विकास के मोर्चे पर अमेरिका-चीन की नकल नहीं करे भारत, अन्यथा बढ़ेंगी उलझनें
कहना न होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी वैश्विक अर्थव्यवस्था की परछाईं मात्र है। इसलिए दुनियावी प्रभाव से वह अछूती नहीं रह सकती। दुनिया में मची हथियारों की होड़ से वह भी बुरी तरह से प्रभावित है। वहीं हिंदुत्व को इस्लाम और ईसाईयत दोनों से खतरा है।
भारत में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से आमलोग ही नहीं, बल्कि देश के प्रमुख रणनीतिकारों में एक समझे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत भी परेशान हैं। इसलिए जहां एक ओर विकास की समसामयिक दृष्टि पर ही उन्होंने सवाल उठा दिया है, वहीं दूसरी ओर उसका निर्णायक हल भी बता दिया है, यदि कोई उसकी गहराई में जाये, देखे-परखे तो। संभवतया भारत के सोने की चिड़ियां होने और यहां पर दूध की नदियां बहने का राज भी यही था। इसलिए अब यह मौजूदा मोदी सरकार और उनके मातहत चल रही विभिन्न राज्य सरकारों पर निर्भर है कि वह संघ प्रमुख की सोच को साकार करती हैं या फिर अन्य राजनीतिक बयानबाजियों की तरह ही उनकी दूरदर्शिता भरी सामाजिक बयानबाजी को भी निरर्थक साबित होने के लिए समय-प्रवाह पर सबकुछ छोड़ देती हैं।
यहां पर यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के स्वप्नद्रष्टा और नीतिनियन्ता भी वही हैं, जो सामने से नहीं बल्कि पर्दे के पीछे से अपनी महती भूमिका अदा करते आए हैं। एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनकी ही पसंद के हैं। यह अलग बात है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने अब अपना सियासी कद उनके सामाजिक कद से कई गुणा ज्यादा बढ़ा लिया है, इसलिए उनकी हर बात को मानने के लिए वह बाध्य भी नहीं हैं। यही नहीं, पीएम मोदी ने अपने दायित्वों के अनुरूप खुद में भी बड़ा बदलाव लाया है, ताकि दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली नेताओं की कतार में मजबूती से खड़ा रह सकें। यही वजह है कि मोहन भागवत को यह बात सार्वजनिक तौर पर कहनी पड़ी, ताकि सरकार उसपर गंभीर रुख अख्तियार करे।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि एक प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा हासिल की गई विभिन्न सफलताओं का अपना महत्व है। हालांकि, देश में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के चलते उनकी ये सफलताएं गौण होती जा रही हैं। इसलिए लोगों को हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और विकास की घूंटी पिलाना उनकी राजनीतिक मज़बूरी है, ताकि महंगाई व बेरोजगारी से हांफती अवाम उनके खिलाफ मुखर न हो जाये। वैसे तो एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भी अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों द्वारा अग्रसारित देश की नई आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ाया है, इसलिए जनअसंतोष की संभावना हाल-फिलहाल नहीं है। लेकिन भय, भूख और भ्रष्टाचार को मिटाने में पूरी तरह से विफल रही मौजूदा सरकार आखिर कब तक खैर मनाएगी। यह बात अलग है कि मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत का जो दृष्टिकोण उन्होंने दिया है, वे काफी महत्व की हैं और लोगों को लुभा भी रही हैं।
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कहना न होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी वैश्विक अर्थव्यवस्था की परछाईं मात्र है। इसलिए दुनियावी प्रभाव से वह अछूती नहीं रह सकती। दुनिया में मची हथियारों की होड़ से वह भी बुरी तरह से प्रभावित है। वहीं हिंदुत्व को इस्लाम और ईसाईयत दोनों से खतरा है। इसलिए उस नजरिये से भी भारत को अपना शक्ति सामर्थ्य बढ़ाना होगा, जो मोदी सरकार की प्राथमिकता है। हालांकि, वैश्वीकरण के इस दौर में वो चाह कर भी भारत को अलग-थलग नहीं रख सकते हैं। हां, वह भारतीयों के दूरगामी हित में जितना कुछ कर सकते हैं, निर्विवाद रूप से करने की कोशिश कर रहे हैं।
यही वजह है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दो टूक शब्दों में सत्ता प्रतिष्ठानों को यह जतला दिया है कि यदि भारत, चीन या अमेरिका जैसा बनने की कोशिश करेगा तो उसका विकास नहीं होगा। और यदि होगा भी तो भारत भी चीन और अमेरिका जैसा बन जाएगा। हालांकि उन्होंने भारत को व भारतीयों को विकास की नई दृष्टि देते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि भारत का विजन, लोगों की परिस्थिति, संस्कार, संस्कृति, विश्व के बारे में भारतीयों के विचार, सबसे अलग और उदारवादी हैं। इसलिए इन सभी के आधार पर भारत का मुकम्मल विकास होगा। बता दें कि अमेरिका और चीन क्रूर यानी युद्ध प्रेमी देश हैं। एक हथियारों का सौदागर है तो दूसरा सीमाओं पर उधम मचाते रहने वाला। इसलिए भारत इनके जैसा बनना कभी नहीं चाहेगा। यह एक ऐसी समसामयिक हकीकत है, जिसको झुठलाना किसी के लिए संभव भी नहीं है।
वहीं, मोहन भागवत ने एक कदम आगे बढ़कर यहां तक कह डाला कि जो धर्म, मनुष्य को समृद्ध और सुखी बनाता है पर प्रकृति को नष्ट करता है, वह धर्म नहीं है। देखा जाए तो यह एक तरफ जहां सनातन धर्म यानी हिन्दू धर्म को क्लीन चिट है, वहीं इसके प्रतिस्पर्धी धर्मों पर एक करारा प्रहार भी। वहीं, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह कहना कि भारत एक भू-सांस्कृतिक देश है, जहां हमारी एकता का आधार हमारी संस्कृतियां हैं। इसलिए इन्हें अक्षुण्ण रखते हुए ही हमें विकास के वह प्रतिमान गढ़ने होंगे जहां हर हाथ को उचित काम और दाम दोनों मिले, ताकि जीवन यापन में संकट न आये। यदि यह आया तो देर-सबेर युवा क्रांति दस्तक देगी ही, तय मानिए। शायद यही सोचकर संघ प्रमुख सबको पहले से ही आगाह कर चुके हैं। यदि प्रशासन समय रहते ही उनकी बातों को अमलीजामा पहना देगा तो ठीक, अन्यथा आप क्रांति गूंजेगी ही। विपक्ष की यही चाह भी है।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
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