सपा-बसपा से गठबंधन नहीं करना कांग्रेस के लिए फायदेमंद सिद्ध होगा

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डॉ. संजीव राय । Jan 7 2019 2:10PM

मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़-राजस्थान में हुए हालिया चुनाव में, कांग्रेस के साथ सपा-बसपा का गठबंधन नहीं हो सका। कांग्रेस से अलग, सपा-बसपा ने चुनाव लड़ा लेकिन जहाँ कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक जीत मिली वहीँ, सपा-बसपा की उम्मीदो को पंख नहीं लग पाया।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खुद को मज़बूत करने का यह सुनहरा अवसर है। यह बात तय है कि उत्तर प्रदेश में जब सपा-बसपा कमज़ोर होंगी तभी कांग्रेस मज़बूत होगी। सपा-बसपा का एक साथ आना, फूलपुर और गोरखपुर के लोकसभा उपचुनाव में मिली जीत से भले ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव उत्साहित हुए हों लेकिन उनकी आगे की राह आसान नहीं हैं। अखिलेश यादव जिस तरह से कांग्रेस को लेकर मुखर आलोचना कर रहे हैं, मध्य प्रदेश में अपने एक विधायक को मंत्री बनाने के लिए सार्वजनिक नाराजगी ज़ाहिर कर रहे हैं उससे कांग्रेस पर दबाव कम बनता है, उनकी बेचैनी अधिक सामने आ रही है। उत्तर प्रदेश में पिछला   विधान सभा चुनाव, सपा-कांग्रेस ने साथ मिलकर लड़ा था, दोनों के ही अनभुव ठीक नहीं रहे। अब दोनों ही फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहते हैं। अखिलेश यादव को उनके घर में ही चाचा शिवपाल घेरना चाहते हैं।   मायावती ने राजस्थान-मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकारों से अपने वोट बैंक का ध्यान रखते हुए अधिक परिपक्व और राजनीतिक मांग की है। उन्होंने दलितों पर, आरक्षण को लेकर हुए मुक़दमे वापस करने की मांग की है। इस मांग को कांग्रेस आसानी से स्वीकार कर लेगी। मायावती लोकसभा चुनाव के बाद भी अपने लिए सभी दरवाजे खुले रखना चाहती हैं। बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही बसपा को लेकर आक्रामक नहीं हैं। बसपा किसके लिए मददगार होगी और कब तक होगी, यह राजनीतिक परिस्थिति पर निर्भर होगा। फ़िलहाल बसपा आगामी लोकसभा में अपनी सम्मानजनक उपस्थिति की चिंता में है।

दरअसल, मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़-राजस्थान में हुए हालिया चुनाव में, कांग्रेस के साथ सपा-बसपा का गठबंधन नहीं हो सका। कांग्रेस से अलग, सपा-बसपा ने चुनाव लड़ा लेकिन जहाँ कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक जीत मिली वहीँ, सपा-बसपा की उम्मीदो को पंख नहीं लग पाया। छत्तीसगढ़ में अजित जोगी-मायावती की चुनाव के बाद, किसी एक पार्टी को समर्थन देने की योजना औंधे मुँह गिर गई और फिलहाल न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी को वहां उनकी ज़रूरत है। 

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अब तीन राज्यों में हुई जीत और कर्नाटक में जेडीएस के साथ चल रही सरकार से कांग्रेस में जहाँ आत्मविश्वास बढ़ा है वहीं उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा को अपना घर बचाना है। कांग्रेस को वर्षों से अपनी खोई ज़मीन को वापस पाना है। पिछले छह महीनों में राफेल, जीएसटी जैसे मुद्दों को लेकर पार्टी के आक्रामक रुख ने कांग्रेस को वास्तविक रूप में मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित किया है। साथ ही बीजेपी द्वारा, प्रमुखता से कांग्रेस पर हमला करने से कांग्रेस लगातार चर्चा में बनी हुई है और तमिलनाडु-आंध्र प्रदेश-महाराष्ट्र-कर्नाटक-बिहार से लेकर जम्मू-कश्मीर तक के प्रमुख दलों के साथ उसका राज्य-स्तर पर गठबंधन तय है। ऐसे में तेलंगाना के मुख्य मंत्री केसीआर का गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों का साथ लेन का उपक्रम लोकसभा चुनाव पूर्व कोई परिणाम लाएगा, इसमें संदेह है। बल्कि कुछ राजनितिक टिप्पणीकार, केसीआर की मंशा पर ही संदेह जताते हैं। 

