योग से शुरू होता है जीवन निर्माण का नया दौर
योग धर्म का वास्तविक एवं प्रायोगिक स्वरूप है। दरअसल परम्परागत धर्म तो लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है। इसीलिये मेरी दृष्टि में योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए।
अनादिकाल से भारतभूमि योग भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। योगियों की गहन योग-साधना के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो योग-साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। संसार के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। इसके पश्चात पतंजली ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। कभी भगवान महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृतकृत्य किया था। इस महान् भूमि ने योग की गंगा को समूची दुनिया में प्रवाहित करके मानवता का महान् उपकार किया है।
भारत की धरा साक्षी है रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी। इसी योग मंदाकिनी से आज समूचा विश्व आप्लावित हो रहा है, निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है सम्पूर्ण मानवता के लिये। विश्व योग दिवस की सार्थकता इसी बात में है कि सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, विश्व मानवता का कल्याण हो। सचमुच योग वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। लोगों का जीवन योगमय हो, इसी से युग की धारा को बदला जा सकता है। गीता में लिखा भी है- योग स्वयं की स्वयं के माध्यम से स्वयं तक पहुँचने की यात्रा है।
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योग धर्म का वास्तविक एवं प्रायोगिक स्वरूप है। दरअसल परम्परागत धर्म तो लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है। इसीलिये मेरी दृष्टि में योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए। आदमी को आदमी बनाने का यही एक सशक्त माध्यम है। एक-एक व्यक्ति को इससे परिचित-अवगत कराने और हर इंसान को अपने अन्दर झांकने के लिये प्रेरित करने हेतु विश्व योग दिवस को और व्यवस्थित ढंग से आयोजित करने के उपक्रम होने चाहिए। इसी से योगी बनने और अच्छा बनने की ललक पैदा होगी। योग मनुष्य जीवन की विसंगतियों पर नियंत्रण का माध्यम है।
किसी भी व्यक्ति की जीवन-पद्धति, जीवन के प्रति दृष्टिकोण, जीवन जीने की शैली-ये सब उसके विचार और व्यवहार से ही संचालित होते हैं। आधुनिकता की अंधी दौड़ में, एक-दूसरे के साथ कदमताल से चलने की कोशिश में मनुष्य अपने वास्तविक रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल तथा जीने के सारे तौर-तरीके भूल रहा है। यही कारण है, वह असमय में ही भांति-भांति के मानसिक/भावनात्मक दबावों के शिकार हो रहा है। मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाने से शारीरिक व्याधियां भी अपना प्रभाव जमाना चालू कर देती है। जितनी आर्थिक संपन्नता बढ़ी है, सुविधादायी संसाधनों का विकास हुआ है, जीवन उतना ही अधिक बोझिल बना है। तनावों/दबावों के अंतहीन सिलसिले में मानवीय विकास की जड़ों को हिला कर रख दिया है। योग ही एक माध्यम है जो जीवन के असन्तुलन को नियोजित कर जीवन में शांति, स्वस्थता, संतुलन एवं खुशहाली का माहौल निर्मित करता है।
अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए कर्म, भक्ति, ज्ञान, जप, तप, प्राणायाम तथा सत्संग आदि अनेक साधन हैं। ये समस्त साधन विषयासक्ति के त्याग पर बल देते हैं। विषयासक्ति का त्याग ही वास्तविक विषय-त्याग है। आसक्ति अविद्याजनित मोह से होती है। जहां तक बुद्धि मोह से ढकी हुई है, वहां तक विषयों से वास्तविक वैराग्य नहीं हो सकता, कैवल्य प्राप्ति एवं मोक्ष तो संभव ही नहीं है। कहा गया है कि जब हमारा जीवन सांसारिक दलदल से निकल जाएगा तभी वास्तविक सुख एवं शांति अवतरित होगी।
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मानवीय व्यक्तित्व को समग्रता से उद्भाषित परिभाषित करने वाले चार सकार हैं- स्वास्थ्य, सौंदर्य, शक्ति और समृद्धि। इनकी प्राप्ति और सुरक्षा के लिए प्रत्येक समझदार व्यक्ति सतत प्रयत्नशील रहता है पर अपेक्षा है उल्लेखित चारों तत्व श्रृंखलाबद्ध हों, एक दूसरे से जुड़े हुए हों। इन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर जीवन को समग्रता प्रदान नहीं की जा सकती। उक्त सकार चतुष्टयी को एकसूत्रता में जोड़ने वाला सशक्त माध्यम है योग यानी स्वस्थ मनोभूमि का निर्माण। मन का धरातल यदि स्वस्थ न हो तो स्वास्थ्य कब क्षीण हो जाए, सौंदर्य पुष्प कब कुम्हला जाए, शक्ति कब चुक जाए और समृद्धि की इमारत कब भरभरा कर गिर पड़े, कहा नहीं जा सकता। अतः योग को जीवनशैली बनाना आवश्यक है।
