ये रहीं 2018 में विज्ञान के क्षेत्र में भारत की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां

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भारतीय वैज्ञानिकों ने कई उल्लेखनीय शोध किए हैं। नैनोटेक्नोलॉजी से लेकर अंतरिक्ष मौसम विज्ञान तक विविध क्षेत्रों में हो रहे वैज्ञानिक विकास, नई तकनीकों और उन्नत प्रौद्योगिकियों से जुड़ी खबरें लगभग पूरे साल सुर्खियां बनती रही हैं।

नई दिल्ली। (इंडिया साइंस वायर): वर्ष 2018 में भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों ने अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र से जुड़े विभिन्न अभियानों में कई अभूतपूर्व सफलताएं हासिल की हैं। लेकिन, वर्ष 2018 की वैज्ञानिक उपलब्धियां महज यहीं तक सीमित नहीं रही हैं। अंतरिक्ष एवं रक्षा क्षेत्र के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने कई उल्लेखनीय शोध किए हैं। नैनोटेक्नोलॉजी से लेकर अंतरिक्ष मौसम विज्ञान तक विविध क्षेत्रों में हो रहे वैज्ञानिक विकास, नई तकनीकों और उन्नत प्रौद्योगिकियों से जुड़ी खबरें लगभग पूरे साल सुर्खियां बनती रही हैं। यहां वर्ष 2018 की ऐसी 15 कहानियों का संग्रह दिया जा रहा है, जो भारतीय वैज्ञानिकों के कार्यों की झलक प्रस्तुत करती हैं।

किसानों को जहरीले कीटनाशकों से बचाने वाला जैल

किसानों द्वारा खेतों में रसायनों का छिड़काव करते समय कोई सुरक्षात्मक उपाय नहीं अपनाने से उनको विषैले कीटनाशकों का शिकार बनना पड़ता है। इंस्टीट्यूट फॉर स्टेम सेल बायोलॉजी ऐंड रीजनरेटिव मेडिसिन के वैज्ञानिकों ने त्वचा पर लगाने वाला "पॉली-ऑक्सीम" नामक एक सुरक्षात्मक जैल बनाया है, जो जहरीले रसायनों को ऐसे सुरक्षित पदार्थों में बदल देता है, जिससे वे मस्तिष्क और फेफड़ों जैसे अंगों में गहराई तक नहीं पहुंच पाते हैं। शोधकर्ताओं ने एक ऐसा मुखौटा विकसित करने की योजना बनाई है जो कीटनाशकों को निष्क्रिय कर सकता है।

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उत्कृष्ट तकनीक से बना दुनिया का सबसे पतला पदार्थ

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के शोधकर्ताओं ने नैनो तकनीक की मदद से एक ऐसा पतला पदार्थ बनाया है, जो कागज के एक पन्ने से भी एक लाख गुना पतला है। उन्होंने मैग्नीशियम डाइबोराइड नामक बोरॉन यौगिक द्वारा सिर्फ एक नैनोमीटर (मनुष्य के बाल की चौड़ाई लगभग 80,000 नैनोमीटर होती है) मोटाई वाला एक द्विआयामी पदार्थ तैयार किया है। इसे दुनिया का सबसे पतला पदार्थ कहा जा सकता है। इसका उपयोग अगली पीढ़ी की बैटरियों से लेकर पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने वाली फिल्मों के निर्माण में किया जा सकता है।

केले के जीनोम का जीन संशोधन

राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, मोहाली के शोधकर्ताओं ने जीन संशोधन की क्रिस्पर/सीएएस9 तकनीक की मदद से केले के जीनोम का संशोधन किया है। भारत में किसी भी फल वाली फसल पर किया गया अपनी तरह का यह पहला शोध है। सकल उत्पादन मूल्य के आधार पर गेहूं, चावल और मक्का के बाद केला चौथी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल मानी जाती है। केले की पोषक गुणवत्ता में सुधार, खेती की दृष्टि से उपयोगी गुणों के समावेश और रोग प्रतिरोधी किस्मों के विकास में जीन संशोधन तकनीक अपनायी जा सकती है।


