प्रधानमंत्रियों के अंतिम संस्कार और स्मारक के लिए अपनाए गए दोहरे मापदंड पर खुद घिरी कांग्रेस
ऐसे में सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या नेहरू-गांधी परिवार के इशारे पर भारत सरकार फैसले लेगी या फिर कोई स्वस्थ परम्परा शुरू करेगी। वहीं, इस मसले पर राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति में भी भेद नहीं होना चाहिए, क्योंकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति भी होता है।
पहले पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव और अब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार और उनके स्मारक को लेकर जो घिनौनी राजनीति 'कांग्रेस परिवार' खासकर नेहरू-गांधी परिवार ने शुरू की है, वह बेहद लज्जाजनक और भारतीय राजनीति पर किसी काले धब्बे की मानिंद है। इससे देश का सत्तापक्ष, विपक्ष और जनमानस सभी शर्मसार हुए हैं।
दरअसल, कांग्रेस व विपक्षी दल के कई नेता चाहते थे कि डॉ. मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार राजघाट के पास किया जाए और वहीं पर उनका समाधि स्थल भी बनवाया जाए। जबकि केंद्र सरकार ने डॉक्टर मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार निगमबोध घाट पर किए जाने का फैसला लिया और बाद में उनका स्मारक बनवाए जाने की बात कही। इसी मसले पर सियासत शुरू हो गई।
वहीं, इस मसले पर अबतक हुए सियासी वार-पलटवार में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस घिर चुकी है। क्योंकि अब आईना दिखाया जा रहा है कि प्रधानमंत्रियों के अंतिम संस्कार और स्मारक के लिए खुद कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार ने ही दोहरे मापदंड अपनाए थे। जबकि वह नाहक ही इस मसले पर भाजपा को घेर रही है ताकि फरवरी 2025 में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनावों में उसे इसका भावनात्मक लाभ मिल सके।
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ऐसे में सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या नेहरू-गांधी परिवार के इशारे पर भारत सरकार फैसले लेगी या फिर कोई स्वस्थ परम्परा शुरू करेगी। वहीं, इस मसले पर राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति में भी भेद नहीं होना चाहिए, क्योंकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति भी होता है। बताया गया है कि राजघाट पर स्मारक के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री और विशिष्ट योगदान देने वाले लोगों की चर्चा तो है, लेकिन उसमें उपराष्ट्रपति का पद शामिल नहीं है। यह हैरतअंगेज है।
सवाल है कि पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव को मरणोपरांत समुचित पार्टीगत सम्मान व स्मारक हेतु दिल्ली में स्थान नहीं देने का आरोपी 'कांग्रेस परिवार' अब किस मुंह से पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के लिए मरणोपरांत अंत्येष्टि व स्मारक हेतु राजघाट, दिल्ली में स्थान मांग रहा है और इसे नहीं देने का आरोप 'बीजेपी परिवार' पर लगा रहा है, जबकि एनडीए के नेतृत्व वाले मोदी सरकार की ऐसी कोई नकारात्मक मंशा नहीं है। इस बावत हुए सरकारी पत्राचार और बयानबाजियां इस बात की पुष्टि कर रही हैं।
बता दें कि अपने ही पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव को मरणोपरांत समुचित पार्टी स्तरीय सम्मान व स्मारक हेतु दिल्ली में स्थान नहीं देने के लिए जो तत्कालीन मनमोहन सरकार दोषी थी, अब उसी पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के निधनोपरांत निगमबोध घाट पर हुई उनकी अंत्येष्टि क्रिया करवाए जाने व उनके स्मारक के लिए राजघाट पर अपेक्षित स्थायी जगह नहीं दिए जाने के आरोप मढ़कर कांग्रेस पार्टी भाजपा नीत राजग गठबंधन की मोदी सरकार को दोषी ठहरा रही है। जबकि ऐसा करने से पहले उसे खुद
अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।
इस मुद्दे पर पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के भाई मनोहर राव ने कांग्रेस पर निशाना साधा और कहा कि कांग्रेस को 20 वर्ष पीछे मुड़कर देखना चाहिए कि उन्होंने अपने नेता पीवी नरसिंह राव को कितना सम्मान दिया। तब सोनिया गांधी उनके अंतिम संस्कार में शामिल तक नहीं हुई थीं। एक न्यूज एजेंसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने उनके लिए एक भी प्रतिमा का निर्माण नहीं किया या उन्हें भारत रत्न नहीं दिया। हालांकि, आप अपनी औपचारिकताएं पूरी करें, तब बीजेपी निश्चित रूप से डॉ. मनमोहन सिंह के स्मारक के लिए भूमि देगी।
वहीं, सियासी हद तो यह है कि कांग्रेस इसे अल्पसंख्यक पंजाबी समुदाय विरोधी कृत्य बताते हुए डॉ मनमोहन सिंह का अपमान करार दे रही है, जो पूर्णतया सही नहीं है। इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने से पहले उसे अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। उसने अपने ही पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहराव के साथ जो सुलूक किया, वैसा उदाहरण विरले ही मिलता है।
वहीं, हैरत की बात तो यह भी है कि कांग्रेस द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव को नजदीक देखकर इस पूरे घटनाक्रम से सिखों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का प्रयास किया गया और निगम बोध घाट पर डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार को सिखों का अपमान बताया गया। जबकि इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है, क्योंकि दिल्ली के सरदार 1984 के सिख विरोधी दंगों को नहीं भूले हैं। इसी की भरपाई के लिए उसने डॉ मनमोहन सिंह को पीएम तक बनाया, लेकिन पंजाबी समुदाय के लोकप्रिय नेता के रूप में वो अपनी छवि नहीं गढ़ सके। क्योंकि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें कभी फ्री हैंड नहीं दिया!