भारत में विभिन्न योग पद्धतियां प्रचलित हैं, मेरे गुरु आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के रूप में नवीन ध्यान पद्धति प्रदत्त की है, जो अंतः सौन्दर्य को प्रकट करने एवं उसे देखने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का यह विलक्षण प्रयोग है। यह योग मनुष्य को पवित्र बनाता है, निर्मल बनाता है, स्वस्थ बनाता है। यजुर्वेद में की गयी पवित्रता-निर्मलता की यह कामना हर योगी के लिए काम्य है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन में सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करे, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करें।’’ योग के पथ पर अविराम गति से वही साधक आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त वाला व्यक्ति ही योग की गहराई तक पहुंच सकता है।
बर्टेंड रसेल अपने योगपूर्ण जीवन के सत्यों की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते हैं- ‘‘अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ धु्रव सत्य देखे हैं-पहला यह है कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। निरंकुश इच्छाएं चेतना पर हावी होकर जीवन को असंतुलित और दुःखी बना देती हैं। एक साधक आवश्यकता एवं आकांक्षा में भेदरेखा करना जानता है। इसलिए इच्छाएं उसे गलत दिशा में प्रवृत्त नहीं होने देतीं।’ आज योग दिवस के माध्यम से सारा मानव जाति आत्म-मंथन की ओर प्रवृत्त हो रही है, निश्चित ही दुनिया में व्यापक सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देगा।
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योग किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या भाषा से नहीं जुड़ा है। योग का अर्थ है जोड़ना, एकीकरण करना। अच्छी एवं सकारात्मक ऊर्जाओं को संगठित करने एवं परम परमात्मा से साक्षात्कार का यह अनूठा माध्यम है। इसलिए यह प्रेम, अहिंसा, करुणा और सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। योग, जीवन की प्रक्रिया की छानबीन है। यह सभी धर्मों से पहले अस्तित्व में आया और इसने मानव के सामने अनंत संभावनाओं को खोलने का काम किया। आंतरिक व आत्मिक विकास, मानव कल्याण से जुड़ा यह विज्ञान सम्पूर्ण दुनिया के लिए एक महान तोहफा है।
आज योगिक विज्ञान जितना महत्वपूर्ण हो उठा है, इससे पहले यह कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। आज हमारे पास विज्ञान और तकनीक के तमाम साधन मौजूद हैं, जो दुनिया के विध्वंस का कारण भी बन सकते हैं। ऐसे में यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे भीतर जीवन के प्रति जागरूकता और ऐसा भाव बना रहे कि हम हर दूसरे प्राणी को अपना ही अंश महसूस कर सकें, वरना अपने सुख और भलाई के पीछे की हमारी दौड़ सब कुछ बर्बाद कर सकती है। इन्हीं भावों के साथ अहिंसा विश्व भारती विश्व में योग को स्थापित करने एवं अहिंसक समाज रचना के संकल्प को आकार देने के लिये प्रयत्नशील है।
कहते हैं कि दुनिया की कुल आबादी में लगभग दस करोड़ व्यक्ति किसी न किसी मनोरोग से पीड़ित है। एक अध्ययन के अनुसार अकेले भारतवर्ष में ही दो करोड़ से अधिक लोग मनोरोगी हैं। जाने-अनजाने प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी मनोरोग से सदा पीड़ित रहता है। चिंता, घबराहट, नींद की कमी, निराशा, चिड़चिड़ापन, नकारात्मक सोच-ये सब मनोरोग के लक्षण हैं। यह मानसिक पंगुता की शुरुआत है। इससे मस्तिष्क कुंठित हो जाता है। बौद्धिक स्फुरणा अवरुद्ध हो जाती है। दिमागी मशीनरी के जाम होते ही शरीर-तंत्र भी अस्त-व्यस्त और निष्क्रिय हो जाता है। असंतुलित मन स्वयं रोगी होता है और तन को भी रोगी बना देता है। इस तरह एक बीमार एवं खंडित समाज का निर्माण हो रहा है, जिसे योग के माध्यम से ही संतुलित किया जा सकता है।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि इस आधुनिक युग में हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। हमारे रहन-सहन, बोल-चाल और खान-पान बिल्कुल ही बनावटी हो चुकी है। हमारी जिंदगी मशीनों पर पूरी तरह से निर्भर हो चुकी है। हमे एहसास भी नहीं है लेकिन हम इस दुनिया की ओर तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में योग ही वह कारगर उपाय है जो हमें बनावटी दुनिया से मुक्त करके प्रकृति और आध्यात्म की दुनिया की ओर ले जाती है, प्रकृतिस्थ बनाता है।
अगर लोगों ने अपने जीवन का, जीवन में योग का महत्व समझ लिया और उसे महसूस कर लिया तो दुनिया में व्यापक बदलाव आ जाएगा। जीवन के प्रति अपने नजरिये में विस्तार लाने, व्यापकता लाने में ही मानव-जाति की सभी समस्याओं का समाधान है। उसे निजता से सार्वभौमिकता या समग्रता की ओर चलना होगा। भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का आयोजन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, हमने गत वर्षों में अनेक महत्वपूर्ण राष्ट्रों में योग दिवस के सफलतम आयोजनों के माध्यम से दुनिया में योग का परचम फहराने का प्रयत्न किया, जो इस पूरी धरती पर मानव कल्याण और आत्मिक विकास की लहर पैदा करने की आहट थी।
- आचार्य डॉ लोकेशमुनि
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