यादवों ने तो मायावती को खूब दिये वोट, पर बुआजी यह बात मानने को तैयार नहीं
यह तो साफ-साफ नजर आ रहा है कि सपा-बसपा गठबंधन में सबसे ज्यादा फायदा मायावती को हुआ क्योंकि अखिलेश तो जस के तस ही रह गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश को 5 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और इस बार भी इतनी ही सीटें मिलीं।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने अखिलेश सिंह यादव के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया है। मायावती ने अखिलेश यादव पर आरोप लगाते हुए कहा कि अखिलेश अपने घर को संभाल नहीं पाए, यहां तक की अपनी पत्नी डिंपल को भी जीता नहीं पाए। जिसने मायावती को बुआ माना, उसी अखिलेश पर आरोप लगाते हुए मायावती यह कह रही हैं कि प्रदेश के यादवों ने गठबंधन का साथ नहीं दिया, बसपा का साथ नहीं दिया इसलिए वो ज्यादातर सीटें जीत नहीं पाए। मायावती की मानें तो इस बार उत्तर प्रदेश के यादवों ने ही अखिलेश यादव का साथ छोड़ दिया। यादवों ने ही यादव परिवार को धोखा दे दिया। क्या वाकई मायावती सच बोल रही हैं ?
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मायावती के आरोपों का सच
2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हो पाई थी। इसकी तुलना में 2019 में बसपा को 10 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई। यह तो साफ-साफ नजर आ रहा है कि सपा-बसपा गठबंधन में सबसे ज्यादा फायदा मायावती को हुआ क्योंकि अखिलेश तो जस के तस ही रह गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश को 5 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और इस बार भी सपा की संख्या 5 पर ही आकर अटक गई। सपा की हालत तो इतनी खराब हो गई कि अखिलेश यादव अपनी पत्नी को नहीं जिता पाए। साथ ही यादव परिवार के कई दिग्गजों को भी हार का सामना करना पड़ा।
बसपा को नहीं तो फिर यादवों ने किसको किया वोट ?
अब जरा बात उन लोकसभा सीटों के बारे में कर लेते हैं, जिन पर बीएसपी को 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई और जहां यादव मतदाता निर्णायक भूमिका में थे–
1. गाजीपुर लोकसभा सीट पर पिछली बार समाजवादी पार्टी ने बीजेपी उम्मीदवार मनोज सिन्हा को कांटे की टक्कर दी थी। मनोज सिन्हा केवल 33 हजार वोटों से किसी तरह चुनाव जीत पाए थे। लेकिन इतनी मजबूती के बावजूद सपा ने यह सीट बसपा को दे दी और इस बार के लोकसभा चुनाव में यहां से बसपा के उम्मीदवार अफजाल अंसारी ने जीत हासिल की है। गाजीपुर में सबसे ज्यादा यादव मतदाताओं की संख्या 21.5 फीसदी के लगभग है। दूसरे स्थान पर दलित मतदाता हैं जिनकी आबादी 21 फीसदी के लगभग है। मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 10 फीसदी के लगभग है। ये तीनों मिलकर 52.5 फीसदी हो जाते हैं और इस बार जीतने वाले बसपा उम्मीदवार को वोट मिला है 51.2 फीसदी।
2. जौनपुर लोकसभा सीट पर बसपा ने इस बार यादव उम्मीदवार को ही चुनावी मैदान में उतारा था। ऐसे में इन्हें यादवों का वोट न मिला हो, ऐसा सोचना पूरी तरह से तो सही बिल्कुल ही नहीं हो सकता है। जौनपुर में यादव मतदाताओं की संख्या 18 फीसदी के लगभग है। इसमें 22 फीसदी दलित और 11 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं को भी मिला लिया जाए तो यह आंकड़ा 51 फीसदी के लगभग पहुंच जाता है और इस सीट पर जीतने वाले बसपा उम्मीदवार श्याम सिंह यादव को भी लगभग इतने ही मतदाताओं का विश्वास हासिल हुआ है यानि 51 फीसदी के लगभग वोट मिला है।
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3. लालगंज लोकसभा सीट पर 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा तीसरे स्थान पर रही थी लेकिन गठबंधन धर्म को ध्यान में रखते हुए अखिलेश ने यह सीट बसपा के मांगने पर मायावती को दे दी। इस सीट पर दलित (25 फीसदी), मुस्लिम (15 फीसदी) और यादव (12 फीसदी) मतदाताओं की कुल संख्या 52 फीसदी के लगभग है और यहां से जीतने वाले बसपा उम्मीदवार को 54 फीसदी के लगभग वोट हासिल हुआ है।
4. घोसी लोकसभा सीट पर दलित मतदाताओं की आबादी 20 फीसदी के लगभग है। वहीं इस सीट पर 17 फीसदी मुस्लिम और 10 फीसदी यादव मतदाता जीत-हार में निर्णायक रोल अदा करते रहे हैं और इस बार भी किया है। घोसी में दलित-यादव-मुस्लिम मतदाताओं की कुल संख्या 47 फीसदी के लगभग है और मायावती के जीतने वाले उम्मीदवार अतुल राय को वोट हासिल हुआ 50.3 फीसदी।
5. अंबेडकरनगर लोकसभा सीट पर दलित मतदाताओं की संख्या 24 फीसदी, मुस्लिम 16 फीसदी और यादव मतदाताओं की संख्या 6 फीसदी के लगभग है। ये तीनों मिलकर 46 फीसदी के आंकड़े तक पहुंच जाते हैं और इस बार जीतने वाले बसपा उम्मीदवार रितेश पांडे को यहां पर 52 फीसदी के लगभग वोट मिला है।
इसके अलावा बसपा को 22 फीसदी दलित मतदाता वाले सहारनपुर में 42 फीसदी वोटों के साथ जीत हासिल हुई। 21 फीसदी दलित मतदाता वाले नगीना में बसपा को 57 फीसदी, 18 फीसदी दलित मतदाता वाले अमरोहा में 51 फीसदी, 19 फीसदी दलित मतदाता वाले बिजनौर में 51 फीसदी और 15 फीसदी दलित मतदाता वाले श्रावस्ती में 44 फीसदी वोटों के साथ बसपा उम्मीदवार ने जीत हासिल की।
मायावती को तलाश थी एक अदद बहाने की?
ऐसे में सवाल तो यही खड़ा हो रहा है कि क्या वाकई मायावती ने अपनी जीत का विश्लेषण किया भी है या नहीं ? या फिर मायावती को तलाश थी एक अदद बहाने की जिसके सहारे वो गठबंधन को तोड़ सकें ? क्योंकि जब बात सपा की ताकत या सपा के वोट बैंक की आती है तो फिर इसमें सिर्फ यादवों को ही क्यों गिना जाना चाहिए ? क्या मायावती जानबूझकर मुस्लिमों को छोड़ रही हैं ? या फिर मुस्लिमों को संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि जब यादवों ने भी सपा का साथ छोड़ दिया तो मुस्लिम क्यों अब तक वफादार बने हुए हैं ? साफ नजर आ रहा है मायावती ने एक बड़ा दांव खेल दिया है। एक बार फिर से मायावती मुस्लिमों पर दांव लगाने जा रही हैं। ज़ीरो से दस पर पहुंची बुआ की नजरें अब बबुआ के मुस्लिम वोट बैंक पर जाकर टिक गई हैं। जिक्र भले ही वो यादवों का कर रही हों लेकिन लुभाने की कोशिश मुस्लिमों को कर रही हैं।
-संतोष पाठक
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