मुस्लिम बाहुल्य सीटें ही उत्तर प्रदेश में विपक्षी नेताओं की पहली पसंद क्यों बन रही हैं?
आजमगढ़ लोकसभा सीट से एक बार फिर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव लड़ सकते हैं, यह खबर चर्चा में आते ही वहां सरगर्मी तेज हो गई है। बता दें पहले अखिलेश कन्नौज से चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में जुटे थे, लेकिन वहां अखिलेश का दिल नहीं कर रहा है।
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। बीजेपी का यूपी में चुनाव दर चुनाव जीतना इसकी एक बड़ी बानगी है। बीते दस वर्षों से यूपी में बीजेपी कोई बड़ा चुनाव नहीं हारी है। इसी के चलते बीजेपी के टिकट के लिय मारामारी भी खूब हो रही है। यूपी में आम चुनाव लड़ने और आसानी से जीत जाने की संभावना सिर्फ बीजेपी में दिखाई दे रही है। अन्य दलों के उम्मीदवारों के लिए इसका उलट है। गैर बीजेपी दलों के अन्य नेताओं की बात छोड़ भी दी जाये तो पार्टी के दिग्गजों के लिये भी यहां से चुनाव लड़ना और जीतना आसान नहीं रह गया है। इसी के चलते कई नेताओं ने यूपी से किनारा कर लिया है, इनमें राहुल गांधी जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेता भी शामिल हैं। राहुल गांधी अपने परिवार के परम्परागत अमेठी लोकसभा चुनाव को छोड़कर केरल की मुस्लिम बाहुल्य वॉयनाड लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने चले गये। 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी लोकसभा सीट से मोदी को चुनौती देने आये आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने भी वाराणसी में मिली करारी हार के पश्चात यूपी से मुंह मोड़ लिया है। बीजेपी की यूपी में इतनी तूती बोल रही है कि प्रियंका वाड्रा गांधी तक यहां से चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर पा रही हैं जबकि कांग्रेसी प्रियंका गांधी वाड्रा को गांधी परिवार की सबसे सुरक्षित रायबरेली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ाने का लगातार शिगूफा छोड़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि रायबरेली की मौजूदा सांसद सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहती हैं। रायबरेली गांधी परिवार का अजेय दुर्ग माना जाता है। 2024 के महासमर में उत्तर प्रदेश की इकलौती बची सीट को बचाए रखने के लिए कांग्रेस सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। पिछले चुनाव में अमेठी गंवाने के बाद पार्टी इस बार रायबरेली को लेकर पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। लगातार पांच बार से चुनाव जीत रहीं सोनिया गांधी इस बार स्वास्थ्य कारणों से ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। वहीं, भाजपा अमेठी जीतने के बाद अब रायबरेली में भी कमल खिलाने की तैयारी में है।
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प्रियंका के लोकसभा चुनाव लड़ने की संभावना के बारे में सांसद प्रतिनिधि किशोरी लाल शर्मा ने कहा कि अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हां, इसमें संदेह नहीं कि रायबरेली से गांधी परिवार का ही सदस्य चुनाव लड़ेगा। जिला कांग्रेस अध्यक्ष पंकज तिवारी ने कहा कि पूरी संभावना है कि इस बार प्रियंका गांधी वाड्रा ही रायबरेली से लड़ेंगी। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कांग्रेस संगठन में फेरबदल रायबरेली को लेकर भी बड़ा संकेत दे रहा है। लोकसभा चुनाव को लेकर प्रदेश में कांग्रेस की गठबंधन रणनीति भले ही अभी साफ न हो मगर पार्टी महासचिव और पूर्व प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा का रायबरेली से चुनाव लड़ना लगभग तय माना जा रहा है, लेकिन मोदी मैजिक में रायबरेली भी अब कांग्रेस के लिये सुरक्षित नहीं रह गई है। जो हाल कांग्रेस के दिग्गजों का है वही हाल कमोवेश समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव का भी है। वह भी अपने लिये मुस्लिम बाहुल्य सीट तलाश रहे हैं, ताकि जीत की राह में कोई बाधा नहीं आये। इसके लिये सपा प्रमुख अखिलेश यादव को आजमगढ़ लोकसभा सीट काफी मुफीद लग रही है। हालांकि लोकसभा चुनाव के लिए इंडी गठबंधन के सहयोगी दलों में अभी सीटों का बंटवारा नहीं हुआ है, किंतु समाजवादी पार्टी ने अखिलेश के साथ-साथ करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर अपने संभावित उम्मीदवार लगभग तय कर लिए हैं।
