Gyan Ganga: आखिर लक्ष्मीजी को जय-विजय ने दरवाजे पर क्यों रोक दिया था?
अपनी शर्त के अनुसार कर्दम जी सन्यस्थ होकर वन जाने लगे तब देवहूति ने मुसकुराते हुए उनको रोका और कहा- प्रभो! यदि आप वन में चले जाएंगे तो इन कन्याओं के लिए योग्य वर कौन ढ़ूंढ़ेगा और मेरे सुख-दुख का निवारण कौन करेगा?
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के भागवत-कथा प्रेमियों ! पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि–
भगवान के मुख से ब्राह्मण और अग्नि इन दोनों का जन्म हुआ है। भगवान को दोनों मुखों से खिलाया जाता है। अग्नि के मुख से स्वाहा और ब्राह्मण के मुख से आहा। ब्राह्मण गरम-गरम मालपूआ और रबड़ी पाते हैं तो डकार लेकर गद-गद हो जाते हैं।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं। एक बात यहाँ गौर करने के लायक है, जय-विजय ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार आदि महात्माओं के दर्शन में विघ्न डाला, यह राक्षसी आचरण है इसलिए उनको राक्षस होने का शाप मिला। सनकादि ऋषियों ने जय-विजय पर क्रोध किया तो उनको भी वैकुंठ धाम के दर्शन से वंचित होना पड़ा। यह सब भगवान की लीला है। एक बार लक्ष्मी जी को भी जय-विजय ने यह कहकर दरवाजे पर ही रोक दिया था कि प्रभु अभी शयन कर रहे हैं आप अंदर नहीं जा सकती। लक्ष्मी जी ने प्रभु से शिकायत की, प्रभु ने कहा— यदि तुम्हारे कहने पर इन्हें निकालूँगा, तो लोग मेरे बारे में भला-बुरा कहेंगे, घरवाली के कहने पर निकाल दिया। जब किसी संत का अपमान करेंगे तब निकालूँगा। भगवान की चतुराई देखिए।
भगवान कहते हैं कि ब्राह्मण के मुख से खाकर जितना मैं प्रसन्न होता हूँ, उतना अग्नि मुख से नहीं। प्रभु ने स्पष्ट कह दिया कि ब्राह्मण मेरा प्रत्यक्ष मुख है। खाता वह है और तृप्त मैं होता हूँ। भगवान ने यहाँ पर ब्राह्मणों की बहुत प्रशंसा की और सनक, सनन्दन सनातन और सनतकुमारों को सम्मानपूर्वक नमन करके विदा कर दिया। सनकादि के शाप से ही वे आज दिति माँ के गर्भ में आ गए हैं। यह सारा रहस्य ब्रह्मा जी ने देवताओं को बताया और कहा- आप लोग घबराए नहीं भगवान नारायन कृपा करेंगे और कष्ट का निवारण करेंगे। देवता बिचारे समय की प्रतीक्षा करने लगे। सौ वर्षों के बाद दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिंका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुआ। हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान का युद्ध हुआ, हिरण्याक्ष का वध करके भगवान ने पृथ्वी का भार उतारा।
बोलिए वराह भगवान की जय। ------------
कर्दम मुनि की तपस्या और देवहुति के साथ उनका विवाह
विदुर जी ने पूछा- मैत्रेय जी महाराज! अब मुझे देवहूति और कर्दम मुनि की कथा सुनाइए जिन्होने मैथुनी धर्म के द्वारा इस संसार की रचना की थी।
मैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी महाराज, जब ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र कर्दम मुनि से सृष्टि विस्तार की बात कही, तब कर्दम मुनि ने दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की। सतयुग के आरंभ में भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और देवहूति के रूप-सौंदर्य के बारे में बताया। भगवान के चले जाने के बाद स्वायंभुव मनु और शतरुपा अपनी सुलक्षणा बेटी देवहूति के साथ कर्दम मुनि के आश्रम पर पहुंचे। अपनी बेटी के विवाह का प्रस्ताव रखा। कर्दम जी ने कहा- मैं आपकी साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूंगा किन्तु एक शर्त पर। इसके संतान हो जाने के बाद मैं सन्यस्थ होकर चला जाऊँगा।
अतो भजिष्ये समयेन साध्वी यावत् तेजो विभृयादात्मनो मे
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान् शुक्ल प्रोक्तान् बहु मन्ये विहिस्त्रान।।
मनु और शतरुपा ने स्वीकृति दे दी। दोनों का बड़ी धूम-धाम से विवाह सम्पन्न हुआ। अपनी कन्या-दान करने के पश्चात मनु महाराज निश्चिंत हो गए। देवहूति अपने पति कर्दम मुनि की प्रेम पूर्वक सेवा करने लगी। एक दिन पति कर्दम मुनि को प्रसन्न चित्त देखकर देवहूति ने कहा- प्रभो! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ रहूँगा अब उसकी पूर्ति होनी चाहिए। मनु नंदिनी देवहूति की बात सुनकर कर्दम जी ने एक स्वेच्छाचारी विमान की रचना की जिसमें स्वर्ग की सारी सुविधायें मौजूद थीं। आज के five star hotel की कल्पना हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले ही कर ली थी। उस विमान में दोनों ने सैंकड़ों वर्षों तक विहार किया। समय आने पर देवहूति ने एक ही साथ नौ कन्याओं को जन्म दिया। अपनी शर्त के अनुसार कर्दम जी सन्यस्थ होकर वन जाने लगे तब देवहूति ने मुसकुराते हुए उनको रोका और कहा- प्रभो! यदि आप वन में चले जाएंगे तो इन कन्याओं के लिए योग्य वर कौन ढ़ूंढ़ेगा और मेरे सुख-दुख का निवारण कौन करेगा? कर्दम जी ने कहा- मनुनंदिनी ! अपने बारे में तुम इस प्रकार खेद मत करो। तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। इस प्रकार बहुत दिन बीत जाने पर भगवान मधुसूदन कपिल मुनि के रूप में देवहूति के गर्भ से अवतीर्ण हुए। आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी। मधुर संगीत बजने लगे। चारों दिशाएँ आनंदित हो गईं।
बोलिए कपिल भगवान की जय-----
समय आने पर कर्दम जी ने अपनी कन्याओं का विवाह ऋषि-मुनियों के साथ कर दिया। स्वयं अपने पुत्र कपिल भगवान का चिंतन करते हुए संन्यास मार्ग पर चल दिए।
हमारी भारतीय नारियों की वाकपटुता देखिए, देवहूति के वाकचातुर्य के सामने कर्दम मुनि को झुकना पड़ा। उन्हें सन्यस्थ होने के पहले सम्पूर्ण गृहस्थ कर्म करना पड़ा।
सती सावित्री की वाकपटुता के सामने मृत्यु के देवता यमराज को भी हार माननी पड़ी थी और सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े थे। हमारी भारतीय नारियों का ऐसा आदर्श चरित्र रहा है।
वहीं कपिल भगवान ने अपनी माँ देवहूति को प्रसिद्ध सांख्य शास्त्र, अष्टांग योग और तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जिससे माँ देवहूति को मोक्ष पद की प्राप्ति हुई। जहां उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई उस स्थान को सिद्धिप्रद कहते हैं। इस प्रकार आज यहाँ प्रथम दिवस की कथा सम्पन्न हुई। आइए ! हरि नाम लें।
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी
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