आलम यह है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस को आप और अकाली दल शिरोमणि के नेताओं का भी साथ मिल गया है, जिनका दिल्ली से लेकर पंजाब की सियासत पर अपना वर्चस्व है। इन दोनों दलों ने भी केंद्र सरकार पर सिखों के अपमान का आरोप लगाया है। हालांकि ऐसा सिर्फ इसलिए कि दिल्ली में लगभग 4 प्रतिशत सिख मतदाता हैं, जिसमें राजौरी गार्डन व तिलक नगर जैसे विधानसभा क्षेत्रों में इनकी आबादी 35 प्रतिशत है, जबकि हरि नगर जैसे विधानसभा क्षेत्र में उनकी संख्या 17 प्रतिशत से अधिक है।
वहीं, नई दिल्ली, पूर्वी दिल्ली और चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र में आने वाले कई विधानसभा क्षेत्रों में भी पंजाबी समुदाय की अच्छी संख्या है। जानकार बताते हैं कि पहले कांग्रेस व भाजपा-अकाली गठबंधन में सिख मतों का बंटवारा होता था। लेकिन अब भाजपा व अकाली अलग हो गए हैं जिससे उनका विभाजन संभव है। चूंकि, कांग्रेस की पकड़ भी सिख मतों पर कमजोर हुई है। इसलिए आप को इसका फायदा मिल सकता है। पिछले दोनों विधानसभा चुनाव व दिल्ली नगर निगम चुनाव में आप को सिखों का अच्छा समर्थन मिला था, लेकिन लोकसभा चुनाव में सिख बहुल क्षेत्रों में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है।
इसलिए इन सभी दलों के सामने सिखों को अपने साथ जोड़ने की चुनौती है। जबकि भाजपा ने कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली सहित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के कई सदस्यों को अपने साथ जोड़कर सिखों को अपने साथ जोड़ने में लगी हुई है। इससे आप के साथ ही कांग्रेस व अकाली दल परेशान है। तीनों पार्टियों के बीच दिल्ली के साथ ही पंजाब के सिखों को भी अपने साथ जोड़ने की चुनौती है।
उल्लेखनीय है कि फरवरी 2025 के पहले सप्ताह में दिल्ली विधानसभा चुनाव है, जिसके चलते भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियां इसे सिख समुदाय का अपमान बताते हुए इसे मुद्दा बनाने का प्रयास कर रही हैं। वहीं, भाजपा ने भी इनकी सियासी मानसिकता पर पलटवार किया है, जिसे लेकर राजनीति के और अधिक तेज होने की अटकलें लगाई जा रही है। एक तरफ जहां कांग्रेस, आप और अकाली दल शिरोमणि के नेता डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के अगले दिन से ही बयानबाजी शुरू कर दी है। वहीं, दूसरी तरफ भाजपा भी मुखर होकर कांग्रेस पर घटिया राजनीति करने के आरोप लगा रही है। दुःख के जिस क्षण में कांग्रेस ने इस मुद्दे को सुलगाया, उससे उसका पीवी नरसिम्हाराव वाला जख्म ही जनमानस में हरा हो गया। इससे भाजपा की मोदी सरकार को भी आईना दिखाने का मौका मिल गया।
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी सहित कांग्रेस के अन्य बड़े नेता केंद्र सरकार व भाजपा पर सिखों के अपमान का आरोप लगा रहे हैं। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा है कि डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार और स्मारक के लिए स्थान न ढूंढना भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री का जानबूझकर किया गया अपमान है। वहीं, गत बृहस्पतिवार को कांग्रेस को आइएनडीआइए से बाहर निकलवाने की धमकी देने वाले आप नेता भी भाजपा विरोधी बयानबाजी में पीछे नहीं हैं। आप सांसद संजय सिंह ने शुक्रवार को प्रेसवार्ता कर मनमोहन सिंह भारत रत्न देने की मांग की। वहीं, निगम बोध घाट पर उनके अंतिम संस्कार के निर्णय को अरविंद केजरीवाल सहित अन्य आप नेता सिख समुदाय का अपमान बता रहे हैं। अकाली नेता भी इसे सिखों का अपमान बता रहे हैं। वहीं, शिरोमणि अकाली दल के उपप्रधान और मुख्य प्रवक्ता डॉ. दलजीत सिंह चीमा ने कहा है कि प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले पहले और एकमात्र सिख के रूप में मनमोहन सिंह की विरासत का बहुत महत्व है।
