Gyan Ganga: पिता दक्षप्रजापति की बात सुनकर क्यों खफा हो गयीं थीं सती जी ?
हे देवी ! तुम्हारे पिता की बुद्धि दोषयुक्त हो गई है। उनका अभिमान बढ़ गया है, विवेक शक्ति नष्ट हो गई है। तुम्हारे पिता हमसे शत्रुता का भाव रखते हैं। यदि बिना बुलाए हम वहाँ जाएँ और वे अपना मुँह फेर लें या कोई दुर्वचन कह दें तो अच्छा नहीं होगा।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के भागवत-कथा प्रेमियों ! पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि- कपिल भगवान ने अपनी माँ देवहूति को प्रसिद्ध सांख्य शास्त्र, अष्टांग योग और तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जिससे माँ देवहूति को मोक्ष पद की प्राप्ति हुई। जहां उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई उस स्थान को सिद्धिप्रद कहते हैं।
आइए ! कथा के अगले प्रसंग में चलते हैं।
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परम मंगलमय भगवत स्वरूप श्रीमदभागवत पुराणन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध में प्रवेश करें। इसमें मरीचि आदि नव प्रजापतियों की उत्पत्ति, दक्ष का यज्ञ विध्वन्स, ध्रुवचरित्र एवं पृथु चरित्र की कथाएँ मिलती हैं।
मनोस्तु शतरूपायां तिस्त्र : कन्याश्च जज्ञिरे।
आकूति: प्रसूतिरिति देवहूति: इति विश्रुत:॥
स्वायम्भुव मनु की तीन बेटियाँ आकूति, प्रसूति, देवहूति और दो बेटे प्रियव्रत और उत्तानपद हुए। देवहूति का विवाह कर्दम मुनि के साथ हुआ। हम सुन चुके हैं। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ हुआ और तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति से हुआ। दक्ष प्रजापति और उनकी पत्नी प्रसूति से साठ कन्याएँ उत्पन्न हुईं। उनमें सती का विवाह महादेव जी से हुआ।
विदुर जी ने मैत्रेय जी से पूछ लिया- प्रभों ! ससुर और दामाद में इतना विद्वेष क्यों हो गया? जिसके कारण सती ने अपने प्राण दे दिए। मैत्रेय जी कहते हैं- एक दिन बड़े-बड़े ऋषि मुनि ब्रह्मा जी की सभा में बैठे थे। उसी समय दक्ष प्रजापति भी वहाँ पधारे। सूर्य के समान उनके तेज से प्रभावित होकर सभी देवता और ऋषि मुनि खड़े हो गए और अभिवादन करने लगे, किन्तु महादेव जी आँख बंद किए किसी के ध्यान में मग्न थे। उन्होने अपने ससुर दक्ष का आदर नहीं किया। दक्ष ने अपना अपमान समझकर महादेव को बहुत बुरा-भला कहा और भरी सभा में सबके सामने शिवजी को शाप दे दिया। आज से किसी भी यज्ञ में महादेव का हिस्सा न लगाया जाए। शिवजी चुपचाप बैठे रहे कोई प्रतिक्रिया नहीं की। सभा समाप्त हुई। सभी अपने-अपने स्थान को प्रस्थान किए। दक्ष प्रजापति ने अपने घर पहुँचकर विचार किया कि मैंने ही शाप दिया है, इसलिए मैं ही यज्ञ का आरंभ करूँ जिससे महादेव को चिढ़ हो। ऐसा विचार कर दक्ष ने यज्ञ की तैयारी शुरू कर दी और सभी देवताओं को निमंत्रण (नेवता) भेज दिया। मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर ! सभी देवता, दैत्य, ऋषि, मुनि, यक्ष, गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अच्छे-अच्छे गहने और आभूषणों में सज-धज कर विमानो में सवार होकर गाते बजाते यज्ञोत्सव में जा रहे हैं। जब सती ने यह गाने-बजाने का कोलाहल सुना तो अपने पतिदेव महादेव से कहा-
श्लोक—
प्रजापतेस्ते श्वशुरस्य सांप्रतम, निर्यापितो यज्ञ महोत्सव: किल ।
वयं च तत्राभिसराम वां ते, यद्यर्थितामी विबुधा व्रजन्ति हि ॥
तस्मिन् भगिन्यो मम भर्तृभि: स्वकै :
ध्रुवं गमिष्यन्ति सुहृददृक्षव:।
अहं च तस्मिन् भवताभिकामये
सहोपनीतं परिवर्हमर्हितुम्.।।
