क्षमा की धरती को उर्वरा बनाते हैं मैत्री के फूल

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ANI
ललित गर्ग । Sep 9 2024 11:55AM

भगवान महावीर ने क्षमा यानि समता का जीवन जीया। वे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, सभी परिस्थितियों में सम रहे। ‘‘क्षमा वीरो का भूषण है’’-महान् व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। पर्युषण पर्व क्षमा के आदान-प्रदान का पर्व है।

जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक पर्व है। इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। संपूर्ण जैन समाज इस पर्व के अवसर पर जागृत एवं साधनारत हो जाता है। आठ दिनों की कठोर साधना के बाद मैत्री दिवस का आयोजन होता है। पर्युषण पर्व का हृदय है-‘क्षमापना दिवस’ जिसे मैत्री दिवस भी कहते हैं। इस दिन अपनी भूलों या गलतियों के लिए क्षमा मांगना एवं दूसरों की भूलों को भूलना, माफ करना, यही इस पर्व को मनाने की सार्थकता सिद्ध करता है। यदि कोई व्यक्ति इस दिन भी दिल में उलझी गांठ को नहीं खोलता है, तो वह अपने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में प्रश्न चिन्ह खड़ा कर लेता है। क्षमायाचना करना, मात्र वाचिक जाल बिछाना नहीं है। परंतु क्षमायाचना करना अपने अंतर को प्रसन्नता से भरना है। बिछुड़े हुए दिलों को मिलाना है, मैत्री एवं करुणा की स्रोतस्विनी बहाना है।

मैत्री पर्व का दर्शन बहुत गहरा है। मैत्री तक पहुंचने के लिए क्षमायाचना की तैयारी जरूरी है। क्षमा लेना और क्षमा देना मन परिष्कार की स्वस्थ परम्परा है। क्षमा मांगने वाला अपनी कृत भूलों को स्वीकृति देता है और भविष्य में पुनः न दुहराने का संकल्प लेता है जबकि क्षमा देने वाला आग्रह मुक्त होकर अपने ऊपर हुए आघात या हमलों को बिना किसी पूर्वाग्रह या निमित्तों को सह लेता है। क्षमा ऐसा विलक्षण आधार है जो किसी को मिटाता नहीं, सुधरने का मौका देता है। भगवान महावीर ने कहा-‘अहो ते खंति उत्तमा’-क्षांति उत्तम धर्म है। ‘तितिक्खं परमं नच्चा’-तितिक्षा ही जीवन का परम तत्व है, यह जानकर क्षमाशील बनो। पयुर्षण महापर्व से जुड़ा मैत्री पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है, जो एकाग्रता एवं एकांत आध्यात्मिक जिज्ञासाएं जगाकर एक समृद्ध एवं अलौकिक अनुभव तक ले जाता है। इस भीड़भाड़ से कहीं दूर सबसे पहली जो चीज व्यक्ति इस पर्युषण की साधना से सीखता है वह है -‘अनुशासनयुक्त मैत्रीमय जीवन।’ यह विलक्षण साधना तनावमुक्ति का विशिष्ट प्रयोग है जिससे शरीर को आराम मिलता है, अपने आपको, अपने भीतर को, अपने सपनों को, अपनी आकांक्षाओं तथा उन प्राथमिकताओं को जानने का यह अचूक तरीका है, जो घटना-बहुल जीवन की दिनचर्या में दब कर रह गयी है। इस दौरान परिवर्तन के लिये कुछ समय देकर हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं तथा साथ ही इससे अपनी आंतरिक प्रकृति को समझ सकते हैं, उसे उन्नत एवं समृद्ध बना सकते हैं। 

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भगवान महावीर ने क्षमा यानि समता का जीवन जीया। वे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, सभी परिस्थितियों में सम रहे। ‘‘क्षमा वीरो का भूषण है’’-महान् व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। पर्युषण पर्व क्षमा के आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं वह एक दूसरे से गले मिलते हैं। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा के द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं। पर्युषण महापर्व का समापन मैत्री दिवस के साथ होता है। इस तरह से पर्युषण महापर्व एवं क्षमापना दिवस- यह एक दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। यह एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है -‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’’-श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन ! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो। भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’ सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन, आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्त्व इस पर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से इस महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है।