अब उनके समाधि स्थल को लेकर चल रही सियासत के बीच सवाल यह है कि आखिर देश में दिवंगत प्रधानमंत्रियों के स्मारक बनाने की प्रक्रिया क्या है? भले ही देश के कई पूर्व प्रधानमंत्रियों की समाधि दिल्ली में बनाई गई है, लेकिन कुछ प्रधानमंत्रियों को इसके लिए दिल्ली में जगह नहीं मिली थी। इसके लिए भी कांग्रेस सरकार ही दोषी थी।
उल्लेखनीय है कि समाधि स्थल के निर्माण के लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति आवश्यक होती है। सरकार यह निर्णय लेती है कि किसी दिवंगत नेता को राजघाट परिसर में समाधि स्थल बनाया जाएगा या नहीं। दरअसल, दिल्ली के राजघाट परिसर और उसके आसपास ही समाधि स्थल बनाए जाते हैं, क्योंकि यह जगह राष्ट्रीय स्मारक स्थल के रूप में स्थापित है। हालांकि राजघाट में स्थान सीमित होने के कारण, समाधि स्थलों का आवंटन बहुत ही चयनित और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए किया जाता है। इस नजरिए से निगम बोध घाट पर शुरू हुई पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के अंत्येष्टि की परम्परा एक नई और स्वस्थ शुरुआत समझा जा सकता है। इससे भविष्य में अब ऐसे विवाद की गुंजाइश भी कम रहेगी, क्योंकि मोदी सरकार ने एक जनप्रिय रास्ता दिखा दिया है।
जहां तक समाधि/स्मारक बनाने के लिए नियम और प्रक्रिया का सवाल है तो आपके लिए यह जानना जरूरी है कि समाधि स्थल केवल उन नेताओं के लिए बनाए जाते हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय और ऐतिहासिक महत्व का योगदान दिया हो। यह विशेष रूप से भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उप-प्रधानमंत्री और कभी-कभी राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों के लिए लागू होता है। इसमें उपराष्ट्रपति का नाम भी शामिल किया जाना चाहिए।
सामान्यतः, केवल उन नेताओं को यह सम्मान मिलता है जिनका योगदान असाधारण और सर्वमान्य हो। मेरे विचार में इसी स्थल पर आजादी के आंदोलन के दौरान शहीद हुए सभी स्वतंत्रता सेनानियों के स्मृति स्थल भी विकसित किया जाना चाहिए, ताकि जब भी कोई नेता यहां आए तो उन बिरबांकूड़ों को भी स्मरण कर लें, जिनकी कुर्बानियों से यह देश आजाद हुआ है।
उल्लेखनीय है कि राजघाट और उससे जुड़े समाधि स्थलों का प्रशासन राजघाट क्षेत्र समिति के तहत आता है। यह समिति संस्कृति मंत्रालय की देखरेख में कार्य करती है। समाधि स्थल के लिए निर्णय लेने में यह समिति स्थान की उपलब्धता, व्यक्ति के योगदान और मौजूदा नीतियों का मूल्यांकन करती है। संस्कृति मंत्रालय समाधि स्थल निर्माण के प्रस्ताव की समीक्षा करता है। प्रस्ताव पर चर्चा के लिए अन्य विभागों, जैसे शहरी विकास मंत्रालय और गृह मंत्रालय, से परामर्श किया जाता है।
राजघाट समाधि समिति, राजघाट समाधि अधिनियम 1951 तथा राजघाट समाधि (संशोधित) अधिनियम 1958 नामक संसदीय अधिनियम द्वारा गठित एक ऑटोनॉमस बॉडी है। राजघाट समाधि समिति का काम समाधि के कार्यों को संचालन करना और समाधि की उचित मरम्मत की व्यवस्था करना है। समाधि में समय-समय पर समारोह का आयोजन करना और उनका संचालन करना है। इसके आलावा, अन्य कार्यों को करना जो समाधि के कार्यों के कुशल संचालन के लिए प्रासंगिक और सहायक हैं।
सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि खुद डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने ही वर्ष 2013 में राजघाट परिसर में समाधि स्थल बनाने की नीति में बदलाव किया था। तब यह सुनिश्चित किया गया था कि समाधि स्थलों का निर्माण केवल अत्यंत विशिष्ट और राष्ट्रीय योगदान देने वाले नेताओं के लिए ही किया जाए। इसके पीछे उद्देश्य भूमि का संतुलित उपयोग और पर्यावरण संरक्षण को बताया गया था। जबकि यमुना नदी के किनारे बहुत से ऐसे जगह हैं, जिन्हें वैकल्पिक स्मारक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। खासकर दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री आदि के निधनोपरांत उनके भी स्मारक स्थल बनवाए जा सकें।
दरअसल, समाधि निर्माण की प्रक्रिया केंद्र सरकार की कई मंत्रालयों से होकर गुजरती है। पहले संस्कृति मंत्रालय, जो समाधि स्थल के निर्माण और संरक्षण का प्रबंधन करता है। फिर आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय जो भूमि आवंटन और निर्माण योजना में सहयोग करता है। ततपश्चात गृह मंत्रालय जो समाधि स्थल निर्माण के लिए सुरक्षा और राजकीय सम्मान की प्रक्रिया सुनिश्चित करता है। फिर निर्माण के लिए भूमि का चयन और मंजूरी, क्योंकि समाधि स्थल के लिए भूमि का चयन दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) और राजघाट क्षेत्र समिति के माध्यम से होता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 23 दिसंबर 2004 को पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव के निधन के बाद उनके समाधि के निर्माण को लेकर विवाद देखने को मिला था। तब भी दिल्ली के राजघाट परिसर में समाधि स्थल बनाए जाने की मांग की गयी थी, जिसकी मंजूरी तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा नहीं दी गई थी। जबकि तब भी पी.वी. नरसिम्हा राव के समर्थक और कुछ नेताओं ने मांग की थी कि उनकी समाधि दिल्ली के राजघाट परिसर में बनाई जाए, जहाँ अन्य पूर्व प्रधानमंत्रियों जैसे पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, और राजीव गांधी की समाधियां स्थित हैं। लेकिन तब तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से इसका समर्थन नहीं किया गया था।
यही वजह है कि नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में करने की अनुमति देने के बजाय उनका पार्थिव शरीर हैदराबाद ले जाया गया था। उन्हें तो पार्टी मुख्यालय का सम्मान भी नसीब नहीं हुआ था। तब इस फैसले पर सवाल उठाए गए, क्योंकि दिल्ली में अंतिम संस्कार और समाधि स्थल बनाना एक परंपरा रही है, खासकर पूर्व प्रधानमंत्रियों के लिए। तब कांग्रेस नेतृत्व पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने नरसिम्हा राव के योगदान को नज़रअंदाज किया और उन्हें वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। तब नरसिम्हा राव के परिवार ने भी इस मुद्दे पर नाराजगी व्यक्त की थी।
लेकिन समय का फेर देखिए, जो मनमोहन सिंह तब सोनिया गांधी के प्रभाव में आकर एक वाजिब विषय पर मौन हो गए थे और अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री को मरणोपरांत भी समुचित सम्मान नहीं दे-दिलवा पाए थे, तो इस बार उन्हीं की अंत्येष्टि के लिए सोनिया गांधी-राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के चाहने के बावजूद राजघाट में उन्हें एक अदद जगह नहीं दी गई और उन्हें एक आम दिल्ली वासी की तरह ही निगम बोध घाट पर जलाया गया, पूरे राजकीय सम्मान के साथ। जो एक स्वस्थ परम्परा की शुरुआत समझी जा सकती है।
