पासवान 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ की लाइन पर ही चलते थे
कांग्रेस, भाजपा या अन्य दलों का चुनाव के समय जिस तेजी से दलित प्रेम जागता है, चुनाव के बाद उतनी ही तेजी से वह ‘सो’ भी जाता है। सही मायनों में दलितों के हित में बात करने वालो में और उनके लिए काम करने वालों नेता अब बचे ही नहीं हैं।
रामविलास पासवान के रूप में भारतीय राजनीति का और बड़ा दलित सितारा ‘बुझ’ गया। बिहार में पिछले आधे दशक से बाबू जगजीवन राम के बाद यदि कोई दलित चेहरा चमकता रहा, वो रामविलास पासवान ही थे। संयोग देखिए जिस लोकनायक जयप्रकाश नारायण को रामविलास पासवान अपना आदर्श मानते थे, उन्हीं की 41वीं पुण्यतिथि पर पासवान ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। राम विलास पासवान दलित राजनीति की वह धुरी थे, जिसके इर्दगिर्द देश की राजनीति घूमा करती थी। करीब आधे दशक के सियासी सफर में पासवान 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ की लाइन पर ही चलते रहे। दलितों का हित साधने के लिए उन्होंने कभी भी किसी सरकार से निकटता बढ़ाने में परहेज नहीं किया। पासवान को जब भी केंद्र में मंत्री पद मिला, उन्होंने कोई ना कोई ऐसा काम जरूर किया जो देशव्यापी चर्चा में जरूर रहा है। पहली बार छह दिसम्बर 89 को वह प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रिपरिषद में श्रम व कल्याण मंत्री बने थे। कम लोगों को पता होगा कि इस दौरान वो समाज कल्याण मंत्री थे, जिसके चलते उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों को देश में लागू करने का काम किया था। इसके चलते ओबीसी समुदाय के 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिला, जिससे देश की राजनीति बदल गई थी।
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देश के कद्दावर दलित नेताओं की जब चर्चा होती है तो उसमें संविधान निर्माता बाबा साहब भीमरामराव अम्बेडकर के बाद जो चंद नाम लिए जाते हैं उसमें बाबू जगजीवन राम, मान्यवर कांशीराम, मायावती, रामदास अठावले, बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता भोलानाथ पासवान आदि कुछ बड़े नेताओं के साथ रामविलास पासवान का नाम सबसे प्रमुखता से लिया जाता है। इन सब नेताओं की राजनीति करने की शैली भले अलग-अलग रही हो, लेकिन अंत में सब दलित हित की बात सोचा करते थे।
ऐसा नहीं है कि उक्त दलित नेताओं के अलावा देश में कोई दलित चेहरा सामने ही नहीं आया। मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, पूर्व गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खड़गे, उदित राज, युवा दलित नेता चिराग पासवान, चन्द्रशेखर आजाद ‘रावण’ जैसे तमाम नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन यह कभी खालिस दलित नेता नहीं बन सके। इसकी वजह है सामाजिक रूप से दलित समाज का बेहद पिछड़ा हुआ होना।
दलित नेताओं की कमी के चहते ही अक्सर उनकी (दलितों की) समस्याओं/उत्पीङ़न के मामलों पर कार्रवाई की बजाए दलितों के हिस्से में सिर्फ सियासत हाथ आती है, जो नेता दलितों के हितों की बात करते भी हैं उनकी सोच दलितों के भले से अधिक अपने सियासी नफा-नुकसान पर रहती है। यही वजह है कि आज भी दलितों की स्थिति में आमूल-चूल बदलाव ही हो पाए हैं। दलितों के मसीहा बनकर उनके नाम पर सत्ता हासिल करने वालों की लम्बी लिस्ट है पर दलितों के लिए काम करने वालों के नामों की लिस्ट बनाने की कभी जरूरत ही नहीं समझी गई, क्योंकि इनकी संख्या इतनी कम है कि इनके नाम उंगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। 135 करोङ़ की आबादी वाले इस देश में दलितों की जनसंख्या करीब 22 प्रतिशत है लेकिन इनके नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं की संख्या 100 प्रतिशत है।
