वैज्ञानिकों ने आइसक्रीम को बनाया अधिक सेहतमंद

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शरीर में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की वृद्धि एवं उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने में मददगार भोजन में मौजूद तत्वों को प्रीबायोटिक कहते हैं। प्रीबायोटिक तत्व लैक्टोबैसिलस जैसे सूक्ष्मजीवों के विकास को प्रोत्साहित करते हैं, जो हमारी आंतों में पाए जाते हैं।

नई दिल्ली। (इंडिया साइंस वायर): वजन बढ़ने की फिक्र किए बिना भी अब आइसक्रीम का मजा लिया जा सकेगा। भारतीय वैज्ञानिकों ने कम वसा युक्त आइसक्रीम विकसित की है, जो सेहत के लिए अधिक चिंतित रहने वाले लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। मैसूर स्थित सीएसआईआर-केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई यह एक सिन्बायोटिक आइसक्रीम है, जिसे प्रीबायोटिक तत्व बीटा-मैनो-ओलिगोसैकेराइड्स (बीटा-मॉस) और लैक्टोबैसिलस प्रजाति के प्रोबायोटिक सूक्ष्मजीवों को मिलाकर तैयार किया गया है। 

बीटा-मॉस पौधों से प्राप्त एक प्रकार का फाइबर है, जिसे आइसक्रीम में प्रीबायोटिक तत्व के रूप में उपयोग किया गया है। जबकि, लैक्टोबैसिलस प्लैंटेरम और लैक्टोबैसिलस फर्मेंटम प्रजाति के सूक्ष्मजीवों को प्रोबायोटिक के रूप में इस आइसक्रीम में उपयोग किया गया है। खाद्य पदार्थों में पाए जाने वाले फाइबर प्रीबायोटिक तत्व के रूप में कार्य करते हैं। प्रीबायोटिक और प्रोबायोटिक तत्वों को मिलाकर विकसित पूरक आहार को सिन्बायोटिक कहते हैं। इस प्रकार का आहार शरीर में पाए जाने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीवों को बढ़ावा देकर सेहत को बेहतर बनाए रखने में मदद करता है। 

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शरीर में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की वृद्धि एवं उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने में मददगार भोजन में मौजूद तत्वों को प्रीबायोटिक कहते हैं। प्रीबायोटिक तत्व लैक्टोबैसिलस जैसे सूक्ष्मजीवों के विकास को प्रोत्साहित करते हैं, जो हमारी आंतों में पाए जाते हैं। प्रोबायोटिक ऐसे खाद्य पदार्थ होते हैं, जिसमें जीवाणु या सूक्ष्मजीव पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि खाद्य उत्पादों में सही मात्रा में प्रोबायोटिक्स हों तो वे सेहत के लिए उपयोगी हो सकते हैं।

इस आइसक्रीम में मिल्क पाउडर, शुगर, फैट, स्टैबलाइजर, इमल्सिफायर, वैनिलिन, बीटा-मॉस युक्त एवं इससे रहित दूध या फिर फ्रूक्टो ओलिगोसैकेराइड (एफओएस) का उपयोग किया गया है। एफओएस एक प्रचलित प्रीबायोटिक है, जिसका उपयोग शोधकर्ताओं ने इस शोध में तुलनात्मक अध्ययन के लिए किया है। शोध के दौरान प्रोबायोटिक्स, प्रीबायोटिक्स और वसा के विभिन्न संयोजन से युक्त आइसक्रीम के कई नमूने तैयार किए गए थे। इन नमूनों को शून्य से 20 डिग्री नीचे तापमान पर एक निर्धारित समय के लिए रखा गया था। अत्यधिक कम तापमान के बावजूद पाया गया कि आइसक्रीम में उपयोग किए गए प्रोबायोटिक सूक्ष्मजीव नष्ट नहीं हुए हैं। इसी आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि ये सूक्ष्मजीव मनुष्य के शरीर के भीतर आंतों में विषम परिस्थितियों में भी जीवित रह सकते हैं।

प्रमुख शोधकर्ता डॉ मुकेश कपूर ने बताया कि “प्रोबायोटिक सूक्ष्मजीव तभी उपयोगी हो सकते हैं, जब वे शरीर के भीतर विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रह सकें। शून्य से 20 डिग्री कम तापमान होने के बावजूद अधिकतर सूक्ष्मजीव 40 दिन तक बने हुए थे। हालांकि, करीब 65 दिन बाद इन सूक्ष्मजीवों की संख्या में कमी देखी गई है। नई विकसित आइसक्रीम में प्रोबायोटिक सूक्ष्मजीवों की उपयोगिता का परीक्षण मनुष्य की आंत जैसे कृत्रिम वातावरण में किया गया है। इससे पता चलता है कि कि बीटा-मॉस के उपयोग से लैक्टोबैसिलस प्लैंटेरम और लैक्टोबैसिलस फर्मेंटेम सूक्ष्मजीव विषम परिस्थितियों में भी अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि इन तत्वों का उपयोग अन्य सेहतमंद खाद्य उत्पादों के विकास में कर सकते हैं।”

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अत्यधिक कैलोरी एवं वसा युक्त होने के साथ-साथ आइसक्रीम फाइबर रहित भी होती है। यही कारण है कि चॉकलेट की तरह आइसक्रीम को सेहत के लिए सही नहीं माना जाता। लेकिन, शोधकर्ताओं का कहना है कि प्रोबायोटिक खाद्य उत्पादों के विकास से उपभोगक्ताओं की इन चिंताओं को दूर किया जा सकता है। प्रोबायोटिक्स को आमतौर पर प्रतिरक्षा तंत्र, आंतों की सेहत और कैंसर-रोधी गुणों के लिए उपयोगी माना जाता है। दही और इसके जैसे खमीर युक्त अन्य डेयरी उत्पाद प्रोबायोटिक्स के सबसे अधिक लोकप्रिय स्रोत हैं। 

यह अध्ययन शोध पत्रिका फूड प्रोसेसिंग ऐंड प्रिजर्वेशन के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं में डॉ कपूर के अलावा दीपेश पंवार और सुभाषिनी ए. शामिल थे।

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