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बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 सीटें मिली थीं। कांग्रेस का पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में वोट छह प्रतिशत के लगभग था और सपा-बसपा का मिले संयुक्त वोट, बीजेपी को मिले वोट से ज़्यादा दिखते हैं लेकिन क्या सपा, अब उतनी ही मज़बूत है ? अगर कांग्रेस गठबंधन में शामिल नहीं होती है और सपा-बसपा से अलग चुनाव लड़ती है तो क्या लोक सभा चुनाव के दौरान, सपा-बसपा को जनता बीजेपी के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखेगी ? शायद नहीं। बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में भी दमदार प्रदर्शन किया था और अब वहां बीजेपी की सरकार है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की मुख्य चिंता अपने प्रदर्शन को दोहराने की होगी क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी की लोक सभा चुनाव में सीटें कम आएँगी तो उसकी भरपाई दूसरे राज्यों से मुश्किल है। लोक सभा चुनाव में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद है। 

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1989-1990 के दौर से सपा-बसपा का मज़बूत उभार, कांग्रेस को कमज़ोर कर गया। तब से कांग्रेस ने अलग-अलग दलों के साथ जा कर प्रयोग किया लेकिन पार्टी को कुछ खास सफलता नहीं मिली। अब केंद्र और उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सत्ता में वापसी से प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं। अब अखिलेश और शिवपाल के अलग होने और मुलायम के निष्क्रिय हो जाने से उत्तर प्रदेश में सपा पहले जैसी मज़बूत नहीं  रही। मुलायम के नेतृत्व वाली सपा का मुख्य आधार, यादवों-मुसलमानो के साथ-साथ कुछ राजपूत-गुर्जरों और कुछ अति पिछड़ी जातियों तक रहा है लेकिन सपा के भीतर, दो फांक हो जाने के बाद, शिवपाल और अखिलेश अपने-अपने दल को मज़बूत करने में लगे हैं। कांग्रेस ने राजस्थान-मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अशोक गहलोत, सचिन पायलट, कमल नाथ और भूपेश बघेल को नेतृत्व देकर, सामाजिक समीकरणों को भी साधने की कोशिश की है। जो वोटर 2014 में बीजेपी के साथ थे, उनमें से कुछ प्रतिशत नाराज़ हैं। आजमगढ़ में एक स्थानीय नेता ने कहा कि बीजेपी के विरोध वाले वोट कांग्रेस को जा सकते हैं बशर्ते, कांग्रेस, सपा के साथ गठबंधन न करे। उनका कहना था कि सपा की सरकार में, ज़मीनी स्तर पर लोगों को ऐसा लगता है कि ज़मीन-मकान पर कब्ज़े बढ़ जाते हैं, माफ़िया और सक्रिय हो जाते हैं और आम आदमी की  थाना-पुलिस में सुनवाई कम होती है, इसीलिए कांग्रेस को गैर-सपा दलों का गठबंधन बनाना चाहिए। अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल ने कांग्रेस के सहयोग से चुनाव लड़ा और वह राष्ट्रीय स्तर की भूमिका के लिए कांग्रेस के साथ जाना चाहेंगे। कांग्रेस के पास, उत्तर प्रदेश में अभी भी कद्दावर नेताओं की कमी नहीं है लेकिन पार्टी का ज़मीनी स्तर पर संगठन कमज़ोर है और उसका मुकाबला संगठन आधारित बीजेपी और  मूलतः जाति आधारित दलों से होना है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, अनिर्णय में रहने की बजाय, अपने दम पर चुनाव में उतरने का साहस कर सकती है और कमज़ोर हुई सपा-बसपा से अपनी मज़बूती बना सकती है।

- डॉ. संजीव राय

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