24 वर्ष बाद मुलायम-मायावती एक मंच पर, क्या फिर से उड़ जाएगी भाजपा?

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संतोष पाठक । Apr 20 2019 12:13PM

1993 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें हासिल हुई। वैसे तो सपा-बसपा दोनों का आंकड़ा मिलकर सिर्फ 176 तक ही पहुंच पाया था जो कि बहुमत से काफी दूर था लेकिन इसने अपने गठबंधन से एक सीट ज्यादा यानी 177 सीट जीतने वाली बीजेपी को भी सत्ता से दूर कर दिया।

1995 गेस्ट हाउस कांड के लगभग 24 वर्षों के बाद मायावती एक बार फिर मुलायम सिंह यादव के मंच पर नजर आई। मंच भी समाजवादी पार्टी का ही था और इलाका भी मुलायम का गढ़ मैनपुरी, जहां से इस बार खुद नेताजी चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन मंच से जिस अंदाज में नेताजी बार-बार जनता से भारी बहुमत से चुनाव जिताने की अपील कर रहे थे। मायावती के अहसान के लिए शुक्रिया अदा कर रहे थे, उससे यह साफ-साफ नजर आ रहा था कि सिर्फ अखिलेश यादव ही नहीं बल्कि मुलायम सिंह भी इस गठबंधन में बसपा और मायावती की अहमियत को बखूबी समझ रहे हैं। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं था जब मुलायम को बसपा की अहमियत समझ आई हो।

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मिले मुलायम-कांशीराम– हवा में उड़ गए जय श्रीराम का दौर 

पहले वी.पी.सिंह और बाद में चन्द्रशेखर के रवैये से परेशान होकर मुलायम सिंह यादव ने अक्टूबर 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया। इसके दो महीने बाद ही विवादित ढांचे के विध्वंस की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और प्रदेश में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई। मुलायम यह बात बखूबी समझ चुके थे कि राम रथ के घोड़े पर सवार बीजेपी के विजय रथ को वो अकेले नहीं रोक सकते। 1984 में बसपा का गठन करने वाले कांशीराम भी लगातार हार की वजह से राजनीतिक हालात को समझ चुके थे। बीजेपी को रोकने के लिए मुलायम-कांशीराम एक साथ आ गए। 

1993 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें हासिल हुई। वैसे तो सपा-बसपा दोनों का आंकड़ा मिलकर सिर्फ 176 तक ही पहुंच पाया था जो कि बहुमत से काफी दूर था लेकिन इसने अपने गठबंधन से एक सीट ज्यादा यानी 177 सीट जीतने वाली बीजेपी को भी सत्ता से दूर कर दिया। अन्य दलों के सहयोग से सपा-बसपा ने सरकार बनाई। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने तो कांशीराम ने मायावती को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया। मायावती सुपर सीएम की तरह मुलायम सिंह को आदेश देने लगी। इसी तरह के रवैये से परेशान होकर कभी वी.पी.सिंह और चन्द्रशेखऱ का साथ छोड़ चुके मुलायम भला इसे कब तक बर्दास्त कर पाते और फिर 1995 में स्टेट गेस्ट हाउस कांड हो गया, जिसे मायावती आज भी भूलने को तैयार नहीं है। मैनपुरी के सपा के मंच से भी मायावती ने इसका जिक्र किया। 

बदली-बदली मायावती तो बदले से दिखे मुलायम भी 

मंच पर जिस अंदाज में मुलायम और मायावती एक दूसरे का अभिवादन करते नजर आए, ऐसा लगा मानो दोनों ही 1995 के उस दौर को भूलकर आगे बढ़ना चाहते हैं। मायावती के भाषण के दौरान कई बार मुलायम ताली बजाते दिखाई दिए। मायावती ने भी खुलकर मुलायम सिंह यादव की तारीफ करते हुए उन्हे पिछड़े वर्ग का असली, जन्मजात और वास्तविक नेता तक बता डाला। मुलायम ने भी मायावती का स्वागत करते हुए कहा कि उन्होने हमेशा साथ दिया है और वे उनके अहसान को कभी नहीं भूलेंगे। मुलायम और अखिलेश अपने भाषणों में मायावती के प्रति बार-बार सम्मान दिखाने की अपने कार्यकर्ताओं से अपील कर परोक्ष रूप से गेस्ट हाउस कांड पर अफसोस भी जताते नजर आए। 

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मोदी-शाह की जोड़ी से परेशान होकर साथ आए अखिलेश-मायावती 

स्टेट गेस्ट हाउस कांड के तुरंत बाद मायावती मुख्यमंत्री बनी। मुलायम सिंह यादव और बाद में अखिलेश ने भी प्रदेश में सरकार बनाई लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली तो अखिलेश केवल अपने परिवार के कुछ गढ़ को ही बचा पाये। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ऐतिहासिक जीत हासिल कर बीजेपी ने सपा-बसपा के राजनीतिक भविष्य पर कई सवाल खड़े कर दिए और ऐसे में अखिलेश को फिर से अपने पिता नेताजी के 1993 के फॉर्मूले की याद आई। गोरखपुर और फुलपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली कामयाबी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में मिलकर लड़ने के अखिलेश और मायावती के इरादों को और ज्यादा मजबूत कर दिया।  

अटल-आडवाणी नहीं मोदी-शाह की बीजेपी 

सवाल लगातार उठ रहा है कि क्या 2019 में भी 1993 का इतिहास दोहराया जा सकता है? क्या सपा-बसपा मिलकर 2019 में मोदी के विजय रथ को रोक सकते हैं? क्या 1993 में जो उत्तर प्रदेश में हुआ वो 2019 में केन्द्र में भी हो सकता है? इसका जवाब बीजेपी की कार्यशैली में ही तलाशा जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1993 में दोनो के साथ आने के बावजूद उत्तर प्रदेश में बीजेपी को इन दोनों से एक सीट ज्यादा मिली थी। अखिलेश-मायावती को यह भी ध्यान रखना होगा कि 2019 की बीजेपी अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की है जो विरोधियों के सामने से जीती हुई चुनावी प्लेट भी छीन कर सरकार बना लेने के माहिर खिलाड़ी है। वर्तमान बीजेपी 1993 की तरह अन्य राजनीतिक दलों के लिए अब अछूत भी नहीं रह गई है इसलिए सिर्फ उत्तर प्रदेश में एक साथ आकर मोदी-शाह के विजय रथ को देशभर में रोक पाना संभव नहीं लग रहा है। इस कठिन चुनौती को सपा-बसपा भी समझ रहे हैं इसलिए तो दोनो साथ आए है क्योंकि इन दोनों ही दलों के लिए मोदी को रोकने से ज्यादा बड़ी चुनौती अपनी राजनीतिक जमीन को और ज्यादा खिसकने से रोकना है।

- संतोष पाठक

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