National Books Lovers Day 2024: जादुई संसार रचने वाली पुस्तकें सच्ची मित्र होती है

National Books Lovers Day
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ललित गर्ग । Aug 9 2024 1:12PM

लोग किताबों से इसलिए प्यार करते हैं क्योंकि उनमें अपार संभावनाएं होती हैं। वे आपको कल्पना की एक नई दुनिया में ले जा सकती हैं। वे आपके जीवन की समस्याओं और बोझ से बचने और भावनाओं के गहन सागर में खो जाने का एक तरीका हैं।

इंसान की ज़िंदगी विचारों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। वैचारिक क्रांति एवं विचारों की जंग में पुस्तकें सबसे बड़ा हथियार है। जिसके लिए न तो कोई लाइसेंस लेना है, न ही इसके लिए किसी नियम-क़ायदे से गुज़रना है, लेकिन यह हथियार जिसके पास हैं, वह ज़िंदगी की जंग हारेगा नहीं। जब लड़ाई वैचारिक हो तो किताबें हथियार का काम करती हैं। पुस्तक का इतिहास शानदार और परम्परा भव्य रही है। पुस्तकें मनुष्य की सच्ची मार्गदर्शक हैं। पुस्तकें सिर्फ जानकारी और मनोरंजन ही नहीं देती बल्कि हमारे दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखती हैं। आज डिजिटलीकरण के समय भले ही पुस्तकों की उपादेयता एवं अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहा हो लेकिन समाज में पुस्तकें हर दौर में प्रासंगिक बनी रहेगी। पुस्तके मनुष्य जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है और पुस्तक-प्रेम के कारण ही प्रतिवर्ष 9 अगस्त को राष्ट्रीय पुस्तक प्रेमी दिवस मनाया जाता है, यह दिन उन लोगों के लिए है जो किताबों और पढ़ाई के बिना नहीं रह सकते।

लोग किताबों से इसलिए प्यार करते हैं क्योंकि उनमें अपार संभावनाएं होती हैं। वे आपको कल्पना की एक नई दुनिया में ले जा सकती हैं। वे आपके जीवन की समस्याओं और बोझ से बचने और भावनाओं के गहन सागर में खो जाने का एक तरीका हैं। पुस्तक न केवल शिक्षा बल्कि जीवन-विकास का कभी न खत्म होने वाला स्रोत हैं। वे अतीत की यादें संजोकर रखती हैं क्योंकि पुस्तकें हमें अतीत से साक्षात्कार कराने का सशक्त माध्यम है। निश्चित ही किताबें जादुई होती हैं। पुस्तकें वैचारिक जंग के साथ-साथ जीवन-जंग को जीतने का सक्षम आधार है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पुस्तकों के महत्व पर लिखा है कि तोप, तीर, तलवार में जो शक्ति नहीं होती, वह शक्ति पुस्तकों में रहती है। तलवार आदि के बल पर तो हम केवल दूसरों का शरीर ही जीत सकते हैं, किंतु मन को नहीं। लेकिन पुस्तकों की शक्ति के बल पर हम दूसरों के मन और हृदय को जीत सकते हैं। ऐसी जीत ही सच्ची और स्थायी हुआ करती है, केवल शरीर की जीत नहीं! 

रेडियो पर अपने मन की बात के जरिये प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने हिन्दी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचन्द का उल्लेख करते हुए लोगों से अपने दैनिक जीवन में किताबें पढ़ने की आदत डालने का आह्वान किया। साथ ही उपहार में ‘बुके नहीं बुक’ यानी किताब देने की बात कही। पुस्तक-संस्कृति को जनजीवन में प्रतिष्ठापित करने की दृष्टि से उनकी यह एक नयी प्रेरणा, झकझोरने एवं सार्थक दिशाओं की ओर अग्रसर करने की मुहिम बनी है। जिससे नया भारत निर्मित होगा एवं पढ़ने की कम होती रूचि पर विराम लगेगा। पुस्तक एवं पुस्तकालय क्रांति के नये दौर का सूत्रपाठ होगा। मोदी ने प्रेमचन्द की तीन मशहूर कहानियों ईदगाह, नशा और पूस की रात का जिक्र किया और उन कहानियों में व्यक्त संवेदना की भी चर्चा की। निश्चित ही इससे देश में संवेदनहीनता एवं संवादहीनता की खाई को भरा जा सकेगा। 

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भारत सरकार द्वारा एक करोड़ का गांधी शांति पुरस्कार सौ साल से सनातन संस्कृति की संवाहक एवं पुस्तकों का सुन्दर संसार निर्मित करने के लिये गीता प्रेस, गोरखपुर को दिया गया था। 1800 पुस्तकों की अब तक 92 करोड़ से अधिक प्रतियां प्रकाशित करने वाले गीता प्रेस को इस पुरस्कार के लिये चुना जाना एक सराहनीय एवं सूझबूझभरा उपक्रम होने के साथ पुस्तक-प्रेम को बल देने का सराहनीय प्रयास है। क्योंकि गीता प्रेस की पुस्तकें भारतीय सनातनी घरों के जीवन का हिस्सा है। वस्तुतः पुस्तकें सचमुच हमारी मित्र हैं। वे अपना अमृतकोश सदा हम पर न्यौछावर करने को तैयार रहती हैं। उनमें छिपी अनुभव की बातें हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हमारे मन में उठ रहे सवालों का जवाब पाने के लिए पुस्तकों से बेहतर ज़रिया कोई भी नहीं। तब भी जब हमारे आस-पास कोई नहीं है, हम अकेले हैं, उदास हैं, परेशान हैं, किताबें हमारी सच्ची दोस्त बनकर हमें सहारा देती हैं। पुस्तकों का महत्व एवं क्षेत्र सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वदैशिक है। जहां तक जीवन की पहुंच है, वहां तक पुस्तकों का क्षेत्र है। पुस्तकों की यही कसौटी बताई गयी है कि वे जीवन से उत्पन्न होकर सीधे मानव जीवन को प्रभावित करती है। 

