धर्म, जाति के आधार पर वोट माँगना अब पड़ेगा महँगा
सुप्रीम कोर्ट ने 21वीं शताब्दी के भारत में चुनाव सुधारों को एक नई गति प्रदान की है जिसमें धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा इत्यादि का वोट माँगने में अवश्य ही कोई आधार नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फैसले में कहा कि धर्म के आधार पर वोट देने की कोई भी अपील चुनावी कानूनों के तहत भ्रष्ट आचरण के बराबर है। अब चुनाव के दौरान धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संवैधानिक पीठ ने 2 जनवरी 2017 को दिए ऐतिहासिक फैसले में कहा कि प्रत्याशी या उसके समर्थकों के धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर कानूनी है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। धर्म के आधार पर वोट माँगना संविधान की भावना के खिलाफ है। जनप्रतिनिधियों को अपने कामकाज भी धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रत्याशी और उसके विरोधी एजेंट की धर्म, जाति और भाषा का प्रयोग वोट माँगने के लिए कदापि नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने 4-3 से ये फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट में बहुमत विचार प्रधान न्यायधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर, न्यायमूर्ति एमबी लोकुर, न्यायमूर्ति एलएन राव, न्यायमूर्ति एसए बोबड़े का था जबकि अल्पमत का विचार न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ का था।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि अगर कोई उम्मीदवार ऐसा करता है तो ये जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। यह जनप्रतिनिधित्व कानून 123 (3) के अंतर्गत संबद्ध होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न केवल प्रत्याशी बल्कि उसके विरोधी उम्मीदवार के धर्म, भाषा, समुदाय और जाति का प्रयोग भी चुनाव में वोट माँगने के लिए नहीं किया जा सकेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भगवान और मनुष्य के बीच का रिश्ता व्यक्तिगत मामला है। कोई भी सरकार किसी एक धर्म के साथ विशेष व्यवहार नहीं कर सकती तथा एक धर्म विशेष के साथ खुद को नहीं जोड़ सकती।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट में इस संदर्भ में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें यह प्रश्न उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम वोट माँगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण है या नहीं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) के तहत 'उसके' धर्म की बात है और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्याख्या करनी थी कि 'उसके' धर्म का दायरा क्या है? प्रत्याशी का या उसके एजेंट का भी। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) धर्म के आधार पर वोट न मांगने की बात करती है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ठाकुर की अगुवाई वाली बेंच ने इस मामले में सुनवाई के दौरान जनप्रतिनिधि कानून के दायरे को व्यापक करते हुए कहा कि हम ये जानना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर वोट माँगने वाले के लिए अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात है? उम्मीदवार के धर्म की बात है या एजेंट के धर्म की बात है या फिर तीसरी पार्टी के धर्म की बात है, जो वोट माँगता है या मतदाता के धर्म की बात है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णय में कहा गया था कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) के तहत धर्म के मामले में व्याख्या की गई है कि 'उसके' धर्म का आशय उम्मीदवार के धर्म से है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी 2017 को बहुमत के आधार पर व्यवस्था दी कि उपरोक्त कानून में 'उनका' शब्द का अर्थ व्यापक है और यह उम्मीदवारों, मतदाताओं, एजेंटों आदि के धर्म के संदर्भ में है। चुनाव में धार्मिक आधार पर वोट पाने हेतु जहाँ कई दल अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में संलग्न होते हैं, तो कई दल बहुसंख्यक तुष्टिकरण में। तुष्टिकरण अल्पसंख्यकों का हो या बहुसंख्यकों का, दोनों ही राष्ट्रहित में नहीं है। विभिन्न राजनीतिक दल धार्मिक ध्रुवीकरण कर वोट लेने के अनुचित प्रयासों में संलग्न रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के 2 जनवरी 2017 के इस निर्णय से तुष्टिकरण, धार्मिक ध्रुवीकरण इत्यादि से राजनीति को मुक्त करने में मदद मिलेगी। दक्षिण भारत में विशेषकर तमिलनाडु में डीएमके जैसे राजनीतिक दल भाषायी आधार पर वोट माँगते हैं तथा अतीत में भाषायी ध्रुवीकरण का सहारा चुनाव में लेते रहे है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने भाषा के आधार पर वोट माँगने को भी असंवैधानिक घोषित किया है।
इसी तरह भारतीय राजनीति के प्रमुख तत्व जाति के आधार पर वोट मांगने की विशिष्ट परंपरा रही है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस ऐतिहासिक निर्णय से स्वच्छ करने का प्रयत्न किया। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने 21वीं शताब्दी के भारत में चुनाव सुधारों को एक नई गति प्रदान की है जिसमें धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा इत्यादि का वोट माँगने में अवश्य ही कोई आधार नहीं होना चाहिए।
- राहुल लाल
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