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कांग्रेस, भाजपा या अन्य दलों का चुनाव के समय जिस तेजी से दलित प्रेम जागता है, चुनाव के बाद उतनी ही तेजी से वह ‘सो’ भी जाता है। सही मायनों में दलितों के हित में बात करने वालो में और उनके लिए काम करने वालों नेता अब बचे ही नहीं हैं। दलितों में अलख जगाने का सबसे अधिक काम डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने किया था। अगर डॉ. अम्बेडकर नहीं होते तो आज दलितों की जो स्थिति है, उससे भी बदत्तर होती। डॉ. अम्बेडकर ने जब दलितों के लिए आरक्षण और अलग चुनाव प्रणाली की मांग की थी तब उनकी यह मांग नहीं मानी गयी थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने हिन्दू धर्म छोङ़कर बौद्ध धर्म अपनाने की धमकी दी वैसे ही उनकी यह मांग मान ली गई और पूना पैक्ट समझौता हो गया। पूना पैक्ट समझौते के कारण दलितों को बहुत लाभ मिला हालांकि उन्हें पूरा आरक्षण नहीं मिल सका, लेकिन कम से कम आधा-अधूरा आरक्षण तो मिल ही गया था। इस समझौते के कारण ही दलितों के लिए शिक्षा के लिए दरवाजे खुल गए। आजादी से करीब 17 वर्ष पूर्व 1929-1930 के अपने एक बयान में डॉ. अम्बेडकर ने गांधी जी से कहा था, 'मैं सारे देश की आजादी की लड़ाई के साथ उन एक चौथाई जनता के लिए भी लड़ना चाहता हूँ जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। आजादी की लड़ाई में सारा देश एक है और मैं जो लङ़ाई लड़ रहा हूँ, वह सारे देश के खिलाफ है, मेरी लड़ाई बहुत कठिन है।’
यह और बात है कि बाबा साहब अम्बेडकर के बाद उनके कई अनुयायी दलितों के हक की लड़ाई जारी रखने के लिए सामने आए पर उन्होंने दलितों की लड़ाई के नाम पर गठित की डॉ. अम्बेडकर की पार्टी को खुद की ही लड़ाई की भेंट चढ़ा दिया। डॉ. अम्बेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिक पार्टी बाद के दिनों में 4 भागों में बंट गई। एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना में फिर बाद में भाजपा में शामिल हो गया। डॉ. अम्बेडकर के पोते प्रकाश अम्बेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए। एक भाग जिसमें योगेंद्र कबाङे थे वे भी बाद में भाजपा में शामिल हो गए।
बात अम्बेडकर से इत्तर अन्य दलित नेताओं की कि जाए तो कांग्रेस नेता बाबू जगजीवन राम के योगदान को भी कभी नहीं भुलाया जा सकता है, यह और बात है कि कांग्रेस में रहकर वह दलितों के लिए उतना कुछ नहीं कर पाए जितना करना चाहते थे। देश के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस नेता बाबू जगजीवन राम को सम्मानपूर्वक बाबूजी कहा जाता था। अंग्रेज जब ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अपनाते हुए दलितों को सामूहिक धर्म-परिवर्तन करने पर मजबूर कर रहे थे तब बाबूजी ने इस अन्यायपूर्ण कर्म को रोका था। इस घटनाक्रम के पश्चात् बाबूजी दलितों के सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता के रूप में जाने गए व गांधीजी के विश्वसनीय एवं प्रिय पात्र बने व भारतीय राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश कर गए। अपने विद्यार्थी जीवन में बाबूजी ने वर्ष 1934 में कलकत्ता के विभिन्न जिलों में संत रविदास जयन्ती मनाने के लिए अखिल भारतीय रविदास महासभा का गठन किया था।
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बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की चर्चा कि जाए तो आजाद भारत में कांशीराम ने जिस रणनीतिक सूझबूझ और मेहनत की बदौलत दलितों और वंचितों में आत्म-सम्मान, स्वाभिमान और मानवीय गरिमा की भावना का संचार करते हुए उनके लिए देश की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी खड़ी की और उसे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सत्ता दिलायी, ऐसा उदाहरण दुनियाभर में कम ही देखने को मिलते हैं। कांशीराम जिन्होंने दलितों और वंचितों को बुलेट की बजाय बैलेट का रास्ता चुनने के लिए तैयार किया। हालांकि, वह कहते थे कि अन्याय से निपटने के लिए दलितों एवं वंचितों को तैयारी बुलेट की भी रखनी चाहिए।
उक्त नेताओं की दलितों के बीच पैठ काफी गहरी थी, लेकिन यह मुट्ठी भर दलित नेता दलित समाज के लिए चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर सके। आज तक व्यापक नेतृत्व नहीं मिल पाने के कारण दलितों की स्थिति भी बहुत ज्यादा अच्छी नहीं हुई है। समाज का एक छोटा-सा तबका पढ़ा-लिखा दिखता जरूर है पर यह जमीनी हकीकत से कोसों दूर है। कोई भी अपने आसपास के वातावरण को देखकर जरूर इस गलतफहमी को पाल सकता हैं कि दलितों की स्थिति बहुत सुधर गई है लेकिन आज भी वास्तविकता समाज के ग्रामीण इलाकों में मौजूद लोगों को ही पता है कि आज भी दलितों के साथ कैसा भेदभाव हो रहा है। उन्हें किस तरह से छुआछात का शिकार होना पङ़ता हैं। देश में आरक्षण व्यवस्था लागू तो हो गई है लेकिन जिस व्यक्ति तक इस व्यवस्था का लाभ पहुँचना चाहिए उस व्यक्ति तक आज भी इस व्यवस्था का लाभ सही तरह से नहीं पहुँच रहा है।
-अजय कुमार
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