राहुल गांधी ने योजना के तहत पीएम उम्मीदवार का मुद्दा ठंडे बस्ते में डाला
आम चुनाव के लिये यूपी में भाजपा के खिलाफ गठबंधन की कवायद गुजरते समय के साथ तेज होती जा रही है। गठबंधन के लिये न तो कोई नीति बनी है, न ही इस बात का खुलासा हुआ है कि गठबंधन की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा।
'बिन दूल्हे की बारात' की तरह आम चुनाव के लिये यूपी में भाजपा के खिलाफ गठबंधन की कवायद गुजरते समय के साथ तेज होती जा रही है। गठबंधन के लिये न तो कोई नीति बनी है, न ही इस बात का खुलासा हुआ है कि गठबंधन की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि जो सबसे बड़ा ज्यादा सीटें जीत कर आयेगा, वह ही प्रधानमंत्री बनेगा। ऐसा कहते समय राहुल की सोच यही कहती होगी कि कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है। अगर उसे सभी राज्यों से औसतन तीन−तीन सीटें भी मिल गईं तो कांग्रेस का आंकड़ा सहजता से सौ सांसदों तक पहुंच जायेगा, जबकि क्षेत्रीय दल अपने राज्यों में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन करके के बाद भी इस संख्या के आसपास तक नहीं पहुंच पायेंगे, तब राहुल गांधी सबसे बड़ा दल होने के नाते अपनी दावेदारी ठोंक देंगे।
यह और बात है कि राहुल जो सोच रहे हैं वह इतना आसान भी नहीं है। राहुल तभी प्रधानमंत्री की कुर्सी की दौड़ में शामिल हो पायेंगे जब उनके सांसदों का आंकड़ा 150 से लेकर 175 तक होगा। राहुल की तरह जब प्रधानमंत्री का सवाल सपा प्रमुख अखिलेश यादव से पूछा जाता है तो वह कह देते हैं कि मुलायम सिंह भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। मायावती न तो राहुल और न अखिलेश की बातों का समर्थन कर रही हैं। उनकी सुई सम्मानजनक समझौते की बात पर अटकी हुई है। प्रदेश के बाहर की बात की जाये तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडु, महाराष्ट्र से एनसीपी नेता शरद पवार जैसे नेता भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने की जोड़तोड़ में लगे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में जहां सबसे अधिक 80 लोकसभा सीटें हैं, वहां मोदी विरोधी दलों के बीच गठबंधन होने की बात जरूर सामने आ रही है, लेकिन सीटों का बंटवारा भी अभी अधर में है, जो सिर फुटव्वल का कारण बन सकता है। गठबंधन के धड़ों का पूरा ध्यान वोटों के ध्रुवीकरण और मोदी को हराने के अभियान तक सिमट कर रह गया है। पहले इस गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखने की बात हो रही थी, लेकिन अंततः सपा−बसपा गठबंधन में रालोद के साथ−साथ कांग्रेस को भी शामिल किये जाने की रणनीति बनी। बसपा, सपा, कांग्रेस व रालोद की चौकड़ी मिलकर हर सीट पर संयुक्त प्रत्याशी उतारने की रूपरेखा तैयार कर रहे है। सोच यही है कि मुस्लिम वोटों के सहारे चुनावी वैतरणी पार की जायेगी। चुनावी वैतरणी को पार करने के लिये गठबंधन के नेताओं को कुछ प्रतिशत दलित और पिछड़ा वोट के भी खेवनहार बनने की उम्मीद है।
बहरहाल, भाजपा के खिलाफ गठबंधन पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या विपक्ष के पास एक ऐसा चेहरा नहीं है जिसको मोदी के सामने प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा सके। कहने को तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती तक तमाम मंचों से मोदी को उनकी 'हैसियत' और अपने आप को सुपर मैन बताते रहते हैं, लेकिन जब मुकाबले की बात आती है तो इन लोगों की स्थिति सांप-छछुंदर जैसी हो जाती है। यह सच है कि इस तरह के किसी भी गठबंधन के माध्यम से लोकसभा चुनाव में भाजपा को तगड़ी चुनौती दी सकती है। परंतु ऐसे गठबंधन ज्यादा लम्बे नहीं चलते हैं जिनकी न तो नियत साथ होती है न नीति। अगर ऐसा न होता तो मोरारजी देसाई से लेकर चौधरी चरण सिंह, इन्द्र कुमार गुजराल, देवगौड़ा, चन्द्रशेखर, वीपी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की केन्द्रीय सरकारें असमय नहीं गिरी होतीं।
राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार गठबंधन की सरकार आपातकाल के बाद 01 मई 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की बनी थी। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाये जाने के पश्चात फैले जनाक्रोश के चलते इंदिरा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। तब सर्वोदयी नेता लोकनायक जय प्रकाश नारायण और डॉ. राम मनोहर लोहिया के द्वारा दिए गए गैर कांग्रेसवाद के नारे को स्वीकार करते हुए देश के करोड़ों मतदाताओं ने 'जनता पार्टी' को देश की बागडोर सौंप दी थी। उस समय बस एक ही नारा लगता था, 'सिंहासन खाली करो, जनता आती है।' परन्तु यह प्रयोग पूरी तरह से असफल रहा। जनता पार्टी के घटक दल जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। देश के विकास को सुदृढ़ करने की अपेक्षा जनता पार्टी गठबंधन के नेता अपने महत्व को लेकर अधिक संघर्षरत रहे, जिससे जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी, परिणामस्वरूप जनता पार्टी में टूट हो गई और सत्ता हाथ से चली गई। 28 जुलाई 1977 को लोकदल नेता चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन 14 जनवरी 1978 को उनकी भी सरकार गिर गई। इसके बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी की शानदार वापसी हुई, जिन्होंने 31 अक्टूबर 1984 यानी मौत के दिन तक देश पर राज किया। उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी सत्तासीन हुए, इंदिरा की मृत्यु के बाद राजीव गांधी सहानुभूति लहर में 400 से अधिक लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रहे, लेकिन बोफोर्स तोपों की खरीद में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते 1989 में हुए आम चुनाव में उन्हें बुरी तरह से हार का सामना पड़ा।
तत्पश्चात बोफोर्स खरीद में राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले पूर्व कांग्रेसी नेता वीपी सिंह ने 2 दिसम्बर, 1989 को तमाम दलों के साथ मिलकर बनाये गये राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार का गठन किया। इस गठबंधन सरकार में प्रमुख रूप से जनता दल, तेलुगूदेशम, असम गण परिषद और डीएमके जैसे क्षेत्रीय सियासी दल भागीदार बने। ये सभी दल गठबंधन में सहयोगी होते हुए भी विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों पर परस्पर विरोधी और जबर्दस्त मतभेद रखते थे। जनता दल की तरह जनता पार्टी के घटकों के नेताओं की भी अति महत्वकांक्षा ने आगे चलकर सरकार के कामकाज को प्रभावित किया, जो अन्ततः वीपी सिंह के नेतृत्व वाले गठबंधन सरकार के पतन की प्रमुख वजह बनी। प्रधानमंत्री पद के लिए वी.पी. सिंह के नाम को अस्वीकार करते हुए चन्द्रशेखर द्वारा स्वयं को प्रधानमंत्री घोषित करना और चौधरी देवीलाल द्वारा वी.पी. सिंह का खुलकर समर्थन करने जैसे घटनाक्रम से यह राजनीतिक गठबंधन असमय बिखर गया। इस बीच एक चुनावी सभा के दौरान 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई।
कुछ माह बाद चुनाव होने थे, राजीव की पत्नी सोनिया गांधी ने राजनीति से दूरी बना ली। राजीव की मौत के बाद एक बार फिर सहानुभूति लहर में कांग्रेस की पुनः सत्ता में वापसी हुई। 1991 में 10वीं लोकसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी कांग्रेस के नेता पी.वी. नरसिम्हाराव ने कई छोटे−छोटे राजनीतिक दलों एवं कुछ निर्दलीय सांसदों का समर्थन लेकर गठबंधन सरकार का गठन किया। बाद में व्यापक पैमाने पर दल परिवर्तन कराकर कांग्रेस ने अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत की सरकार बना लिया, जिसने अपना कार्यकाल भी पूरा किया। इसके विपरीत 1979, 1989, 1990 और 1991 तक कई बार गठबंधन सरकार की स्थापना हुई और अपना कार्यकाल पूरा करने में पहले ही गिर गई। 1996 व 1997 में क्रमशः वाजपेयी व देवगौड़ा की गठबंधन की सरकार बनी जो कार्यकाल पूरा करने से पूर्व की गिर गयी।
11वें लोकसभा चुनाव में एक बार फिर त्रिशंकु नतीजे आये। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी दलों को 194 स्थान, कांग्रेस को 140 स्थान और क्षेत्रीय दलों को 150 स्थान प्राप्त हुए। भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार मात्र 13 दिन चली। यह तब हुआ था जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल घटक दलों के दबाव के चलते भाजपा को अपने गौवध निषेध, कश्मीर से जुड़ी धारा 370 को हटाने, समान नागरिक संहिता एवं राम मंदिर निर्माण आदि कई अहम मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालना पड़ गया था। 12वीं लोकसभा चुनाव के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 253 स्थान प्राप्त कर सरकार का गठन किया। गठबंधन में सम्मिलित विभिन्न राजनीतिक दलों के पूर्वाग्रह व्यक्तिगत रूझान एवं महत्वाकांक्षाएं अन्ततः 13 माह बाद ही वाजपेयी सरकार को ले डूबीं।