हे प्रभो! मेरे पिता के यज्ञोत्सव में देवता, दैत्य, ऋषि, मुनि, यक्ष, गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी पत्नियों के संग जा रहे हैं। मेरी अन्य बहनें भी अपने-अपने पति के साथ वहाँ अवश्य जाएँगी। बहुत दिनों से मेरा मन भी अपने माता-पिता और बहनों से मिलने के लिए उत्सुक है। शायद काम-काज की भीड़ में पिताजी भूल गए होंगे, और हमें नहीं बुलाया।
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अनाहूताप्याभियन्ति सौह्रिदम, भर्तु: गुरोर्देह कृतश्च केतनम
लेकिन पति, गुरु, मित्र और अपने माता पिता के यहाँ बिना बुलाए भी जा सकते हैं। गोस्वामी जी भी लिखते हैं---
जदपि मित्र प्रभु पितु गुरु गेहा, जाइय बिनु बोलेहुं न संदेहा।
अत: आपको यह मेरी इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए। भोलेनाथ ने कहा- सुंदरी ! ऐसा तब करना चाहिए जब वह व्यक्ति विद्या, धन और बल के घमंड में चूर न हो। ये तीनों जब किसी सत्पुरुष के जीवन में आते हैं तो ये सद्गुण बन जाते हैं और नीच व्यक्ति के जीवन में आते हैं तो दुर्गुण बन जाते हैं।
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषाम पर पीडनाय
खलस्य साधो: विपरीतमेतत दानाय भोगाय च रक्षणाय ॥
हे देवी ! तुम्हारे पिता की बुद्धि दोषयुक्त हो गई है। उनका अभिमान बढ़ गया है, विवेक शक्ति नष्ट हो गई है। तुम्हारे पिता हमसे शत्रुता का भाव रखते हैं। यदि बिना बुलाए हम वहाँ जाएँ और वे अपना मुँह फेर लें या कोई दुर्वचन कह दें तो अच्छा नहीं होगा। क्योंकि तीर और तलवार के घाव मरहम पट्टी करने से भर जाते हैं पर जिह्वा का घाव कलेजे में घर कर जाता है। लाख दवा करो अच्छा नहीं होता। इसलिए तुम्हारे पिता के यज्ञ में मैं नहीं जाऊंगा।
तथारिभि : न व्यथते शिली मुखै : शेतेsर्दितांगो हृदयेन दूयता
स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभि; दिवानिशं तप्यति मर्मताडित:
यदि व्रजिष्यस्यतिहायमद् वचो भद्रंभवत्या न ततो भविष्यति
संभावितस्य स्वजनात् पराभवो यदा स सद्यो मरणाय कल्पते।।
यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। क्योंकि जब कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने ही आत्मीय जनों के द्वारा अपमानित होता है तब वह तत्काल मृत्यु का कारण बन जाता है। मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! मना करने पर भी सती नहीं मानी और अपने पिता के यज्ञोत्सव में चल दीं। देखिए पूरी दुनिया को समझाना आसान है लेकिन अपनी पत्नी को समझाना बड़ा कठिन है, जब शिव सती को नहीं समझा सके तो इस कलियुग में हम जीव अपनी पत्नी को क्या समझा सकते हैं?
शिव जी ने अपने कुछ गणों को उनके साथ भेज दिया। जब सती वहाँ पहुंची तब उनको देखते ही पिता दक्ष ने मुँह फेर लिया। अपने पिता का ऐसा व्यवहार देखकर सती को बहुत आत्मग्लानि हुई। माँ प्रसूति और बहनों ने भी सती का हाल-चाल नहीं पूछा। सती दुख सागर मे डूबीं हुईं चुपचाप यज्ञशाला में बैठी रहीं। जब ब्राह्मणों ने दक्ष से महादेव के नाम पर आहुति डालने को कहा तब दक्षप्रजापति ने शिवजी को दुर्वचन कहकर ब्राह्मणों से कहा- मैंने देवताओं और ऋषि-मुनियों की सभा में महादेव को शाप दिया है। किसी भी यज्ञ में कोई भी उनका भाग न निकाले। ऐसा कठोर वचन अपने पिता के मुँह से सुनते ही सती का तन क्रोधाग्नि में जलने लगा। सती ने कहा- इस भरी सभा में आपने मेरे पति महादेव का अपमान किया है। कोई भी सत्यनिष्ठ पत्नी अपने पति का अपमान नहीं सहन कर सकती। तुम मेरे पिता हो तुमसे उत्पन्न यह तन मैं त्याग करती हूँ। ऐसा कहकर सती ने उत्तर की तरफ मुँह किया और योगाभ्यास करके स्वयम को अग्नि में जला दिया।
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- आरएन तिवारी
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