उत्तराखण्ड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण के प्राकृतिक नजारे मंत्रमुग्ध कर देते हैं
गैरसैंण समूचे उत्तराखण्ड के बीचों-बीच तथा सुविधा सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। यह हिमालय क्षेत्र की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत, ठेठ कुमांऊॅंनी-गढ़वाली सभ्यता व संस्कृति, पर्वतीय जीवन शैली तथा अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए भी जाना जाता है।
उत्तराखण्ड में लगभग 20 साल के लंबे संघर्ष के बाद गैरसैंण को आखिरकार राजधानी का दर्जा मिल ही गया। गैरसैंण भले उत्तराखण्ड की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनी हो लेकिन इससे निश्चित ही यहां का कायाकल्प हो जायेगा। खूबसूरत प्राकृतिक नजारों से भरपूर गैरसैंण को राजधानी बनाने का आंदोलन भावनात्मक मुद्दा भी था जिसका समाधान आखिरकार हो ही गया। उत्तराखण्ड राज्य के लिए जब से आंदोलन चला था तब से लोगों की यही मांग थी कि गैरसैंण को ही राजधानी बनाया जाये। अभी देहरादून राज्य की राजधानी है लेकिन उसे अस्थायी राजधानी का ही दर्जा प्राप्त है। वैसे देखा जाये तो इसी के साथ ही उत्तराखण्ड देश का ऐसा पांचवां राज्य बन गया है जहां दो राजधानियां हैं।
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उत्तराखण्ड के चमोली जिले में पड़ने वाले गैरसैंण नाम दो स्थानीय बोलियों के शब्दों से मिलाकर बना है। कुमाऊंनी और गढ़वाली भाषा में गैर का मतलब गहरा स्थान है और सैंण का मतलब मैदानी भूभाग है। इस तरह यदि आप गैर और सैंण को मिला देंगे तो इसका आशय होगा- गहरे में समतल मैदानी क्षेत्र। देहरादून से लगभग 260 किलोमीटर दूर गैरसैंण दुधाटोली पहाड़ी पर स्थित है, जहां पेन्सर की छोटी-छोटी पहाड़ियां हैं और यहीं पर रामगंगा का उद्भव है।
पौराणिक कथाओं तथा ग्रन्थों में गैरसैंण को केदार क्षेत्र या केदारखण्ड कहा गया है। सातवीं शताब्दी के आस-पास यहां आये चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इस क्षेत्र में ब्रह्मपुर नामक राज्य होने का वर्णन किया है। यह क्षेत्र अर्वाचीन काल से ही भारतवर्ष की हिमालयी ऐतिहासिक, आध्यात्मिक व सॉस्कृतिक धरोहर को समेटे हुए है। लोकप्रचलित कथाओं के अनुसार प्रस्तुत इलाके का पहला शासक यक्षराज कुबेर था। कुबेर के पश्चात् यहां असुरों का शासन रहा, जिनकी राजधानी वर्तमान उखीमठ में हुआ करती थी। महाभारत के युद्ध के बाद इस क्षेत्र में नाग, कुनिन्दा, किरात और खस जातियों के राजाओं का वर्चस्व भी माना जाता रहा है। ईसा से 2500 वर्ष पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कत्यूरियों के अधीन रहा, तत्पश्चात तेरहवीं शताब्दी से लगभग सन् 1803 तक गढ़वाल के परमार राजवंश के अधीन रहा। सन् 1803 में आये एक भयंकर भूकंप के कारण इस क्षेत्र का जन-जीवन व भौगोलिक-सम्पदा बुरी तरह तहस-नहस हो गयी थी और इसके कुछ समय बाद ही गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखाओं ने इस क्षेत्र पर आक्रमण कर कब्ज़ा कर लिया और 1803 से 1815 तक यहां गोरखा राज रहा। 1815 के गोरखा युद्ध के बाद 1815 से 14 अगस्त, 1947 तक यहां ब्रिटिश शासनकाल रहा। इसी ब्रिटिश शासनकाल के अन्तराल 1839 में गढ़वाल जिले का गठन कर अंग्रेजी हुकूमत ने इस क्षेत्र को कुमाऊँ से गढ़वाल जिले में स्थानांतरित कर दिया तथा 20 फरवरी 1960 को इसे चमोली जिले बना दिया गया।
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गैरसैंण समुद्र सतह से लगभग 5750 फुट की ऊँचाई पर स्थित मैदानी तथा प्रकृति का सुन्दरतम भू-भाग है। यह समूचे उत्तराखण्ड के बीचों-बीच तथा सुविधा सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। यह हिमालय क्षेत्र की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत, ठेठ कुमांऊॅंनी-गढ़वाली सभ्यता व संस्कृति, पर्वतीय जीवन शैली तथा अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए भी जाना जाता है।
गैरसैंण आने के लिए निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर हवाई अड्डा है। एअरपोर्ट से गैरसैंण की दूरी लगभग 200 किलोमीटर है। रेल मार्ग से यहां आना चाहें तो फिलहाल भारतीय रेल द्वारा गैरसैंण पहुंचने के लिये दो रेलवे स्टेशन मौजूद हैं। पहला रेलवे जंक्शन काठगोदाम है, जहां से गैरसैंण लगभग 175 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। दूसरा रेलवे जंक्शन रामनगर में है जहां से गैरसैंण की दूरी लगभग 150 किलोमीटर है। सड़क मार्ग से आना चाहें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के आनन्द विहार बस अड्डे से यहां के लिए उत्तराखण्ड परिवहन की बसें नियमित रूप से उपलब्ध होती हैं। जिनके द्वारा 15-20 घंटों में गैरसैंण पहुंच सकते हैं।
-प्रीटी
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