विदेशियों की सोच, उनके कारनामे, नए विषयों पर सर्वे, मुझे हमेशा सोचने को उद्वेलित करते हैं। दिलचस्प यह है कि हमारे यहां उनसे काफी कुछ सीखने की खासी कोशिश की जाती है। वैसे भी हम विदेशियों से प्रेरित होने, प्रभावित होकर सीखने में महारत रखते हैं। बेशक, राग हम अपनी पारंपरिक भारतीय संस्कृति का अलापते रहें लेकिन इतना कुछ विदेशी हवा पानी हजम कर लिया, विदेशी वस्त्र पहन लिए जिन्हें भुलाना और छोड़ना अब मुश्किल है। कम कपडे उतार कर फेंकना सभ्य होना नहीं। एक बार छोटे छोटे रंग बिरंगे कपडे पहनने का शौक हो जाए तो ज़्यादा कपडे पहनना परेशान करने लगता है।
बात कपड़ों से, मरने के बाद जीने, पर लाते हैं। अब बता रहे हैं कि विदेश में मृत शरीर को फ्रिज करवाने का ट्रेंड उग रहा है। अमेरिकाजी और रूसजी में सैंकड़ों लोग ऐसा कर चुके हैं। ज़िंदगी से प्यार करने वाले ये लोग अपने नश्वर शरीर की ममी नहीं बनवा रहे बलिक फिर से ज़िंदा हो जाने की हसरत पाल कर अपने मृत शरीर को फ्रिज करवा रहे हैं। कमबख्त जीने की तमन्ना होती ही ऐसी है। जीने तमन्ना पहले होती है और मरने का इरादा बाद में रहता है। गाइड करने वाले, हमारे तो गाने भी ऐसा कहते हैं। हमारे यहां एक दूसरे को मारकर, प्रिय शरीर के लगभग तीन दर्जन टुकड़े कर, नए फ्रिज में रखने का, फिर अशुभ मुहर्त निकालकर, उचित समय पर जंगल या मनचाही जगहों पर उन टुकड़ों को फेंकने का बिलकुल ताज़ा ट्रेंड जीवित हो उठा है। इस सन्दर्भ में हम विदेशियों से आगे निकल आए हैं।
मरने के बाद जीने की नवोन्मेषी सोच के मामले में विदेशी वैज्ञानिक हमसे आगे हैं। वे मान रहे हैं कि मृत लोग अभी होश में नहीं, बेहोश हुए हैं। वैज्ञानिक अमुक तकनीक के सामने प्रार्थना कर रहे हैं, शायद वह आशीर्वाद दे दे और मृत शरीर फिर से जीवित शरीर हो जाएं। फ्रिज से निकलकर फिर से ज़िंदगी की इच्छाओं की स्वादिष्ट आइसक्रीम खाने लगें। हमारे यहां तो जिंदा रहना भी मुश्किल होता जा रहा है और मरना भी आरामदायक नहीं रहा। इच्छा मृत्यु चाहने वाले बढ़ते जा रहे हैं लेकिन उन्हें अनुमति देने वालों की इच्छा नहीं बढ़ रही। वे चाहते हैं कि बीमार, असहाय व गरीब अस्पतालों में भर्ती, रिश्तेदारों व परिवारों वालों को परेशान कर देने वाले लोग, यूं ही मौत की गोद में फ्रीज होते रहें। जीते हुए मरते रहें, एक दिन में कई बार मरें। बताते हैं मरने के बाद जीवित कर देने का प्रयोग करने में लगे व्यवसायिक लोग कई देशों में प्रयोगशालाएं स्थापित कर रहे हैं।
विदेशी वैज्ञानिकों को चाहिए कि आलतू फ़ालतू काम छोड़कर भूख न लगने की गोली बनाएं, प्यार बढाने का पाउडर बनाएं, नफरत के टुकड़े करने के स्प्रे का आविष्कार करें। प्रकृति और विज्ञान की उचित मित्रता ही सही विकास कर सकती है। लेकिन जब इस समन्वय के सूत्रधार ही पूरी तरह से कुदरती नियमों, विशेषकर इंसानी ज़िंदगी के नैसर्गिक प्रारूप को विकृत करने में संलिप्त हों तो लगता है सृष्टि के सर्वनाश का रास्ता और चौड़ा कर दिया है। कृत्रिम बुद्धि भी इंसानी दिमाग पर राज करने लगी है। इंसानी बुद्धि कुबुद्धि में तब्दील होती जा रही है। जो आया उसे एक दिन जाना है, इस विचार के विरुद्ध चलना सदबुद्धि का उदाहरण हो गया है।
- संतोष उत्सुक