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जीका, डेंगू, जापानी एन्सेफ्लाइटिस और चिकनगुनिया से निपटने के लिए की गईं खोजें

हरियाणा के मानेसर में स्थित राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र (एनबीआरसी) के वैज्ञानिकों ने शिशुओं में माइक्रोसिफेली या छोटे सिर होने के लिए जिम्मेदार जीका वायरस की कोशिकीय और आणविक प्रक्रियाओं का पता लगाया है। शोधकर्ताओं ने पाया कि जीका वायरस के आवरण में मौजूद प्रोटीन मनुष्य की तंत्रिका स्टेम कोशिकाओं की वृद्धि दर को प्रभावित करता है और दोषपूर्ण तंत्रिकाओं के विकास को बढ़ावा देता है। एक अन्य शोध में फरीदाबाद स्थित रीजनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक प्रमुख प्रोटीन की पहचान की है, जो एंटी-वायरल साइटोकिन्स को अवरुद्ध करके डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस वायरस को बढ़ने में मदद करता है। यह खोज डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस के लिए प्रभावी दवा बनाने में मददगार हो सकती है। इसी तरह, एमिटी विश्वविद्यालय, नोएडा, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली और महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के शोधकर्ताओं ने चिकनगुनिया का पता लगाने के लिए मोलिब्डेनम डाइसल्फाइड नैनोशीट की मदद से एक बायोसेंसर विकसित किया है।

तपेदिक की शीघ्र पहचान करने वाली परीक्षण विधि

ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, फरीदाबाद और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों ने फेफड़ों और उनके आसपास की झिल्ली में क्षयरोग संक्रमण के परीक्षण के लिए अत्यधिक संवेदनशील, अधिक प्रभावी और तेज विधियां विकसित की हैं। बलगम के नमूनों में जीवाणु प्रोटीन का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी आधारित वर्तमान विधियों के विपरीत इन नयी विधियों में बलगम में जीवाणु प्रोटीन का पता लगाने के लिए एपटामर लिंक्ड इमोबिलाइज्ड सॉर्बेंट एसे (एलिसा) और इलेक्ट्रोकेमिकल सेंसर (ईसीएस) का उपयोग होता है।


पंजाब के भूजल में मिला आर्सेनिक

भूजल में आर्सेनिक के अधिक स्तर के कारण मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर और छत्तीसगढ़ को ही प्रभावित माना जाता रहा है। लेकिन, अब पंजाब के भूमिगत जल में भी आर्सेनिक की भारी मात्रा होने का पता चला है। नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस स्टडीज के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नये अध्ययन में पंजाब के बाढ़ प्रभावित मैदानी क्षेत्रों के भूमिगत जल में आर्सेनिक का अत्यधिक स्तर पाया गया है। यहां भूजल में आर्सेनिक स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के निर्धारित मापदंड से 20-50 गुना अधिक पाया गया है। 

अंतरिक्ष मौसम चेतावनी मॉडल ने लघु हिम युग को किया खारिज

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आइजर) कोलकाता के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित एक मॉडल की गणनाओं के आधार पर आगामी सनस्पॉट (सौर कलंक) चक्र के शक्तिशाली होने की अवधारणा को नकार दिया गया है। आगामी सनस्पॉट चक्र-25 में पृथ्वी के निकट और अंतर-ग्रहीय अंतरिक्ष में पर्यावरणीय परिस्थितयां तथा जलवायु को प्रभावित करने वाले सौर विकिरण के मान वर्तमान सौर चक्र के दौरान पिछले एक दशक में प्रेक्षित मानों के समान या थोड़ा अधिक होंगे। इस विधि द्वारा अगले सनस्पॉट चक्र की शक्तिशाली चरम सक्रियता में पहुंचने की भविष्यवाणियां एक दशक पहले की जा सकती हैं।

