किसान आंदोलन, भारतीय लोकतंत्र और राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र

political parties
संतोष पाठक । Dec 10 2020 11:04AM

किसान आंदोलन हो या कोई अन्य मुद्दा, देश के राजनीतिक दल हमेशा जनता के साथ छलावा ही करते नजर आते हैं। ये राजनीतिक दल जब सत्ता में होते हैं तो आर्थिक सुधार से जुड़ी नीतियों को तेजी से लागू करते हैं और विपक्ष में जाते ही उनका विरोध करने लगते हैं।

देश में किसान आंदोलन चल रहा है और देश के कई राज्यों के किसान खासकर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों से पारित किए जाने के बाद राष्ट्रपति की सहमति से लागू किए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ये किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। इस आंदोलन की शुरुआत एमएसपी अर्थात् न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की मांग के साथ हुए थी लेकिन सरकार द्वारा बातचीत करने के लिए तैयार हो जाने के बाद अब किसान नेता तीनों कानूनों को ही रद्द करने की मांग कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि शायद इन किसान संगठनों या किसान नेताओं को पहले यह लगता था कि मोदी सरकार उनसे बातचीत के लिए आगे नहीं आएगी इसलिए पहले लक्ष्य छोटा ही रखा गया था। वैसे भी एमएसपी की गारंटी की मांग का कोई बहुत ज्यादा महत्व नहीं था क्योंकि सरकार ने लगातार यह साफ कर दिया था कि एमएसपी की व्यवस्था से कोई छेड़-छाड़ नहीं होगी। वैसे भी मात्रा या प्रभाव भले ही कम ज्यादा होता रहे लेकिन यह तो सत्य है कि इस देश में किसान एक बड़ा वोट बैंक है और कोई भी सरकार अपने पर किसान विरोधी होने का ठप्पा नहीं लगाना चाहेगी। हालांकि इसके बावजूद यह भी एक सच्चाई है कि आजादी के बाद से ही देश के किसान ठगे गए हैं। सरकार की मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन इसी सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत कार्य कर रही व्यवस्था ने हमेशा किसानों के साथ छल ही किया है। 

इसे भी पढ़ें: ब्रिटेन की संसद में उठा किसानों के आंदोलन का मुद्दा, भ्रमित हो जॉनसन ने बताया भारत-पाकिस्तान के बीच का विवाद

देश के कई राज्यों के किसान जब इस ठंड में दिल्ली की सीमा पर बैठे थे। इसी दौरान 6 दिसंबर को देश के संविधान निर्माता कहे जाने वाले बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि आई और इस दिन देश के सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने बाबा साहेब को नमन करते हुए उन्हे ऋद्धांजलि दी और उनके सपनों का भारत बनाने का संकल्प लिया। आंदोलन के इस दौर में उन्हीं बाबा साहेब के एक कथन को याद करना बहुत जरूरी है। भारतीय संविधान के बारे में उन्होंने कहा था कि ''मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’

संविधान को अमल में लाने वाले का मतलब केवल सत्ताधारी दल से ही नहीं है बल्कि देश के वो तमाम राजनीतिक दल जिनके प्रतिनिधियों को चुन कर देश की जनता संसद, विधानसभा और स्थानीय निकायों में भेजती है, ये सब देश की सरकार का एक अभिन्न हिस्सा है। राजनीतिक दल मिलकर विधायिका को चलाते हैं। सत्ताधारी दल के पास भले ही बहुमत हो लेकिन विपक्षी दलों के सहयोग के बिना सदन चलाना संभव ही नहीं है।

इसे भी पढ़ें: किसान नेता शिव कुमार कक्का बोले, किसान संगठनों के बीच नहीं है कोई मतभेद

सत्ता में रह चुका है देश का हर राजनीतिक दल

देश जब आजाद हुआ तो महात्मा गांधी की सलाह पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मिले-जुले मंत्रिमंडल का गठन किया था। इसमें कांग्रेस के विरोधी खेमे के भी कई नेता मंत्री थे। बाद में सरकार के कामकाज को लेकर जब मतभेद बढ़ते गए तो ये नेता एक-एक करके सरकार से अलग होते गए और अपनी सरकार विरोधी नीतियों को लेकर जनता के सामने गए। चुनाव दर चुनाव इन्हें धीरे-धीरे जनसमर्थन मिला। 1967 में कई राज्यों में विरोधी दलों की सरकार बनी। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में विरोधी दलों ने मिलकर जनता पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा और केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनाई। 1989 में वाम मोर्चा और भाजपा के सहयोग से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनाई। 1996 में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए गैर भाजपाई दलों ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। 1998 से 2004 तक भाजपा के नेतृत्व में और 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में देश के 2 दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों ने केंद्र की सत्ता का सुख भोगा। वास्तव में एक-दो राजनीतिक दलों को छोड़कर शायद ही देश का कोई कोई राजनीतिक दल बचा हो जिसने कभी न कभी केंद्र की सत्ता में भागीदारी और हिस्सेदारी न की हो लेकिन इसके बावजूद उनके दोहरे रवैये की वजह से देश को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