पर्युषण पर्व आत्म उन्नति, अहिंसा, शांति और मैत्री का पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, युद्ध, आतंक, आपसी-द्वेष, नक्सलवाद एवं भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई है और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए मैत्री पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक-निरोगी-शांतिमय जीवन शैली का प्रयोग है। आज भौतिकता एवं स्वार्थपूर्ण जीवन की चकाचौंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाये रखना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए जैन समाज संवेदनशील बने विशेषतः युवा पीढ़ी मैत्री पर्व की मूल्यवत्ता से परिचित हो और वे आत्मचेतना को जगाने वाले इन दुर्लभ क्षणों से स्वयं लाभान्वित हो और जन-जन के सम्मुख मैत्री का एक आदर्श प्रस्तुत करे।  

तथागत बुद्ध ने कहा-क्षमा ही परमशक्ति है। क्षमा ही परम तप है। क्षमा धर्म का मूल है। क्षमा के समकक्ष दूसरा कोई भी तत्व हितकर नहीं है। क्योंकि प्रेम, करुणा और मैत्री के फूल सहिष्णुता और क्षमा की धरती पर ही खिलते हैं। ‘सबके साथ मैत्री करो’ यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है किंतु हम वर्तमान संबंधों को बहुत सीमित बना लेते हैं। दर्द सबका एक जैसा होता है, पर हम चेहरों को देखकर अपना-अपना अन्दाज लगाते हैं। यह स्वार्थपरक व्याख्या हमें प्रेम से जोड़ सकती है मगर करुणा से नहीं। प्रेम में स्वार्थ है, राग-द्वेष के संस्कार है, जबकि करुणा परमार्थ का पर्याय बनती है। कहा जाता है-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ वसुधा कुटुम्ब है, परिवार है। ‘मित्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणई’- यह सार्वभौम अहिंसा एवं सौहार्द का ऐसा संकल्प है जहां वैर की परम्परा का अंत होता है। 

मित्रता का भाव हमारे आत्म-विकास का सुरक्षा कवच है। आचार्य श्री तुलसी ने इसके लिए सात सूत्रों का निर्देश किया। मित्रता के लिए चाहिए- विश्वास, स्वार्थ-त्याग, अनासक्ति, सहिष्णुता, क्षमा, अभय, समन्वय। यह सप्तपदी साधना जीवन की सार्थकता एवं सफलता की पृष्ठभूमि है। विकास का दिशा-सूचक यंत्र है। मित्रता का यह पर्व आमंत्रित कर रहा है अपनी ओर, बांहें फैलाये हुए, हमें बिना कुछ सोचे, ठिठके बगैर, भागकर मित्रता की पगडंडी को पकड़ लेने के लिये। जीवन रंग-बिरंगा है, यह श्वेत है और श्याम भी। मित्रता की यही सरगम कभी कानों में जीवनराग बनकर घुलती है तो कहीं उठता है संशय का शोर। मित्रता को मजबूत बनाता है हमारा संकल्प, हमारी जिजीविषा, हमारी संवेदना लेकिन उसके लिये चाहिए समर्पण एवं अपनत्व की गर्माहट। यह जीना सिखाता है, जीवन को रंग-बिरंगी शक्ल देता है। प्रेरणा देता है कि ऐसे जिओ कि खुद के पार चले जाओ। ऐसा कर सके तो हर अहसास, हर कदम और हर लम्हा खूबसूरत होगा और साथ-साथ सुन्दर हो जायेगी जिन्दगी।

मानवीय संवेदनाओं एवं आपसी रिश्तों की जमीं सूखती जा रही है ऐसे समय में एक दूसरे से जुड़े रहकर जीवन को खुशहाल बनाने और दिल में जादुई संवेदनाओं को जगाने का सशक्त माध्यम है मैत्री दिवस। क्षणिक और स्वार्थों पर टिकी मित्रता वास्तव में मित्रता नहीं, केवल एक पहचान मात्र होती है ऐसे मित्र कभी-कभी बड़े खतरनाक भी हो जाते हैं। जिनके लिए एक विचारक ने लिखा है- ‘‘पहले हम कहते थे, हे प्रभु! हमें दुश्मनों से बचाना परन्तु अब कहना पड़ता है, हे परमात्मा, हमें दोस्तों से बचाना।’’ दुश्मनों से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं दोस्त। विश्व मैत्री दिवस वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने एवं दुःख बटोरने की मनोवृत्ति को विकसित करने का दुर्लभ अवसर प्रदत्त करता है। इस दिवस को मनाने का मूल हार्द यही है कि मित्रता में विचार-भेद और मत-भेद भले ही हों मगर मन-भेद नहीं होना चाहिए। क्योंकि विचार-भेद क्रांति लाता है जबकि मन-भेद विद्रोह। क्रांति निर्माण की दस्तक है, विद्रोह बरबादी का संकेत। प्रेषकः

- ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

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