ऑटिज्म की पहचान के लिए नया टूल

कई मामलों में, ऑटिज्म या स्वलीनता को मंदबुद्धि और अटेंशन डेफिसिट हाइपर-एक्टिविटी डिस्ऑर्डर नामक मानसिक विकार समझ लिया जाता है। रोग की शीघ्र पहचान और हस्तक्षेप से बच्चों में स्वलीनता विकारों को समझने में सहायता मिल सकती है। इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए, चंडीगढ़ के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों ने ऑटिज्म वाले बच्चों की जांच के लिए एक भारतीय टूल विकसित किया है। चंडीगढ़ ऑटिज्म स्क्रीनिंग इंस्ट्रूमेंट (सीएएस) को सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को ऑटिज्म की शुरुआती जांच में मदद करने के लिए तैयार किया गया है।       

अल्जाइमर और हंटिंगटन के इलाज की नई आशा

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने अल्जाइमर रोग के लिए जिम्मेदार उन शुरुआती लक्षणों का पता लगाया है, जिससे यादाश्त कम होने लगती है। उन्होंने पाया है कि मस्तिष्क में फाइब्रिलर एक्टिन या एफ-एक्टिन नामक प्रोटीन के जल्दी टूटने से तंत्रिका कोशिकाओं के बीच संचार में व्यवधान होता है और इसके परिणामस्वरूप स्मृति की कमी हो जाती है। इस शोध का उपयोग भविष्य में रोग की प्रारंभिक जांच परीक्षण विधियां विकसित करने के लिए किया जा सकता है। फल मक्खियों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में, दिल्ली विश्वविद्यालय के आनुवांशिकी विभाग के शोधकर्ताओं ने पाया है कि मस्तिष्क की न्यूरोनल कोशिकाओं में इंसुलिन सिग्नलिंग को बढ़ाकर हंटिंग्टन रोग का बढ़ना रोका जा सकता है।

प्लास्टर ऑफ पेरिस से होने वाले प्रदूषण से मुक्ति दिलाने वाली हरित तकनीक

पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (सीएसआईआर-एनसीएल) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी पर्यावरण हितैषी तकनीक विकसित की है, जो किफायती तरीके से अस्पतालों से प्लास्टर ऑफ पेरिस अपशिष्टों को पुनर्चक्रित करने में मदद करती है। इस तकनीक की सहायता से अपशिष्ट को असंक्रमित करके उससे अमोनियम सल्फेट और कैल्शियम बाइकार्बोनेट जैसे उपयोगी उत्पाद बनाए जा सकते हैं। नदियों एवं अन्य जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को विघटित करने के लिए भी इस तकनीक का उपयोग किया जा सकता है।

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भारतीय सभ्यता पर रोशनी डालते पाषाण युगीन उपकरण और आनुवांशिक अध्ययन

चेन्नई के पास एक गांव में खोजे गए पाषाण युग के उपकरणों से पता चला है कि लगभग 385,000 साल पहले भारत में मध्य पुरापाषाण सभ्यता मौजूद थी। लगभग उसी काल के दौरान यह सभ्यता अफ्रीका और यूरोप में भी विकसित थी। भारत के मध्य पुरापाषाण सभ्यता के उस दौर में ले जाने वाली यह खोज उस लोकप्रिय सिद्धांत को चुनौती देती है, जिसमें कहा गया है कि आधुनिक मानवों द्वारा लगभग 125,000 साल पहले या बाद में मध्य पुरापाषाण सभ्यता अफ्रीका से भारत आई थी। वहीं, उत्तर भारत के आधुनिक हरियाणा में रहने वाले रोड़ समुदाय के लोगों के बारे में किए गए एक अन्य जनसंख्या आनुवंशिक अध्ययन से पता चला है कि ये लोग कांस्य युग के दौरान पश्चिम यूरेशियन आनुवंशिक वंशों से सिंधु घाटी में आए थे। 

