फिर भी अनुपयुक्त ही पूछा। इसलिए उत्तर तो अभी भी देने को नहीं बनता। और साथ में एक विशुद्ध गलती भी आपने कर डाली। जब यह सिद्ध ही है कि आप भगवान शंकर के अवतार हैं तो आपको तो यह पूछना ही नहीं चाहिए कि हम कहीं तीनों देवों में महेश जी तो नहीं। क्योंकि महेश तो आप हैं।
श्री हनुमान जी को भी शायद अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ होगा। तभी तो उन्होंने तुरंत अपने शब्दों में संशोधन किया और बोले 'नर नारायण की तुम्ह दोऊ'। अर्थात् कहीं आप दोनों नर और नारायण तो नहीं। श्री राम जी ने पाया कि श्री हनुमान जी अब कहीं जाकर परिणाम के निकट पहुंच रहे हैं। कम से कम हम उन्हें 'नारायण' तो प्रतीत हुए। लेकिन यह साथ में 'नर' शब्द क्यों कह डाला। क्योंकि लक्ष्मण जी कोई साधरण नर थोड़ी हैं वे तो साक्षात् भगवान शेष के अवतार हैं। और हे हनुमंत न आप ही कोई नर हैं, क्योंकि आप साक्षात् महादेव के अवतार हैं। तो भला हम में से कोई नर कैसे हुआ। हनुमंत जब तक आप हमें हमारी सीधी−सीधी पहचान नहीं बताते। हमें भी तब तक एक शब्द नहीं बोलना। शायद श्री हनुमान जी भी श्रीराम जी के मन की भांप गए। तभी तो तुरंत बोले−
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।।
अर्थात् आप जगत् के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने के लिए तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है।
श्री राम जी मन ही मन सोच रहे हैं कि वाह भई वाह। बात तो बड़े पते की कही है। लेकिन क्या मेरे कह देने मात्र से तुम मान जाओगे कि हां मैं भगवान हूं। आप तो स्वयं त्रिनेत्रधारी के अवतार हैं। अपनी दिव्य दृष्टि से पहचानिए न कि हम सच में ईश्वरीय अवतार हैं या यह केवल आपका भ्रम मात्र है। सुग्रीव ने आपको ब्राह्मण वेष धारण करने को कहा है। तो कृप्य दृष्टि भी ब्राह्मण वाली रखिए न। क्योंकि शास्त्रों में ब्राह्मण की परिभाषा के अनुसार ब्राह्मण वह है तो ब्राह्म को जान लेता है− 'ब्राह्म जानातीति ब्राह्मण' तो आप पहचान क्यों नहीं पा रहे हैं। ब्राह्म को न जानने की झूठी हठ आप त्याग क्यों नहीं देते। चलो ठीक है आप अपना रूप छुपाते−छुपाते हमारा भी रूप छुपा रहे हैं। तो ठीक है फिर हमें भी अपना रूप प्रकट करने की क्या पड़ी है। कितने समय से आप हमसे खेल रहे हैं। तो आप संग थोड़ा खेलना तो हमारा भी बनता है।
सज्जनों श्री राम वीर हनुमान जी को प्रतिउत्तर में क्या कहते हैं। जानेंगे अगले अंक में... क्रमशः
-सुखी भारती
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