इसे भी पढ़ें: केंद्रीय मंत्री रावसाहेब दानवे का बड़ा बयान, किसानों के विरोध-प्रदर्शन के पीछे चीन और पाकिस्तान

चुनाव हार कर विपक्ष में बैठते ही क्यों बदल जाते हैं नेताओं के सुर ?

किसान आंदोलन हो या कोई अन्य मुद्दा, देश के राजनीतिक दल हमेशा जनता के साथ छलावा ही करते नजर आते हैं। ये राजनीतिक दल जब सत्ता में होते हैं तो आर्थिक सुधार से जुड़ी नीतियों को तेजी से लागू करते हैं और विपक्ष में जाते ही उनका विरोध करने लगते हैं। कृषि से जुड़े इन 3 कानूनों को ही देखा जाए तो अध्यादेश आने के समय से ही विरोधी दल मनमोहन सरकार के समय विपक्ष में रहे स्वर्गीय सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के भाषण को वायरल कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के पुराने स्टैंड को बताते हुए विरोधी दलों के दोहरे रवैये को लेकर जमकर निशाना साधा। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि कांग्रेस ने खुद अपने 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में कृषि से जुड़े APMC एक्ट को समाप्त करने की बात कही थी। कृषि मंत्री के तौर पर पिछली सरकार में एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने लगातार इन सुधारों की वकालत की थी। आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने 23 नवंबर 2020 को नए कृषि कानूनों को नोटिफाई करके दिल्ली में लागू कर दिया है। लालू और मुलायम के समर्थन पर टिकी देवगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सरकार के दौरान भी आर्थिक सुधार की नीतियों को तेजी से लागू किया गया। लेकिन आज ये सभी दल सिर्फ विरोध करने के नाम पर विरोध करने की खानापूर्ति कर रहे हैं और इसका नुकसान देश की जनता को उठाना पड़ रहा है। किसान भड़के हुए हैं और आंदोलनरत है तो वहीं इनकी वजह से लाखों लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही आंदोलन और बंद की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को भी हजारों करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है।

इसे भी पढ़ें: कृषि कानूनों पर बोले कमलनाथ, देश को बर्बाद कर देगी हवा में चल रही सरकार

दोहरा रवैया छोड़ कर देश को सही विकल्प तो दें राजनीतिक दल

मुद्दा यह नहीं है कि देश के राजनीतिक दल किन नीतियों का समर्थन करते हैं और किनका विरोध। असली मुद्दा तो यह है कि देश के राजनीतिक दल, देश की जनता के साथ छलावा करके देश के संविधान और कानून का मखौल क्यों उड़ाते हैं ? सनद रहे कि इस देश में अधिकांश राजनीतिक समस्या की जड़ इन राजनीतिक दलों का दोहरा रवैया ही है जिसकी वजह से जनता का विश्वास भारतीय संविधान और सरकार की कार्यप्रणाली से उठता जा रहा है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दल यह तय करें कि उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क न हो। अगर आप सत्ता में रहते हुए किसी कानून की वकालत करते हो, सदन में मत के दौरान किसी बिल का खुल कर या मौन समर्थन करते हो तो फिर बाहर सड़क पर विरोध का नाटक क्यों ? जनता को यह खुल कर देखने दो कि किस राजनीतिक दल की विचारधारा क्या है ? ताकि जब उसे विकल्प का चयन करना पड़े तो उसकी आंखों के सामने तस्वीर साफ हो और फिर भी उसे अगर कुछ नया चाहिए तो आंदोलन, भारत बंद, सड़क जाम, रेल रोको अभियान और हिंसा की बजाय चुनाव के दौरान ही शांतिपूर्ण तरीके से विकल्प खड़ा कर दे।

-संतोष पाठक

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवँ स्तम्भकार हैं)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़