सिक्किम में स्थापित हुआ भूस्खलन चेतावनी तंत्र

उत्तर-पूर्वी हिमालय के सिक्किम-दार्जिलिंग बेल्ट में एक अतिसंवेदी भूस्खलन चेतावनी तंत्र स्थापित किया गया है। इस चेतावनी तंत्र में 200 से अधिक सेंसर लगाए गए हैं, जो वर्षा, भूमि की सतह के भीतर छिद्र दबाव और भूकंपीय गतिविधियों समेत विभिन्न भूगर्भीय एवं हाइड्रोलॉजिकल मापदंडों की निगरानी करते हैं। यह तंत्र भूस्खलन के बारे में लगभग 24 घण्टे पहले ही चेतावनी दे देता है। इसे केरल स्थित अमृता विश्वविद्यालय और सिक्किम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के शोधकर्ताओं ने बनाया है।

मौसम की भविष्यवाणी के लिए कम्प्यूटिंग क्षमता में संवर्धन

इस साल भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) ने मौसम पूर्वानुमान और जलवायु निगरानी के लिए अपनी कंप्यूटिंग क्षमता को संवर्धित किया है। इसकी कुल उच्च प्रदर्शन कंप्यूटिंग (एचपीसी) शक्ति को 6.8 पेटाफ्लॉप के उच्चतम स्तर पर ले जाया गया है। इसके साथ ही भारत अब मौसम और जलवायु संबंधी उद्देश्यों के लिए समर्पित एचपीसी संसाधन क्षमता में यूनाइटेड किंगडम, जापान और यूएसए के बाद दुनिया में चौथे स्थान पर पहुंच गया है।

वैज्ञानिकों ने सिल्क पॉलीमर से विकसित की कृत्रिम कशेरुकीय डिस्क

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, गुवाहाटी के वैज्ञानिकों ने सिल्क-आधारित एक ऐसी कृत्रिम जैव डिस्क बनाई है, जिसका भविष्य में डिस्क रिप्लेसमेंट थेरेपी में उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए एक "डायरेक्शल फ्रीजिंग तकनीक" द्वारा सिल्क-आधारित कृत्रिम जैव डिस्क के निर्माण की प्रक्रिया विकसित की गई है। यह डिस्क आंतरिक रूप से हूबहू मानव डिस्क की तरह लगती है और उसकी तरह ही काम भी करती है। एक जैव अनुरुप डिस्क को बनाने के लिए सिल्क बायो पॉलीमर का उपयोग भविष्य में कृत्रिम डिस्क की लागत को कम कर सकता है।

कम आर्सेनिक जमाव वाले ट्रांसजेनिक चावल और जल्दी पुष्पण वाली ट्रांसजेनिक सरसों

चावल में आर्सेनिक जमाव की समस्या को दूर करने के लिए, लखनऊ स्थित सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) के शोधकर्ताओं ने कवकीय जीन का इस्तेमाल करते हुए आर्सेनिक का कम जमाव करने वाली चावल की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित की है। उन्होंने मिट्टी में पाए जाने वाले एक कवक से आर्सेनिक मिथाइलट्रांसफेरेज (वार्सएम) जीन का क्लोन बनाकर उसे चावल के जीनोम में डाला। एक अन्य अध्ययन में, टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज को वैज्ञानिकों ने सरसों की शीघ्र पुष्पण वाली ट्रांसजेनिक किस्म विकसित की है।

विज्ञान के क्षेत्र से जुड़े कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रयासों की बात करें तो उनमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा साइबर-भौतिकीय प्रणालियों के लिए 3660 करोड़ रुपये की लागत से शुरू किया गया पांच वर्षीय राष्ट्रीय मिशन भी शामिल है। इसके अलावा बेंगलुरु में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स ने गतिशील ब्रह्मांड पर नजर रखने के लिए भारत के पहले रोबोटिक टेलीस्कोप को चालू किया है। वहीं, महत्वाकांक्षी भारतीय न्यूट्रिनो वेधशाला (आईएनओ) परियोजना को भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से स्वीकृति मिल गई है। 

(इंडिया साइंस वायर)

भाषांतरण- शुभ्रता मिश्रा

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