आजमगढ़ लोकसभा सीट से एक बार फिर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव लड़ सकते हैं, यह खबर चर्चा में आते ही वहां सरगर्मी तेज हो गई है। बता दें पहले अखिलेश कन्नौज से चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में जुटे थे, लेकिन वहां अखिलेश का दिल नहीं कर रहा है। इसी के चलते वह अब मुस्लिम व यादव बाहुल्य आजमगढ़ सीट से चुनाव लड़ने काम मन बना रहे हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वे यहीं से सांसद चुने गए थे, लेकिन बाद में उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर विधान सभा चुनाव लड़ा और जीतने के बाद अब अखिलेश विधान सभा के सदस्य और नेता प्रतिपक्ष हैं। आजमगढ़ लोकसभा सीट हमेशा सपा के लिए पहले से मजबूत रही है। यहां पर वर्ष 2014 व 2019 के चुनाव में मोदी लहर के बावजूद सपा को जीत हासिल हुई थी। वर्ष 2014 में मुलायम सिंह यादव व 2019 में अखिलेश यादव चुनाव जीते थे। अखिलेश के इस्तीफे के बाद हुए उप-चुनाव में बीजेपी यहां से चुनाव जीती थी और समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहा था जबकि बसपा प्रत्याशी दूसरे नंबर पर आये थे। 2022 का विधानसभा चुनाव करहल से जीतने के बाद अखिलेश ने आजमगढ़ लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया था, जिसके बाद रिक्त सीट पर हुए उपचुनाव में अखिलेश ने अपने चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को मैदान में उतारा था, परंतु उन्हें तीसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा था। बीजेपी ने यहां पर दिनेश लाल यादव निरहुआ को टिकट दिया था। तीसरे प्रत्याशी बसपा के गुड्डू जमाली मैदान में थे। त्रिकोणीय लड़ाई में मुस्लिम मतों में बिखराव हुआ और यही सपा की हार का कारण बन गया।
राजनीति के जानकारों के अनुसार अखिलेश अपने मूल मतदाता यादव-मुस्लिम में बिखराव को बचाने के लिए यहां से चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। कन्नौज से भी अखिलेश चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं, किंतु आजमगढ़ के राजनीतिक समीकरण उन्हें कहीं अधिक सुरक्षित लग रहे हैं। यहां के सभी पांचों विधायक सपा के हैं। कन्नौज से पिछला लोकसभा चुनाव अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव हार चुकी हैं। इसके साथ ही सपा अब तक करीब डेढ़ दर्जन संभावित उम्मीदवारों के नाम लगभग तय कर चुकी है। मैनपुरी से एक बार फिर डिंपल यादव अपने ससुर मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत संभालेंगी तो घोसी से सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव राय चुनाव लड़ सकते हैं। इसी तरह फतेहपुर से प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल, फर्रूखाबाद से डॉ. नवल किशोर शाक्य, बदायूं से धर्मेन्द्र यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव, अंबेडकरनगर से लालजी वर्मा, फैजाबाद से अवधेश प्रसाद, कौशांबी से इंद्रजीत सरोज, उन्नाव से अनु टंडन के नाम पर सहमति बन गई है। इसी प्रकार मुरादाबाद से मौजूदा सांसद एसटी हसन, बस्ती से राम प्रताप चौधरी, गोरखपुर से काजल निषाद, गाजीपुर से अफजाल अंसारी और सलेमपुर से रमाशंकर विद्यार्थी का टिकट लगभग पक्का है।
दरअसल, समाजवादी पार्टी पूर्वांचल में बीजेपी की कमजोर नस दबाना चाहती है। इसकी वजह साफ है। भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में देश भर में भारी जीत हासिल की थी। इसके बाद भी पूर्वांचल के वाराणसी, मिर्जापुर व आजमगढ़ मंडल की एक दर्जन सीटों में पार्टी का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा। भाजपा आजमगढ़, लालगंज, गाजीपुर, जौनपुर सीट हार गई थी, वहीं साथ ही कई सीटें मामूली अंतर से जीती थी। इसके बाद कुछ सीटों के समीकरण विधानसभा चुनाव 2022 के बाद बदल गए हैं। इसमें से एक सीट भदोही भी है। अब अगर इंडी गठबंधन पक्का हो गया तो समाजवादी पार्टी, कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के वोट मिलकर भाजपा के लिए मुश्किल खड़ा कर सकते हैं।
खैर, यह सिक्के का एक पहलू है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब मुस्लिम वोटों के लिए गैर बीजेपी दल एकजुट होंगे तो प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू वोटरों का भी ध्रुवीकरण हो सकता है। ऐसा हुआ तो बीजेपी की राह 2019 से भी ज्यादा आसान हो जायेगी। इसी को ध्यान में रखकर गैर बीजेपी दल एक तरफ मुसलमानों को लुभाने में लगे हैं तो दूसरी ओर अपने आप को राम भक्त होने का प्रमाण भी दे रहे हैं, इसके लिए उनके द्वारा वह सब किया जा रहा है जो हिन्दू वोटरों को प्रभावित कर सकता है। इसके साथ एक साजिश यह भी हो रही है कि किसी भी तरह से हिन्दुओं में जातिवाद के नाम पर फूट डाली जा सके। अगड़े-पिछड़ों, दलितों सबको आपस में लड़ाया जाये, इसीलिए अखिलेश यादव द्वारा पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यकों को एक छतरी के नीचे लाने की कोशिश की जा रही है। अगड़ों को गाली देने वाले नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्या और आजाद पार्टी के चन्द्रशेखर उर्फ रावण आदि को गले लगाया जा रहा है।
-अजय कुमार
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