अखिलेश यादव ने नजरें फेर लीं ! अब यूपी में नये दल का साथ तलाश रहे हैं मुस्लिम मतदाता

Akhilesh Yadav
ANI
अजय कुमार । Apr 19 2022 10:07AM

पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम वोट बसपा और सपा में बंटता आया था। हालांकि 2022 के विधान सभा चुनाव में मुलसमानों ने बसपा से पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया। इसकी वजह में जाया जाए तो विधान सभा चुनाव 2022 में एक तरफ बसपा सुस्त नजर आ रही थी।

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव परिवार के भीतर के झगड़े से निकल नहीं पाए थे कि मुसलमानों ने उनके खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया है। सपा नेतृत्व के खिलाफ मुसलमानों की नाराजगी की पहली आहट तब सुनाई दी थी जब पार्टी के ही कद्दावर नेता आजम खान की अखिलेश यादव से नाराजगी की खबर सामने आई। इसके बाद तो सपा आलाकमान पर चौतरफा हमला होने लगा है। कई मुस्लिम नेताओं के साथ-साथ मुस्लिम संगठनों ने भी सपा प्रमुख की नीयत पर सवाल खड़े कर दिये हैं। आजम खान के एक करीबी नेता ने तो मुसलमानों के साफ नाइंसाफी की बात कहते हुए पार्टी से ही किनारा कर लिया है।

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मुसलमानों की जिस तरह से सपा प्रमुख के खिलाफ नाराजगी नजर आ रही है उससे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती का विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद दिया गया वह बयान अनायास ही याद आने लगा है, जिसमें वह विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पहली बार मीडिया के सामने आयीं और कहा कि मुस्लिम समाज बसपा के साथ तो लगा रहा, लेकिन इनका पूरा वोट भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी की तरफ शिफ्ट कर गया। बसपा को इसी की सजा मिली। भारी नुकसान हुआ। उन्होंने मुसलमानों को चेताया कि मुस्लिम समाज ने बार-बार आजमाई पार्टी बसपा से ज्यादा सपा पर भरोसा करने की बड़ी भारी भूल की है। बसपा की भाजपा से लड़ाई राजनीतिक के साथ-साथ सैद्धान्तिक भी है। अगर मुस्लिमों का वोट एकतरफा सपा में नहीं जाता तो यूपी का चुनाव परिणााम ऐसा नहीं होता। बसपा सुप्रीमो ने मुसलमानों को पहले ही अलर्ट कर दिया था कि ऐसा करने वाले लोग (सपा के पक्ष में वोट करने वाले मुसलमान) समय बीतने के बाद पछताएंगे। बसपा मुखिया ने कहा कि यदि मुस्लिम वोट भी दलित वोटों के साथ मिल जाता, तो पश्चिम बंगाल जैसा चमत्कार हो सकता था।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह बात हवा में नहीं तथ्यों के आधार पर की थी। उत्तर प्रदेश में कुछ साल पहले तक माना जाता था कि जिस पार्टी ने अपने कोर वोट के साथ मुसलमानों को साध लिया, उसका लखनऊ पर कब्जा तय है। उत्तर प्रदेश में जीत का यह फार्मूला आधी सदी तक जारी रहा, यह तिलिस्म 2014 के लोकसभा चुनावों में पहली बार टूट गया। बीजेपी के शानदार प्रदर्शन ने इस धारणा पर करारी चोट की। इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनावों के नतीजों में भी यही देखने को मिला कि मुस्लिम वोटों के बिना भी सत्ता हासिल की जा सकती है। दरअसल, भाजपा ने मुस्लिम वोटों के खिलाफ हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करके सबको चौंका दिया था। इसीलिए 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ आने के बावजूद बीजेपी ने हिन्दू वोटों के सहारे यूपी की अधिकांश सीटों पर परचम फहराया था। कहने की जरूरत नहीं है कि उन चुनावों में मुसलमानों के एक बहुत बड़े हिस्से का वोट सपा-बसपा गठबंधन को मिला था, लेकिन इसके बावजूद वे बीजेपी के रथ को रोकने में नाकाम रहे थे।

पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम वोट बसपा और सपा में बंटता आया था। हालांकि 2022 के विधान सभा चुनाव में मुलसमानों ने बसपा से पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया। इसकी वजह में जाया जाए तो विधान सभा चुनाव 2022 में एक तरफ बसपा सुस्त नजर आ रही थी, वहीं दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के नेता मुसलमानों के बीच बसपा को बीजेपी की ‘बी टीम’ होने का भरोसा दिलाने में कामयाब रहे। 2022 के विधान सभा चुनावों में मुसलमानों ने जिस हद तक जाकर अखिलेश यादव का समर्थन किया, वैसा यूपी में शायद ही कभी देखने को मिला था। हालांकि मुस्लिम और यादव समीकरण के पूरी तरह अपने पाले में होने के बावजूद अखिलेश जीत दर्ज कर पाने में नाकाम रहे। समाजवादी पार्टी की यही नाकामी अब सपा प्रमुख पर भारी पड़ रही है।

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बीते कुछ दिनों में मुस्लिम समुदाय के कुछ नेताओं के बयान देखकर लग रहा है कि अब मुसलमानों का अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी से मोहभंग हो रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और सांसद शफीकुर्रहमान बर्क जैसे नेताओं की नाराजगी की खबरें सामने आई हैं। पार्टी के तमाम मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है और अखिलेश यादव चुप्पी साधकर बैठे हुए हैं। अगर वह कुछ बोलते भी हैं तो उनकी आवाज सिर्फ सोशल मीडिया तक ही सीमित रह जाती है। नाहिद हसन से लेकर आजम खान और शहजिल इस्लाम तक, तमाम सपा नेताओं पर कार्रवाई हुई लेकिन अखिलेश की तरफ से कुछ खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली।

      

ऐसे में सवाल उठता है कि अगर मुसलमानों का अखिलेश से मोहभंग होता है तो यूपी के मुसलमानों के सामने और विकल्प क्या हैं। तमाम संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों के सामने जो विकल्प नजर आ रहे हैं उसके अनुसार मुसलमान अपनी लीडरशिप खड़ी कर सकते हैं। बहरहाल, यदि उत्तर प्रदेश के मुसलमान अपनी लीडरशिप तैयार करने में कामयाब हो भी जाते हैं तो भी सत्ता में हिस्सेदारी का उनका सपना पूरा होना मुश्किल ही है क्योंकि सिर्फ कुछ ही विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान अपने दम पर किसी प्रत्याशी को सीट जीता पाने में कामयाब हो सकते हैं। उस पर भी कभी किसी प्रत्याशी को किसी एक समुदाय का 100 फीसदी वोट ट्रांसफर हो पाना मुश्किल ही होता है। ऐसे में जाहिर-सी बात है कि उन्हें यूपी की सत्ता में आने के लिए किसी और समाज की पार्टी के साथ गठजोड़ करना ही होगा।

हां, यह जरूर हो सकता है कि मुसलमान अपने बल पर कुछ सीटें जीत लें, उसके बाद विधानसभा में जिस किसी दल को उनकी जरूरत पड़े उसके साथ मोलभाव करके सत्ता में भागीदारी हासिल कर लें। दूसरे मुसलमान एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी का रुख कर लें और दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे यूपी की सत्ता में अपनी ताकत का इजहार करें। हो यह भी सकता है कि मुसलमान कांग्रेस के साथ चला जाए। मगर ऐसा होना इसलिए आसान नहीं है क्योंकि आज भी बड़ी संख्या में मुसलमानों का मानना है कि बाबरी मामले में कांग्रेस की तत्कालीन सरकार की भूमिका काफी खराब थी। तब की केन्द्र में सत्तारुढ़ कांग्रेस सरकार के चलते बाबरी ढांचे को बचाया नहीं जा सका था। उधर, ओवैसी भी यूपी में अपनी जड़ें तलाश रहे हैं, लेकिन अभी तक तो ओवैसी पर भी बीजेपी की बी टीम होने का ठप्पा लगा हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि मुसलमानों के साामने समस्या यह है कि वह अपने दम पर यूपी में सत्ता हासिल नहीं कर सकता है और उसको इसके लिए मायावती या अखिलेश जैसे किसी बड़े नेता का आश्रय लेना ही पड़ेगा।

-अजय कुमार

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