13वें लोकसभा चुनाव 1999 में एक बार फिर त्रिशंकु लोकसभा का गठन हुआ जिसमें भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक 182 सीटें मिलीं, कांग्रेस ने 114 एवं क्षेत्रीय दलों ने 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी। केन्द्र में एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 24 दलों की गठबंधन सरकार का गठन किया गया। इस सर्वाधिक घटक दलों वाली सरकार ने 5 वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया। 14वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी पूर्व की एकाधिकारवादी राजनीतिक दल की धारणा को छोड़कर गठबंधन राजनीति की आवश्यकता को गंभीरता से लिया और राष्ट्रीय स्तर पर छोटे−छोटे राजनीतिक दलों का गठबंधन करके डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंध्न की सरकार बनाई जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। 15वीं लोकसभा का चुनाव 2009 में पहली बार दो प्रमुख राजनीतिक गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के बीच लड़ा गया और एक बार पुनः डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी।
गैर कांग्रेसवाद के हिसाब से 2014 काफी महत्वपूर्ण रहा। इस वर्ष 16वीं लोकसभा के लिये हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन जिसका नेतृत्व करिश्माई नेता नरेन्द्र मोदी कर रहे थे, ने कांग्रेस के दस साल पुराने तिलिस्म को तोड़ दिया। उनके सामने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अगुवाई कर रहीं सोनिया और राहुल गांधी कहीं टिक नहीं सके। नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के पिछले कार्यकाल में हुए बड़े−बड़े घोटालों− कोयला घोटाला, 2जी स्पैक्ट्रम स्कैम, राष्ट्रमंडल खेल स्कैम, रॉबर्ट वड्रा लैण्ड डील आदि को जनता के सामने खूब उछाला। मोदी ने अपने विजन में जनता के दिल को छू लेने वाली बातें कीं, जिसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी को अकेले 282 सीटों पर जीत हासिल हुई। विपक्ष में कांग्रेस को प्रतिपक्ष के नेता के चयन के लिए निर्धारित 10 प्रतिशत स्थान भी प्राप्त नहीं हुए केवल 44 स्थान मिले और अन्ना द्रविड़ मुनेत्रा कषगम, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, शिवसेना को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रीय दलों का सफाया हो गया।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने में यूपी की सबसे बड़ी भूमिका रही। उसे 80 में से 73 सीटों पर फतह हासिल हुई थी। इसलिये इस बार विपक्षी मोदी को यूपी में घेरना चाह रहे हैं। इसके लिये गठबंधन भी बन गया है, मगर सीटों के बंटवारे को लेकर अभी बात नहीं बन पाई है। बताते हैं कि बसपा 40 के आस पास सीटें चाहती है। बाकी की 40 सीटों में सपा को अपनी सीटें कम कर कांग्रेस व रालोद को उनकी स्थिति के हिसाब से सीटें देनी होंगी। सपा अगर 30 पर लड़ती है तो 10 सीटें कांग्रेस व रालोद को दी जा सकती हैं। रालोद को कैराना, बागपत व मथुरा सीट मिल सकती है, लेकिन कांग्रेस का 8 सीटों के लिए तैयार होना मुश्किल लग रहा है। ऐसे में या तो सपा या फिर बसपा को अपनी ओर से दो चार सीटें और छोड़नी पड़ेंगी। सपा को एक−दो सीटें पूर्वांचल में सहयोगी निषाद पार्टी को भी देनी हैं।
उधर भाजपा गठबंधन की तोड़ के लिये सपा−बसपा के बीच दुश्मनी का सबब बना गेस्ट हाउस कांड को उछाल कर दोनों दलों के लिए बेचैनी पैदा करने को कोशिश करेगी। बताते चलें कि सपा−बसपा तब एक−दूसरे के दुश्मन बन गये थे, जब 2 जून 1995 को लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित राजकीय गेस्ट हाउस में ठहरी मायावती पर अराजक सपाइयों ने हमला करने की कोशिश की।
बहरहाल, सपा−बसपा की एकजुटता को कुंद करने की कड़ी में मोदी सरकार ओबीसी/एससी आरक्षण में बंटवारे की लाइन खींच रही है। वह कोटे में कोटा की बात कर रही है तो अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिये जाने की वर्षों पुरानी मांग को भी उसने पूरा कर दिया है। इससे पिछड़े समाज के संबंध में फैसला लेने में तेजी आयेगी। अभी तक आयोग की स्थिति सफेद हाथी जैसी थी। इससे अखिलेश के वोट बैंक में सेंध लग सकती है। वहीं मायावती को झटका देने के लिये एससी/एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण दिये जाने की सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने के साथ−साथ एसटी/एसटी एक्ट में संशोधन करके यह प्रावधान करने जा रही है कि अगर किसी एससी/एसटी के साथ अभ्रदता होती है या उसे जातिसूचक शब्द कहे जाते हैं तो सबसे पहले ऐसा करने वाले की गिरफ्तारी हो जायेगी। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में जांच से पहले गिरफ्तारी पर रोक का आदेश दिया था, जिसको बदलने का मोदी सरकार पर काफी दबाव था।
-संजय सक्सेना
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