पुस्तकों का आविष्कार उन भारी पत्थरों की जगह लेने के लिए किया गया था जहाँ मूल रूप से पाठ और चित्र उकेरे जाते थे, क्योंकि कई लोगों को उन्हें ले जाने में कठिनाई होती थी। पहली किताबें चर्मपत्र या बछड़े की खाल से बनी होती थीं और उनका कवर लकड़ी से बना होता था जिसे चमड़े में लपेटा जाता था। पहले के दिनों में किताबें बड़ी होती थीं और महंगे चमड़े से बंधी होती थीं। इसलिए, केवल अमीर लोग ही उन्हें खरीद सकते थे। उन्नीसवीं सदी के पहले भाग में औद्योगिक क्रांति के साथ और प्रिंटिंग प्रेस, पल्प पेपर मिलों और मैकेनिकल टाइपसेटिंग की व्यापक उपलब्धता के साथ, सस्ती पेपरबैक किताबें प्रकाशित और वितरित की जाने लगीं। इस प्रकार, यह न केवल आम लोगों के लिए सस्ती थी, बल्कि इसे ले जाना भी आसान था। पुस्तकें पढ़ने का कोई एक लाभ नहीं होता। 

पुस्तकें मानसिक रूप से मजबूत बनाती हैं तथा सोचने समझने के दायरे को बढ़ाती हैं। पुस्तकें नई दुनिया के द्वार खोलती हैं, दुनिया का अच्छा और बुरा चेहरा बताती, अच्छे बुरे की तमीज पैदा करती हैं, हर इंसान के अंदर सवाल पैदा करती हैं और उसे मानवता एवं मानव-मूल्यों की ओर ले जाती हैं। मनुष्य के अंदर मानवीय मूल्यों के भंडार में वृद्धि करने में पुस्तकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये पुस्तकें ही हैं जो बताती हैं कि विरोध करना क्यूँ जरूरी है। ये ही व्यवस्था विरोधी भी बनाती हैं तो समाज निर्माण की प्रेरणा देती है। समाज में कितनी ही बुराइयां व्याप्त हैं उनसे लड़ने और उनको खत्म करने का काम पुस्तकें ही करवाती हैं। शायद ये पुस्तकें ही हैं जिन्हें पढ़कर स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, आचार्य तुलसी एवं नरेन्द्र मोदी दुनिया की एक महाशक्ति बने हैं। वे स्वयं तो महाशक्ति बने ही है, अपने देश के हर नागरिक को शक्तिशाली बनाया या बनाना चाहते हैं, इसीलिये उन्होंने देश भर में एक पुस्तक-पठन तथा पुस्तकालय आंदोलन का आह्वान किया है, जिससे न सिर्फ लोग साक्षर होंगे, बल्कि सामाजिक व आर्थिक बदलाव भी आएगा।

पुस्तकों से ही आदर्श समाज की संरचना हो सकती है। लोकमान्य गंगाधर तिलक ने कहा था कि यदि कोई मुझे सम्राट बनने के लिये कहे और साथ ही यह शर्त रखे कि तुम पुस्तकें नहीं पढ़ सकोगे तो मैं राज्य को तिलांजलि दे दूंगा और गरीब रहकर ही साहित्य पढूंगा।’ यह पुस्तकीय सत्य नहीं, अनुभूति का सत्य है। अतः साहित्य के महत्व को वही आंक सकता है, जो उसका पारायण करता है। अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन कहते थे, ‘‘मेरा सबसे अच्छा मित्र वह है जो मुझे ऐसी किताब दे, जो मैंने पढ़ी न हो।’’ भले ही आज के इंटरनैट फ्रैंडली वर्ल्ड में सीखने के लिए सब कुछ इंटरनैट पर मौजूद है लेकिन इन सब के बावजूद जीवन में पुस्तकों का महत्व आज भी बरकरार है क्योंकि पुस्तकें बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हमारे सच्चे दोस्त का हर फर्ज अदा करती आई हैं। उन्नत एवं सफल जीवन के लिये पुस्तकों के पठन-पाठन की संस्कृति को जीवंत करना वर्तमान समय की बड़ी जरूरत है। क्योंकि पुस्तकों में तोप, टैंक और एटम से भी कई गुणा अधिक ताकत होती है। अणुअस्त्र की शक्ति का उपयोग ध्वंसात्मक ही होता है, पर सत्साहित्य मानव-मूल्यों में आस्था पैदा करके स्वस्थ समाज की संरचना करती है। पुस्तकें समाज एवं राष्ट्र रूपी शरीर की मस्तिष्क होती है, जिनसे हमारी रूचि जागे, आध्यात्मिक एवं मानसिक तृप्ति मिले, हममें शक्ति एवं गति पैदा हो, हमारा सौन्दर्यप्रेम एवं स्वाधीनता का भाव जागृत हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश उपलब्ध हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न करें।

- ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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