वहीं, केंद्र सरकार ने काँग्रेस नेतृत्व को आश्वस्त किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का स्मारक भी वह बनवाएगी, लेकिन पूरी वैधानिक प्रक्रिया के अनुपालन के बाद। प्राप्त जानकारी के मुताबिक, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्मारक का निर्माण सीपीडब्लूडी की ओर से किया जाएगा, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया की जिम्मेदारी भूमि और विकास विभाग की है जिस पर पूरी दिल्ली में केंद्र सरकार की संपत्तियों का दायित्व है। इसके लिए एक ट्रस्ट का गठन आवश्यक है। क्योंकि निर्माण संबंधी खर्चों का भुगतान इसी ट्रस्ट के जरिये किया जाता है। इसलिए जब तक ट्रस्ट नहीं बनता तब तक इस मामले में आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्मारक के स्थान के संदर्भ में निर्णय लेने में समय लग सकता है। क्योंकि केंद्र सरकार की ओर से गत शुक्रवार को ही इसके लिए सहमति जताए जाने के बाद आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय सक्रिय हो गया है। उससे जुड़े सूत्रों ने बताया कि स्मारक के स्थल के संदर्भ में निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा। इसके लिए जगह के चयन से लेकर निर्माण और स्थल के रखरखाव और संरक्षण की व्यवस्था करनी होगी। सीपीडब्लूडी के सूत्रों ने कहा है कि भूमि और विकास विभाग की ओर से उसे जगह के चयन और निर्माण की प्रक्रिया और लागत आदि के बारे में बताने के लिए कहा जाएगा। इसके बाद भूमि विकास विभाग अपना प्रस्ताव शहरी कार्य मंत्रालय को सौंपेगा।
सूत्रों ने इस बात को भी गलत बताया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के स्मारक के संदर्भ में निर्णय आनन-फानन में हो गया था। स्मारक का निर्माण अटल स्मृति न्यास नामक ट्रस्ट के गठन के बाद हुआ था। वहीं, सूत्रों ने यह भी याद दिलाया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के समय ही 2013 में यह कैबिनेट निर्णय हुआ था कि राजघाट में राष्ट्रीय स्मृति स्थल के रूप में एक सामूहिक स्मारक मैदान बनाया जाएगा, क्योंकि जगह की कमी के कारण अलग-अलग स्मारक स्थलों का निर्माण कठिन है। उस समय मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री थे।
बता दें कि दिल्ली में आईटीओ के पास राजघाट व उसके आस-पास पास जो समाधि स्थल बने हैं, उनमें महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, लाल बहादुर शास्त्री और संजय गांधी आदि का समाधि स्थल शामिल है। महात्मा गांधी का स्मारक, जो 'राष्ट्रपिता' के रूप में विख्यात हैं, दिल्ली के राजघाट में स्थित है। यह स्थल उनकी शांति और अहिंसा के आदर्शों का प्रतीक है, और यहीं 31 जनवरी 1948 को बापू का अंतिम संस्कार किया गया था। इस स्थान पर स्थित काले ग्रेनाइट का खुला मंच महात्मा गांधी के दाह संस्कार स्थल को दर्शाता है।
बता दें कि राजघाट का इतिहास काफी पुराना है। राजघाट यमुना नदी के किनारे एक सामान्य घाट हुआ करता था। महात्मा गांधी के निधन के बाद, इस स्थल को उनके सम्मान में एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित किया गया। महात्मा गांधी का अंतिम संस्कार राजघाट पर उनके निधन के एक दिन बाद किया गया था, और उनका अंतिम वाक्य, "हे राम," काले संगमरमर के मंच पर लिखा है। मंच को महात्मा गांधी की शांति और सद्भावना के प्रतीक के रूप में माना जाता है।
सुलगता सवाल है कि शायद किसी की मौत पर मातम मनाने के साथ-साथ अपनी सियासत भी चमकाने के लिए अभ्यस्त राजनेताओं के लिए यह कोई बड़ी बात भले ही नहीं हो। लेकिन यह पूरा सियासी घटनाक्रम हर संवेदनशील भारतीय के अंतरतम को स्पर्श कर गई कि क्या यही राजनीति है, जो इतन गिर चुकी है कि मातम के माहौल को भी स्तब्ध कर डालती है। यह प्रकरण और किसी को शर्मसार करे या न करे, लेकिन जनता बेहद शर्मशार हुई है।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
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