वन्य जीव संरक्षण में गैर-संरक्षित क्षेत्र भी हो सकते हैं मददगार
शोधकर्ताओं का कहना है कि भूमि-उपयोग प्रथाओं में परिवर्तन, जैसे- कृषि क्षेत्रों का विस्तार और सिंचाई प्रणालियों के प्रसार का असर इन वन्य जीवों पर पड़ सकता है। इसलिए, वर्तमान संरक्षण नीतियों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है ताकि मानवीय क्षेत्रों को संरक्षण आवास के रूप में पहचाना जा सके, जहां स्थानीय लोग और शिकारी जीवों के बीच अनुकूलन और सह-अस्तित्व कायम रखा जा सके।
नई दिल्ली। (इंडिया साइंस वायर): भारत में वन्य जीवों का संरक्षण और प्रबंधन मुख्य रूप से राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में केंद्रित है। हालांकि, कई गैर-संरक्षित क्षेत्र भी वन्य जीवों के संरक्षण में उपयोगी हो सकते हैं।
एक ताजा अध्ययन में संरक्षित वन्य जीव क्षेत्रों के बाहर तेंदुए, भेड़िये और लकड़बग्घे जैसे जीवों में स्थानीय लोगों के साथ सह-अस्तित्व की संभावना को देखकर भारतीय शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
इस अध्ययन में महाराष्ट्र के 89 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली अर्द्धशुष्क भूमियों, कृषि क्षेत्रों और संरक्षित क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया गया है। वन विभाग के कर्मचारियों के साक्षात्कार और सांख्यकीय विश्लेषण के आधार पर भेड़ियों, तेंदुओं और लकड़बग्घों के वितरण का आकलन किया गया है। इस भूक्षेत्र के 57 प्रतिशत हिस्से में तेंदुए, 64 प्रतिशत में भेड़िये और 75 प्रतिशत में लकड़बग्घे फैले हुए हैं। जबकि, अध्ययन क्षेत्र में सिर्फ तीन प्रतिशत संरक्षित क्षेत्र शामिल है।
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शोधकर्ताओं का कहना है कि कृषि भूमि उपयोग, निर्माण क्षेत्र, पालतू जीव और शिकार योग्य वन्यजीवों की प्रजातियों की मौजूदगी इन तीनों वन्य जीवों के वितरण के पैटर्न को प्रभावित करती है। प्रमुख शोधकर्ता इरावती माजगांवकर ने बताया कि “यह अध्ययन बड़े मांसाहारी वन्य जीवों के संरक्षण के लिए निर्धारित संरक्षित क्षेत्रों के बाहर के इलाकों के महत्व को दर्शाता है। ऐसे इलाकों में जीवों के सह-अस्तित्व की घटना नई नहीं है, जहां मानव आबादी करीब एक हजार वर्षों से मौजूद है। हालांकि, भारत में जंगल तथा मानव क्षेत्रों को अलग करना एक सामान्य प्रशासनिक मॉडल है, जो संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इन्सानों और वन्य जीवों के मुद्दों से निपटने के लिए उपयुक्त नहीं है। इसलिए मनुष्य और वन्य जीवों द्वारा साझा किए जाने वाले क्षेत्रों पर भी ध्यान केंद्रित किए जाने की जरूरत है।”
वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी-इंडिया, फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी, सेंटर फॉर वाइल्ड लाइफ स्टडीज और महाराष्ट्र वन विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका कंजर्वेशन साइंस ऐंड प्रैक्टिस में प्रकाशित किया गया है।
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शोधकर्ताओं का कहना है कि भूमि-उपयोग प्रथाओं में परिवर्तन, जैसे- कृषि क्षेत्रों का विस्तार और सिंचाई प्रणालियों के प्रसार का असर इन वन्य जीवों पर पड़ सकता है। इसलिए, वर्तमान संरक्षण नीतियों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है ताकि मानवीय क्षेत्रों को संरक्षण आवास के रूप में पहचाना जा सके, जहां स्थानीय लोग और शिकारी जीवों के बीच अनुकूलन और सह-अस्तित्व कायम रखा जा सके।
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओ में वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी की इरावती माजगांवकर, श्वेता शिवकुमार, अर्जुन श्रीवत्स एवं विद्या आत्रेय, फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल रिसर्च एडवोकेसी ऐंड लर्निंग के श्रीनिवास वैद्यनाथन और महाराष्ट्र वन विभाग के सुनील लिमये शामिल थे। यह अध्ययन रफर्ड स्मॉल ग्रांट फाउंडेशन और महाराष्ट्र वन विभाग के अनुदान पर आधारित है।
(इंडिया साइंस वायर)
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